Monday, 13 November 2023

अयोध्याकाण्ड

नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमान बनावा।। गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानी दर्शन अभिलाषी।।_अर्थ_वेदों में बतायी हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम बिचित्र विमान बनाया गया। भरतजी ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा ( अर्थात् प्रार्थना करके उनको सती होने से रोक लिया )। वे रानियां भी ( श्रीराम के ) दर्शन की अभिलाषा से रह गयीं।






चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए।। सरजू तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई।।_अर्थ_चंदन और अगर के तथा और भी अनेकों प्रकार के अपार ( कपूर, गुलगुल, केसर आदि ) सुगंध द्रव्यों के बहुत_से बोझ आये। सरयूजी के तट पर सुंदर चिंता रचकर बनायी गयी, ( जो ऐसी मालुम होती थी ) मानो स्वर्ग की सुंदर सीढ़ी हो।





एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही।। सोधि स्मृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना।।_अर्थ_इस प्रकार सब दाहक्रिया की गयी और सबने बइधइपूर्वक स्नान करके तिलांजलि दी। फिर वेद, स्मृति और पुराण सबका मत निश्चय करके उसके अनुसार भरतजी ने पिता का दशगात्र_विधान ( दस दिनों के कृत्य ) किया।









जहं जस मुनिवर आयसु दीन्हा। तहं तस सहज भांति सबु कीन्हा।। भए बइसउद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजी गज बाहन नाना।।_अर्थ_ मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ जी ने जहां जैसी आज्ञा दी, वहां भरतजी ने वैसा ही हजारों प्रकार से किया। शुद्ध हो जाने पर ( विधिपूर्वक ) सब दान दिये। गऔएं तथा घोड़े, हाथी आदि अनेक प्रकार की सवारियां,





सिंघासन भूषन बसन अन्न धरना धन धाम। दिए भरत रहि भूमइसउर में परिपूर्ण काम।।_अर्थ_सिंहासन, गहने, कपड़े, अन्न, पृथ्वी, धन और मकान भरतजी ने दिए; भूदेव ब्राह्मण दान पाकर परिपूर्ण काम हो गये ( अर्थात् उनकी सारी मनोकामनाएं अच्छी तरह से   पूरी हो गयीं )




पितु हित भरत कीन्ह जस करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी।। सुदिनु सोधि मुनिवर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।।_अर्थ_पिता के लिये भरतजी ने जैसी करनी की वह लाखों मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठ जी आए और उन्होंने मंत्रियों तथा सब महाजनों को बुलाया।




बैठे राजसभां सब जाई। पड़े बोलि भरत दोउ भाई।। भरतु बसिष्ठ निकट बैठाले। नीति धरममय बचन उचारे।।_अर्थ_ सब लोग राजसभा में जाकर बैठ गये। तब मुनि ने भरतजी तथा शत्रुघ्नजी दोनों भाइयों को बुलवा भेजा। भरतजी को वसिष्ठ जी ने अपने पास बैठा लिया और नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे।






प्रथम कथा सब मुनिवर बरनी। कैकेई कुटिल कीन्ह जस करनी।। भूप धरमब्रतउ सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेम निबाहा।।_अर्थ_पहले तो कैकेयी ने जैसी कुटिल करनी की थी, श्रेष्ठ मुनि ने वह सारी कथा कही। फिर राजा के धर्मव्रत और सत्य की सराहना की, जिन्होंने शरीर त्यागकर प्रेम को निबाहा।





कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ।। बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ज्ञानी।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के गुण, शील और स्वभाव का वर्णन करते_करते तो मुनिराज के नेत्रों में जल भर आया और वे शरीर से पुलकित हो गये। फिर लक्ष्मण जी और सीताजी के प्रेम की बड़ाई करते हुए ज्ञानी मुनि शोक और स्नेह में मग्न हो गये।





सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ। हानि लाभ जीवनु मरने जस अपजसु बिधि हाथ।।_अर्थ_मुनिनाथ ने बिलखकर ( दु:खी होकर ) कहा_हे भरत ! सुनो, भावी ( होनहार) बड़ी बलवान् है। हानि_लाभ, जीवन_मरण और यश_अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं।






