हंस-बंस दशरथु जनकु राम लखन से भाइ। जननी तूं जननी भी बिधि सन कछु न बसाइ।।_अर्थ_मुझे सूर्यवंश ( _सा वंश ), दशरथजी (_सरीखे ) पिता और राम_लक्ष्मण_से भाई मिले। पर हे जननी ! मुझे जन्म देनेवाली माता तू हुई ! ( क्या किया जाय ! ) विधाता से कुछ भी वश नहीं चलता।
जब तैं कुमति कुमत जियं ठयऊ। खंड खंड होइ हृदउ न गयउ।। बर मागत मन भइ नहीं पीड़ा। गरि न जीह मुंह परेउ न कीरा।।_अर्थ_अरी कुमति ! जब तूने हृदय में यह बुरा विचार ( निश्चय ) ठाना, उसी समय तेरे हृदय के टुकड़े _टुकड़े ( क्यों न ) हो गये ? वरदान मांगते समय तेरे मन में कुछ भी पीड़ा नहीं हुई ? तेरी जीभ गोल नहीं गयी ? तेरे मुंह में कीड़े नहीं पड़ गये ?
भूप प्रतीति तोरि किमि किन्हीं। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही।। बिधिहुं न नारी हृदयं गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी।।_अर्थ_राजा ने तेरा विश्वास कैसे कर लिया ? ( जान पड़ता है ) विधाता ने मरने के समय उनकी बुद्धि हर ली थी। स्त्रियों के हृदय की गति ( चाल ) विधाता भी नहीं जान सके। वह संपूर्ण कपट, पाप और अवगुणों की खान है।
सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ।। अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहिं रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं।।_अर्थ_फिर राजा तो सीधे, सुशील और धर्मपरायण थे। वे भला स्त्री_स्वभाव को कैसे जानते ? अरे, जगत् के जीव_जन्तुओं में ऐसा कौन है जिसे रघुनाथजी प्राणों के समान प्यारे नहीं हैं।
भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही।। जो हसि सो हसि मुंह मसि लाई। आंखि ओट उठि बैठहि जाई।।_अर्थ_वे श्रीरामजी भी तुझे अहित हो गये ( वैरी लगे ) ! तू कौन है ? मुझे सच_सच कह ! तू जो है, सो है, अब मुंह में स्याही पोतकर ( मुंह काला करके ) उठकर मेरी आंखों की ओट में जा बैठ।
राम बिलोनी हृदय में प्रगट कीन्ह बिधि मोहि। मैं समान को पातकी बादि कहीं कछु तोहि।।_अर्थ_विधाता ने मुझे श्रीरामजी से विरोध करनेवाले ( तेरे ) हृदय से उत्पन्न किया ( अथवा विधाता ने मुझे हृदय से राम का विरोधी जाहिर कर दिया ) । मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है ? मैं व्यर्थ ही तुझे कुछ कहता हूं।
सुनि सत्रुधन मातु कुटलाई। जेहिं गाय रिस कछु न बसाई।। तेहि अवसर कुबरी तहं आती। बहन विभूषण बिबिध बनाई।।_अर्थ_माता की कुटिलता सुनकर शत्रुघ्नजी के सब अंग क्रोध से जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता। उसी समय भांति_भांति के कपड़ों और गहनों से सजकर कुबरी ( मंथरा ) वहां आयी।
लखि रिस मर्जी लखन लघु भाई। भरत अनल घृत आहुति पाई।। हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा।।_अर्थ_ उसे ( सजी ) देखकर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्नजी क्रोध में भर गये। मानो जलती हुई आग को घी की आहुति मिल गई हो। उन्होंने जोर से थककर कूबर पर एक रात जमा दी। वह चिल्लाती हुई मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ी।
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटना धरि धरि झोंटी।। भरत दयानिधि दीन्हा छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई।।_अर्थ_उसकी यह बात सुनकर और उसे ना से सिखा तक दुष्ट जानकर शत्रुघ्नजी झोंटा पकड़_पकड़कर उसे घसीटने लगे। तब दयानिधि भरत ने उसे छुड़ा दिया और दोनों भाई ( तुरंत ) कौसल्याजी के पास गये।
मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार। कनक कलप बर बेलि बन मानहुं हनी तुसार।।_अर्थ_कौसल्याजी मैले वस्त्र पहने हैं, चेहरे का रंग बदला हुआ है, व्याकुल हो रही है, दु:ख के बोझ से शरीर सूख गया है। ऐसी दिख रही है मानो सोने की सुन्दर कल्पलतआ को वन में पाला मार गया हो।
भरतहिं देखि मातु उठि लाई। मुरछित अवधि पूरी झइं आई।। देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी।।_अर्थ_भरत को देखते ही माता कौसल्या उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गये और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े।
मातु तात कहं देहिं देखी। कहं सिय राम लखन दोउ भाई।। केकई कत जनमी जग माझा। जौं जनमी तो भइ काहे न बांझा।।_अर्थ_( फिर बोले_) माता ! पिताजी कहां हैं ? उन्हें दिखा दे। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्रीराम_लक्ष्मण कहां हैं ? ( उन्हें दिखा दे। ) कैकेई जगत् में क्यों जनमी ! और यदि जनमी तो फिर बांझ क्यों न हुई ?_
कुल कलंक जेहिं जनमेउ मोही। अपजस भाजन प्रियजन द्रोही।। को त्रिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहिं लागी।।_अर्थ_जिसने कुल के कलंक, अपयश के मांड़े और प्रियजनों के द्रोही मुझ_जैसे पुत्र को उत्पन्न किया। तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है ? जिसके कारण हे माता ! तेरी यह दशा हुई।
No comments:
Post a Comment