तात बात मैं सकल संवारी। मैं मंथरा सहाय बिचारी।। कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ।।_अर्थ_हे तात ! मैंने सारी बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हुई। पर विधाता ने बीच में जरा_सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोक को पधार गये।
सुनत भरत में बिबस बिषादा। जनु सहमएउ करि केहरि नादा।। तात तात हां तात पुकारी। परे भूमितल व्याकुल भारी।।_अर्थ_भरत यह सुनते ही विषाद के मारे विवश ( बेहाल ) हो गये। मानो सिंह की गर्जना सुनकर हाथी सहम गया है। वे 'तात ! तात! हा तात !' पुकारते हुए अत्यन्त व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़े।
चलत न देखन पायउं तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोहि।। बहुरि धीर धरि उठे संभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी।।_अर्थ_( और विलाप करने लगे कि ) से तात ! मैं आपको ( स्वर्ग के लिये ) चलते समय देख भी न सका। ( हाय ! ) आप मुझे श्रीरामजी को सौंप भी नहीं गये। फिर धीरे धरकर वे संभलकर उठे और बोले_माता ! पिता के मरने का कारण तो बताओ ।
सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पांछि जनु माहुरी देई।। आदिहुं तें सब अपनी करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी।।_अर्थ_पुत्र का वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी। मानो मर्मस्थान को पाकर ( चाकू से चीरकर ) उसमें जहर भर रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से ( आखिर तक बड़े ) प्रसन्न मन से सुना दी।
भरतहिं बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु। हेतु अपनी जानि जियं थकित रहे धरि मौनु।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया और हृदय में इन सारे अनर्थ का कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर स्तम्भित रह गये ( अर्थात् उनकी बोली बन्द हो गयी और वे सन्न रह गये।
बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुं जरे पर लोन लगावति।। तात राउ नहीं सोचो जोगू। बिढ़इ सुकृत ऐसी कीन्हेंउ भोगू।।_अर्थ_पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही है। ( वह बोली_) से तात ! राजा सोच करने योग्य नहीं हैं। उन्होंने पुण्य और यश कमाकर उसका पर्याप्त भोग किया।
जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए।। अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू।।_अर्थ_जीवनकाल में ही उन्होंने जन्म लेने के संपूर्ण फल पा लिये और अन्त में इन्द्रलोक को चले गये। ऐसा विचारकर सोच छोड़ दो और समाज सहित नगर का राज्य करो।
सुनि सुनि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अंगारू।। धीरज धरि भरी लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भांति कुल नासा।।_अर्थ_राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गये। मानो पके घाव पर अंगार छू गया है। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लम्बी सांस लेते हुए कहा_पापिनी ! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया।
जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोहि।। पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।।_अर्थ_हाय ! यदि तेरी ऐसी ही अत्यन्त बुरी रुचि ( दुष्ट इच्छा ) थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला ? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है और मछली के जीने के लिये पानी को उलीच डाला ! ( अर्थात् मेरा हित करने जाकर उल्टा तूने मेरा अहित कर डाला।
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