Saturday, 7 October 2023

अयोध्याकाण्ड

पितु सुरपुर बन रघुवर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतू।। धिग मोहि भयउं बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी।।_अर्थ_पिताजी स्वर्ग में हैं और श्रीरामजी वन में हैं। केतू के समान केवल मैं ही इन सब अनर्थों का कारण हूं। मुझे धिक्कार है ! मैं बांस के वन में आग उत्पन्न हुआ और कठिन दाह, दु:ख और दोषों का भागी बना।




मातु भरत के बचन मृदु सुनि पुनि उठी संभारि। लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि।।_अर्थ_भरतजी के कोमल वचन सुनकर माता कौसल्याजी फिर संभलकर उठीं। उन्होंने भरत को उठाकर छाती से लगा लिया और नेत्रों से आंसू बहाने लगीं।






सरल सुभाय मायं हियं लाए। अति हित मनहुं राम फिरि आए।। भेंटेउ बहुरि लखन लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयं समाई।।_अर्थ_सरल स्वभाववाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया; मानो श्रीरामजी ही लौटकर आ गये हों। फिर लक्ष्मण जी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगा लिया। शोक और स्नेह हृदय में समाता ही नहीं है।







देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई।। माता भरतु गोद बैठारे। आंसु पोंछि मृदु बचन उचारे।।_अर्थ_ कौसल्या का स्वभाव देखकर सब कोई कह रहे हैं_श्रीराम की माता का ऐसा स्वभाव क्यों न हो। माता ने भरतजी को गोद में बैठा लिया और उनके आंसू पोंछकर कोमल वचन बोलीं।







अजहुं बच्छ बलि धीरज धरहु। कुसमय समुझि सोक परिहरहू।। जनि मानहुं हइयं हानि गलानी। काल क्रम गति अघटित जानी।।_अर्थ_हे वत्स ! मैं बलैया लेती हूं। तुम अब भी धीरज धरो। बुरा समय जानकर शोक त्याग दो। काल और कर्म की गति अमिट जानकर हृदय में हानि और ग्लानि मत मानो।







काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता।। जो एतएहउं दुख मोहि जिआवा। अजहुं को जानि का तेहि भावा।।_अर्थ_ हे तात ! किसी को दोष मत दो। विधाता मुझको सब प्रकार से उल्टा हो गया है, जो इतने दु:ख पर भी मुझे जिला रहा है। अब भी कौन जानता है, उसे क्या भा रहा है ?







पितु आयसु भूषन बसन तात तजे रघुबीर। बिसमउ हरष न हृदयं कछु पहिरे बलकल चीर।।_अर्थ_ हे तात ! पिता की आज्ञा से श्रीरघुवीर ने भूषन_वस्त्र त्याग दिये और वल्कल _वस्त्र पहन लिये। उनके हृदय में न कुछ विषाद था न हर्ष।







मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू।। चले बिपिन सुनि सिय संग लागी। रहि न राम चरन अनुरागी।।_अर्थ_उनका मुख प्रसन्न था, मन में न आसक्ति थी, न राग ( द्वेष )। सबका सब तरह से संतोष कराकर वे वन को चले। यह सुनकर सीता भी उनके साथ लग गयीं। श्रीराम के चरणों की अनुरागिणि वे किसी तरह न रहीं।








सुनहिं लखन चले उठि साथा।  रहहइं न जतन किए रघुनाथा।। तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई।।_अर्थ_सुनते ही लक्ष्मण भी साथ ही उठ चले। श्रीरघुनाथ ने उन्हें रोकने के बहुत यत्न किये, पर वे न रहे। तब श्रीरघुनाथजी सबको सिर नवाकर सीता और छोटे भाई लक्ष्मण को साथ लेकर चले गये।







रामु लखनऊ सिय बनहइ सिधाए। गाउं न संग न प्रान पठाए।। यह सबु भा इन्ह आंखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागे।।_अर्थ_श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन को चले गये। मैं न तो साथ ही गया और न मैंने अपने प्राण ही उनके साथ भेजे। यह सब इन्हीं आंखों के सामने हुआ। तो भी अभागे जीव ने शरीर नहीं छोड़ा।








मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी।। जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना।।_अर्थ_ अपने स्नेह की ओर देखकर मुझे लाज भी नहीं आती; राम सरीखे पुत्र की मैं माता ! जीना और मरना तो राजा ने खूब जाना। मेरा हृदय तो सैकड़ों वज्रों के समान कठोर है।







कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवासु। ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुं सोक नेवासु।।_अर्थ_कौसल्या के वचनों को सुनकर भरतसहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा। राजमहल मानो शोक का निवास बन गया।







बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्या लिए हृदयं लगाई।। भांति अनेक भरत समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए।।_अर्थ_भरत_शत्रुध्न दोनों भाई विकल होकर विलाप करने लगे। तब कौसल्याजी ने उनको हृदय से लगा लिया। अनेकों प्रकार से भरतजी को समझाया और बहुत _सी विवेकभरी बातें उन्हें कहकर सुनायीं।








भरतहउं मातु सकल समुझाईं। कहि पुराने श्रुति कथा सुहाई।। छल बिहीन सुचि सरल सुबानी।
बोले भरत जोरी जुग पानी।।_अर्थ_ भरतजी ने आक्षममपमपंभी सभी माताओं को पुराण और वेदों की सुन्दर कथाएं कहकर समझाया। दोनों हाथ जोड़कर भरतजी जलरहित, पवित्र और सीधी सुन्दर वाणी बोले__








जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महइसउर पुर जारें।। जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महिपति माहुर दीन्हें।।_अर्थ_जो पाप माता पिता को पुत्र के मारने से होते हैं और जो गोशाला और ब्राह्मणों के नगर जलाने से होते हैं और जो मित्र और राजा को जहर देने से होते हैं__








जे पातक उपपातक अहहईं। कर्म बचन मन भव कबि कहहीं।। तें पातक मोहि होहुं बिधाता। जौं यही होइ मोर मत माता।।_अर्थ_कर्म वचन और मन से होनेवाले जितने पातक एवं उपपातक ( बड़े_छोटे पाप ) हैं, जिनको कवइलओग कहते हैं; हे विधाता ! यदि इस काम में मेरा मत हो, तो हे माता ! वे सब पाप मुझे लगें।







जे परिहरि हरि हर चरन भजहइं भूतगन घोर। तेहि कइ गति मोहि देहु बिधि जौं जननी मत मोर।।_अर्थ_जो लोग श्रीहरि और श्रीशंकरजी के चरणों को छोड़कर भयानक भूत_प्रेतों को भजते हैं, हैं माता ! यदि इसमें मेरा मत हो तो विधाता मुझे उनकी गति दे।








बेचहिं बेद धर्म दुधि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहिं।। कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी।।_अर्थ_जो लोग वेदों को बेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं, चुगलखोर हैं, दूसरे के पापों को कह देते हैं, जो कपटी, कुटिल, कलहप्रिय और क्रोधी हैं, तथा जो वेदों की निंदा करनेवाले और विश्वभर के विरोधी हैं;








लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधन परदारा।। पावौं मैं तिन्ह कै गति घोरा। जौं जननी यह संमत मोरा।।_अर्थ_ जो लोभी लंपट और लालचियों का आचरण करनेवाले हैं; जो पराये धन और परायी स्त्री की ताक में रहते हैं; हे जननी! यदि इस काम में मेरी सम्मति हो तो मैं उनकी भयानक गति को पाऊं।








जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमार्थ पथ बइमउख अभागे।। जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हें न हरिहर सुजसु सोहाई।।_अर्थ_जिनका सत्संग में प्रेम नहीं हैं; जो अभागे परमार्थ के मार्ग से विमुख हैं; जो मनुष्य शरीर पाकर क्षश्रीहरि का भजन नहीं करते; जिनको हरिहर ( भगवान् विष्णु और शंकरजी ) का सुयश नहीं सुहाता;








तजा श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बइरचइ बेषु जग छलहीं।। तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यही जानों भेऊ।।_अर्थ_जो वेदमार्ग को छोड़कर वाम ( वेदप्रतिकूल ) मार्ग पर चलते हैं; जो ठग हैं और वेष बनाकर जगत् को छलते हैं; हैं माता ! मैं इस भेद को जानता भी होऊं तो शंकरजी मुझे उनलोगों की गति दें।








मातु भरत के वचन सुनि सांचे सरल सुभायं। कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा वचन मन कायं।।
_अर्थ_माता कौसल्याजी भरत के स्वाभाविक ही सच्चे और सरल वचनों को सुनकर कहने लगीं _हे तात ! तुम तो मन, वचन और शरीर से सदा ही श्रीरामचन्द्र के प्यारे हो।








राम प्रानहुं तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहुं तें प्यारे।। बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी।।_अर्थ_श्रीराम तुम्हारे प्राणों से भी बढ़कर प्राण ( प्रिय ) हैं और तुम भी श्रीरघुनाथजी को प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। चन्द्रमा चाहे विष चुआने लगे और पाला आग बरसाने लगे; जलचर जीव जल से विरक्त हो जाय।








भएं ज्ञानु  बरु मिटै न मोहू।। तुम्ह रामहित प्रतिकूल न होहू।। मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुं सुख सुगति न लहहीं।।_अर्थ_और ज्ञान हो जाने पर भी चाहे मोह न मिटे; पर तुम श्रीरामचन्द्र के प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते। इसमें तुम्हारी सम्मति है, जगत् में जो कोई ऐसा कहते हैं वे स्वप्न में भी सुख और शुभ गति नहीं पावेंगे।








अस कहि मातु भरतु हियं लाए। थन पय स्रवहिं नयन जल छाए।। करत बिलाप बहुत एहि भांती। बैठेहिं बीती गई सब राती।।_अर्थ_ऐसा कहकर माता कौसल्या ने भरतजी को हृदय से लगा लिया। उनके स्तनों से दूध बहने लगा और ने त्यों में ( प्रेमाश्रुओं का ) जल छा गया। इस प्रकार बहुत विलाप करते हुए सारी रात बैठे_ही_बैठे बीत गयी।








बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।। मुनि बहु भांति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे।।_अर्थ_तब वामदेवजी और वसिष्ठ जी आये। उन्होंने सब मंत्रियों तथा महाजनों को बुलवाया। फिर मुनि वसिष्ठ जी ने परमार्थ के सुन्दर समयआकूल वचन कहकर बहुत प्रकार से भरतजी को उपदेश दिया।







तात हृदयं धीरज धरहु करहु जो अवसर आजु। उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु।।
_अर्थ_( वसिष्ठ जी ने कहा_) हे तात ! हृदय में धीरज धरो और आज जिस कार्य करने का अवसर है, उसे करो। गुरुजी के वचन सुनकर भरतजी उठे और उन्होंने सब तैयारी करने के लिये कहा।








 

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