अस बिचारि केही देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिए रोसू।। तात बिचारी करहु मन माहीं। सोचु जोगु दशरथ नृप नाही।।_अर्थ_ऐसा विचारकर किसे दोष दिया जाय ?और व्यर्थ किसपर क्रोध किया जाय ? हे तात ! मन में विचार करो। राजा दशरथ सोच करने योग्य नहीं हैं।





सोचिअ बिप्र जो वेद बिहीना। तजि निज धर्मु बिषय लयलीना।। सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्राण समाना।।_अर्थ_सोच उस ब्राह्मण का करना चाहिये जो वेद नहीं जानता और जो अपना धर्म छोड़कर विषय भोगों में ही लीन रहना है। उस राजा का सोच करना चाहिये जो नीति नहीं जानता और जिसको प्रजा प्राणों के समान प्यारी नहीं है।






सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।। सोचिअ सूद्रू बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी।।_अर्थ_उस वैश्य का सोच करना चाहिये जो धनवान होकर भी कंजूस है, और जो अतिथि सत्कार तथा शिवजी की भक्ति करने में कुशल नहीं है। उस शूद्र का सोच करना चाहिये जो ब्राह्मणों का अपमान करनेवाला, बहुत बोलनेवाला, मान_बड़ाई चाहनेवाला और ज्ञान का घमंड रखनेवाला है।





सोचिअ पुनि पतिबंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी।। सोचिअ बटु निज ब्रतउ परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुहरई।।_अर्थ_पुन: उस स्त्री का सोच करना चाहिये जो पति को चलनेवाली, कुटिल, कलहप्रिय और स्वेच्छाचारिणी है। उस ब्रह्मचारी का सोच करना चाहिये जो अपने ब्रह्मचर्य व्रत को छोड़ देता है और गुरु की आज्ञा के अनुसार नहीं चलता।





सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग। सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग।।_अर्थ_उस गृहस्थ का सोच करना चाहिये जो मोह वश कर्ममार्ग का त्याग कर देता है; उस संन्यासी का सोच करना चाहिये जो दुनिया के प्रपंच में फंसा हुआ है और ज्ञान वैराग्य से हीन है।





बैखानस सोई सोचै जोखू। तप बिहाइ भोगू।। सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननी जनक गुर बंधु बिरोधी।।_अर्थ_वानप्रस्थ वहीं सोच करने योग्य है जिसको तयस्यआ छोड़कर भोग अच्छे लगते हैं। सोच उसका करना चाहिये जो चुगलखोर है, बिना ही कारण क्रोध करनेवाला है तथा माता, पिता, गुरु एवं भाई बंधुओं का विरोध रखनेवाला है।






सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी।। सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई।।_अर्थ_सब प्रकार से उसका सोच करना चाहिये जो दूसरों का अनिष्ट करता है, अपने ही शरीर का पोषण करता है और बड़ा भारी निर्दयी है। और वह तो सभी प्रकार से सोच करने योग्य है जो छल छोड़कर हरि का भक्त नहीं होता।






सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।। भयउ न अहई न  अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा।।_अर्थ_कोसलराज दशरथजी सोच करने योग्य नहीं हैं जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है। हे भरत ! तुम्हारे पिता_जैसा राजा न तो हुआ न है और न अब होने का ही है। 






बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहि सब दशरथ गुन गाथा।।_अर्थ_ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र और दिक्पाल सभी दशरथजी के गुणों की कथाएं कहते रहते हैं।

कहहु तात केहि भांति कोई करिहिं बड़ाई तासु। राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु।।_अर्थ_हे तात ! कहो उनकी बड़ाई कोई किस प्रकार करेगा, जिनके राम, लक्ष्मण, तुम और शत्रुघ्न सरीखे पवित्र पुत्र हैं।






सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी।। यह सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू।।_अर्थ_राजा सब प्रकार से बड़भागी थे। उनके लिये विषाद करना व्यर्थ है। यह सुन और समझकर सोच त्याग दो और राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर तदनुसार करो।

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