Wednesday, 13 September 2023

अयोध्याकाण्ड

हंस-बंस दशरथु जनकु राम लखन से भाइ। जननी तूं जननी भी बिधि सन कछु न बसाइ।।_अर्थ_मुझे सूर्यवंश ( _सा वंश ), दशरथजी (_सरीखे ) पिता और राम_लक्ष्मण_से भाई मिले। पर हे जननी ! मुझे जन्म देनेवाली माता तू हुई ! ( क्या किया जाय ! ) विधाता से कुछ भी वश नहीं चलता।






जब तैं कुमति कुमत जियं ठयऊ। खंड खंड होइ हृदउ न गयउ।। बर मागत मन भइ नहीं पीड़ा। गरि न जीह मुंह परेउ न कीरा।।_अर्थ_अरी कुमति ! जब तूने हृदय में यह बुरा विचार ( निश्चय ) ठाना, उसी समय तेरे हृदय के टुकड़े _टुकड़े ( क्यों न ) हो गये ? वरदान मांगते समय तेरे मन में कुछ भी पीड़ा नहीं हुई ? तेरी जीभ गोल नहीं गयी ? तेरे मुंह में कीड़े नहीं पड़ गये ?






भूप प्रतीति तोरि किमि किन्हीं। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही।। बिधिहुं न नारी हृदयं गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी।।_अर्थ_राजा ने तेरा विश्वास कैसे कर लिया ? ( जान पड़ता है ) विधाता ने मरने के समय उनकी बुद्धि हर ली थी। स्त्रियों के हृदय की गति ( चाल ) विधाता भी नहीं जान सके। वह संपूर्ण कपट, पाप और अवगुणों की खान है।







सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ।। अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहिं रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं।।_अर्थ_फिर राजा तो सीधे, सुशील और धर्मपरायण थे। वे भला स्त्री_स्वभाव को कैसे जानते ? अरे, जगत् के जीव_जन्तुओं में ऐसा कौन है जिसे रघुनाथजी प्राणों के समान प्यारे नहीं हैं।






भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही।। जो हसि सो हसि मुंह मसि लाई। आंखि ओट उठि बैठहि जाई।।_अर्थ_वे श्रीरामजी भी तुझे अहित हो गये ( वैरी लगे ) ! तू कौन है ? मुझे सच_सच कह ! तू जो है, सो है, अब मुंह में स्याही पोतकर ( मुंह काला करके ) उठकर मेरी आंखों की ओट में जा बैठ।







राम बिलोनी हृदय में प्रगट कीन्ह बिधि मोहि। मैं समान को पातकी बादि कहीं कछु तोहि।।_अर्थ_विधाता ने मुझे श्रीरामजी से विरोध करनेवाले ( तेरे ) हृदय से उत्पन्न किया ( अथवा विधाता ने मुझे हृदय से राम का विरोधी जाहिर कर दिया ) । मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है ? मैं व्यर्थ ही तुझे कुछ कहता हूं।







सुनि सत्रुधन मातु कुटलाई। जेहिं गाय रिस कछु न बसाई।। तेहि अवसर कुबरी तहं आती। बहन विभूषण बिबिध बनाई।।_अर्थ_माता की कुटिलता सुनकर शत्रुघ्नजी के सब अंग क्रोध से जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता। उसी समय भांति_भांति के कपड़ों और गहनों से सजकर कुबरी ( मंथरा ) वहां आयी।







लखि रिस मर्जी लखन लघु भाई। भरत अनल घृत आहुति पाई।। हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा।।_अर्थ_ उसे ( सजी ) देखकर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्नजी क्रोध में भर गये। मानो जलती हुई आग को घी की आहुति मिल गई हो। उन्होंने जोर से थककर कूबर पर एक रात जमा दी। वह चिल्लाती हुई मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ी।







सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटना धरि धरि झोंटी।। भरत दयानिधि दीन्हा छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई।।_अर्थ_उसकी यह बात सुनकर और उसे ना से सिखा तक दुष्ट जानकर शत्रुघ्नजी झोंटा पकड़_पकड़कर उसे घसीटने लगे। तब दयानिधि भरत ने उसे छुड़ा दिया और दोनों भाई ( तुरंत ) कौसल्याजी के पास गये।







मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार। कनक कलप बर बेलि बन मानहुं हनी तुसार।।_अर्थ_कौसल्याजी मैले वस्त्र पहने हैं, चेहरे का रंग बदला हुआ है, व्याकुल हो रही है, दु:ख के बोझ से शरीर सूख गया है। ऐसी दिख रही है मानो सोने की सुन्दर कल्पलतआ को वन में पाला मार गया हो।







भरतहिं देखि मातु उठि लाई। मुरछित अवधि पूरी झइं आई।। देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी।।_अर्थ_भरत को देखते ही माता कौसल्या उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गये और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े।







मातु तात कहं देहिं देखी। कहं सिय राम लखन दोउ भाई।। केकई कत जनमी जग माझा। जौं जनमी तो भइ काहे न बांझा।।_अर्थ_( फिर बोले_) माता ! पिताजी कहां हैं ? उन्हें दिखा दे। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्रीराम_लक्ष्मण कहां हैं ? ( उन्हें दिखा दे। ) कैकेई जगत् में क्यों जनमी ! और यदि जनमी तो फिर बांझ क्यों न हुई ?_






कुल कलंक जेहिं जनमेउ मोही।  अपजस भाजन प्रियजन द्रोही।। को त्रिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहिं लागी।।_अर्थ_जिसने कुल के कलंक, अपयश के मांड़े और प्रियजनों के द्रोही मुझ_जैसे पुत्र को उत्पन्न किया। तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है ? जिसके कारण हे माता ! तेरी यह दशा हुई।



Friday, 8 September 2023

अयोध्याकाण्ड

तात बात मैं सकल संवारी। मैं मंथरा सहाय बिचारी।। कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ।।_अर्थ_हे तात ! मैंने सारी बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हुई। पर विधाता ने बीच में जरा_सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोक को पधार गये।








सुनत भरत में बिबस बिषादा। जनु सहमएउ करि केहरि नादा।। तात तात हां तात पुकारी। परे भूमितल व्याकुल भारी।।_अर्थ_भरत यह सुनते ही विषाद के मारे विवश ( बेहाल ) हो गये। मानो सिंह की गर्जना सुनकर हाथी सहम गया है। वे 'तात ! तात! हा तात !' पुकारते हुए अत्यन्त व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़े।








चलत न देखन पायउं तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोहि।। बहुरि धीर धरि उठे संभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी।।_अर्थ_( और विलाप करने लगे कि ) से तात !  मैं आपको ( स्वर्ग के लिये ) चलते समय देख भी न सका। ( हाय ! )  आप मुझे श्रीरामजी को सौंप भी नहीं गये। फिर धीरे धरकर वे संभलकर उठे और बोले_माता ! पिता के मरने का कारण तो बताओ ।








सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पांछि जनु माहुरी देई।। आदिहुं तें सब अपनी करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी।।_अर्थ_पुत्र का वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी। मानो मर्मस्थान को पाकर ( चाकू से चीरकर ) उसमें जहर भर रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से ( आखिर तक बड़े ) प्रसन्न मन से सुना दी।










भरतहिं बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु। हेतु अपनी जानि जियं थकित रहे धरि मौनु।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया और हृदय में इन सारे अनर्थ का कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर स्तम्भित रह गये ( अर्थात् उनकी बोली बन्द हो गयी और वे सन्न रह गये।









बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुं जरे पर लोन लगावति।। तात राउ नहीं सोचो जोगू। बिढ़इ सुकृत ऐसी कीन्हेंउ भोगू।।_अर्थ_पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही है। ( वह बोली_) से तात ! राजा सोच करने योग्य नहीं हैं। उन्होंने पुण्य और यश कमाकर उसका पर्याप्त भोग किया।







जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए।। अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू।।_अर्थ_जीवनकाल में ही उन्होंने जन्म लेने के संपूर्ण फल पा लिये और अन्त में इन्द्रलोक को चले गये। ऐसा विचारकर सोच छोड़ दो और समाज सहित नगर का राज्य करो।








सुनि सुनि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अंगारू।। धीरज धरि भरी लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भांति कुल नासा।।_अर्थ_राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गये। मानो पके घाव पर अंगार छू गया है। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लम्बी सांस लेते हुए कहा_पापिनी ! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया।








जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोहि।। पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।।_अर्थ_हाय ! यदि तेरी ऐसी ही अत्यन्त बुरी रुचि ( दुष्ट इच्छा ) थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला ? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है और मछली के जीने के लिये पानी को उलीच डाला ! ( अर्थात् मेरा हित करने जाकर उल्टा तूने मेरा अहित कर डाला।

Saturday, 2 September 2023

अयोध्याकाण्ड

बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु  करहिं पुरबासी।। अंथयउ आजु भानुकुल भानू।‌ धरम अवधि गुन रूप निधानू।।_अर्थ_दास_दासीगण व्याकुल होकर विलाप कर रहे हैं और नगरवासी घर_घर रो रहे हैं। कहते हैं कि आज धर्म की सीमा, गुण और रूप के भण्डार सूर्यकुल के सूर्य अस्त हो गये।






गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहिं।। एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ज्ञानी।।_अर्थ_सब कैकेई को गालियां देते हैं, जिसने संसार भर को बिना नेत्र का ( अंधा ) कर दिया। इस प्रकार विलाप करते रात बीत गयी। प्रात:काल सब बड़े _बड़े ज्ञानी मुनि आये।








तब बसिष्ठ मुनि समय सम कही अनेक इतिहास। सोक निवारि सबहि कर निज बिग्यान प्रकास।।_अर्थ_तब वसिष्ठ मुनि ने समय के अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञान के प्रकाश से सबका शोक दूर किया।







तेल नावं भरी नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अब भाषा।। धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहूं कहहू जनि काहू।।_अर्थ_वसिष्ठजी ने नाव में तेल भरवाकर राजा के शरीर में उसको रखवा दिया। फिर दूतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा_तुमलोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ। राजा की मृत्यु का समाचार कहीं किसी से कहो।








एतनइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाइ पठयउ दोउ भाई।। सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजी लजाए।।_अर्थ_जाकर भरत से इतना ही कहना कि दोनों भाइयों को गुरुजी ने बुलवा भेजा है। मुनि की आज्ञा सुनकर धावन ( दूत ) दौड़े। वे अपने वेग से उत्तम घोड़ों को भी लजाते हुए चले।










अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कउसगउन होहिं भरत कहीं तब तें।। देखहिं राति भयानक सपना। जागा करहिं कटु कोटि कलपना।।_अर्थ_ जबसे अयोध्या में अनर्थ प्रारंभ हुआ, तभी से भर्ती को अपशकुन होने लगे। वे रात को भयंकर स्वप्न देखते थे और जागने पर ( उन स्वप्नों के कारण ) करोड़ों ( अनेकों ) तरह की बुरी_बुरी कल्पनाएं किया करते थे।










बिप्र जेवांइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना।। मागहिं हृदयं महेस मनाई। कुसल मातु_पितु परिजन भाई।।_अर्थ_( अनिष्टशान्ति के लिये) वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे। अनेकों विधियों से रुद्राभिषेक करते थे। महादेवजी को हृदय में मनाकर उनसे माता_पिता, कुटुम्बी और भाइयों का कुशल_क्षेम मांगते थे।








एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुंचे आइ। गुर अनुशासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ।।_अर्थ_भरतजी इस प्रकार मन में चिंता कर रहे थे कि दूत आ पहुंचे। गुरु की आज्ञा कानों से सुनते ही वे गणेशजी को मनाकर चल पड़े।








चले समीर वेग हय हांके। नाघत सरित सैल बन बांके।। हृदयं सोची बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियं जाऊं उड़ाई।।_अर्थ_हवा के समान वेगवाले घोड़ों को हांकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलों को लांघते हुए चले। उनके हृदय में बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था। में ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुंच जाऊं।







एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई।। असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभांति कुखेत करारा।।_अर्थ_एक_एक निमेष वर्ष के समान बीत रहा था। इस प्रकार भरतजी नगर के निकट पहुंचे। नगर में प्रवेश करते समय अपशगुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरह कांव_कांव कर रहे हैं।







खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला।। श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा।।_अर्थ_गदहे और सिआर विपरीत बोल रहे हैं। यह सुन_सुनकर भरत के मन में बड़ी पीड़ा हो रही है। तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं। नगर बहुत ही भयानक लग रहा है।







खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए।। नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुं सबन्हिं सब संपति हारी।।_अर्थ_श्रीरामजी के वियोगरूपी बुरे लोग से बताये हुए पक्षी_पशु, घोड़े_हाथी ( ऐसे दु:खी हो रहे हैं कि ) देखें नहीं जाते। नगर के स्त्री_पुरुष अत्यंत दु:खी हो रहे हैं। मानो सब अपनी सारी संपत्ति हार गये हैं।








पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवंहिं जोहारहिं जाहिं। भरत कुशल पूंछि न सकहिं भय बिषादा मन माहिं।।_अर्थ_नगर के लोग मिलते हैं, फिर कुछ कहते नहीं; गौं _से ( चुपके_से ) जोहार ( वन्दना ) करके चले जाते हैं। भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद जा रहा है।










हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहन दिसा लागि दवारी।। आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल कैरव चंदिनि।।_अर्थ_बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। मानो नगर में दसों दिशाओं में दावाग्नि लगी है। पुत्र को आते सुनकर सूर्यकुलरूपी कमल के लिये चांदनी रूपी कैकेयी ( बड़ी ) हर्षित हुई।








सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारे हां भेंटा भवन लेइ आई।। भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुं तुहिन बनज बन मारा।।_अर्थ_वह आरती सजाकर आनंद में भरकर उठ दौड़ी और दरवाजे पर ही मिलकर भरत_शत्रुध्न को महल में ले आयी। भरत ने सारे परिवार को दु:खी देखा। मानो कमलों के वन को पाला मार गया हो।







कैकेई हरषित एहि भांती। मनहुं मुदित दव लाई किराती। सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूछति नैहर कुसल हमारें।।_अर्थ_एक कैकेयी ही इस तरह हर्षित दिखती है मानो भीलनी जंगल में आग लगाकर आनंद भर रही हो। पुत्र को सोचवश और मन मारे ( बहुत उदास ) देखकर वह पूछने लगी_हमारे नैहर में कुशल तो है?








सकल कुसल कहीं भरत सुनाई। पूंछी निज कुल कुसल भलाई।। कहीं कहं तात के कहां सब माता। कहं सिय राम लखन प्रिय भ्राता।।_अर्थ_ भरतजी ने सब कुशल कह सुनायी। फिर अपने कुल की कुशल_क्षेम पूछी।  ( भरतजी ने कहा_) कहो, पिताजी कहां हैं ? मेरी सब माताएं कहां हैं ? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम_लक्ष्मण कहां हैं ?






सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरी नैन। भरत श्रवन मन सूल सम पानी बोली बैन।।_अर्थ_पुत्र के स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पानी कैकेयी भरत के कानों में शूल के समान चुभनेवाली वचन बोली_