राय राजपदु तुम्ह कहुं दीन्हा। पिता बचन फुर चाहिअ कीन्हा।। तजे राम जेहिं वचनहि लागी। तनु परिहरिउ राम बिरहागी।।_अर्थ_राजा ने राजपद तुमको दिया है। उनके लिये विषाद करना व्यर्थ है। यह सुन और समझ कर सोच त्याग दो और राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर तदनुसार करो।
नृपहि बचन प्रिय नहिं प्रिय प्राना। करहु तात पितु बचन प्रवाना।। करहु सीस धरि भूप रजाई। हइ तुम्ह कहीं सब भांति भलाई।।_अर्थ_राजा को वचन प्रिय थे, प्राण प्रिय नहीं थे। इसलिये हे तात ! पिता पके वचनों का प्रमाण ( सत्य ) करो ! राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर पालन करो, इसी में सब तरह से भलाई है।
परसुराम पितु अग्या राखी। मारी मातु लोक सब साखी।। तनय जजआतइहइ यौवन दयऊ। पितु अग्यां अघ अजसु न भयऊ।।_अर्थ_परसुरामजी ने पिता की आज्ञा रखी और माता को मार डाला; सब लोक इस बात के साक्षी हैं। राजा ययाति के पुत्र ने पिता को अपनी जवानी दे दी। पिता की आज्ञा पालन करने से उन्हें पाप और अपयश नहीं हुआ।
अनुचित उचित बिचारु तजि जे पालहिं पितु बैन। तें भाजन सुख सुजसु के बसहिं अमरपति ऐन।।_अर्थ_जो अनुचित और उचित का विचार छोड़कर पिता के वचनों का पालन करते हैं, वे ( यहां ) सुख और सुयश के पात्र होकर अन्त में इन्द्र पुरी ( स्वर्ग )_में निवास करते हैं।
अवसि नरेस बचन फुर करहू। पालहु प्रजा सोकु परिहरहू।। सुरपुर नृप पाइहि परितोषू। तुम्ह कहुं सुकृतु सुजसु नहिं दोषू।।_अर्थ_राजा का वचन अवश्य सत्य करो। शोक त्याग दो और प्रजा का पालन करो। ऐसा करने से स्वर्ग में राजा संतोष पावेंगे और तुमको पुण्य और यश मिलेगा, दोष नहीं लगेगा।
बेद बिदित संमत सब ही का। जेहि पितु देइ सो पावइ टीका।। करहु राज परिहरहु गलानी। मानहुं मोर बचन हित जानी।।_अर्थ_ यह वेद में प्रसिद्ध है और ( स्मृति _पुराणादि ) सभी शास्त्रों के द्वारा सम्मत है कि पिता जिसको दे वही राजतिलक पाता है। इसलिये तुम राज्य करो, ग्लानि का त्याग कर दो। मेरे वचन को हित समझकर मानो।
सुनि सुख लहब राम बैदेही। अनुचित कहा न पंडित केहीं।। कौसल्याजी सकल महतारीं। तेउ प्रजा सुख होहिं सुखारीं।।_अर्थ_इस बात को सुनकर श्रीरामचन्द्रजी और जानकी जी सुख पावेंगे और कोई पंडित इसे अनुचित नहीं कहेगा। कौसल्याजी आदि तुम्हारी सब माताएं भी प्रजा के सुख से सुखी रहेंगे।
परम तुम्हार राम कर जानिहि। सो सब बिधि तुम्ह कहीं भल मानिहि।। सौंपेहु राजु राम के आएं। सेवा करेगी स्नेह सुहाएं।।_अर्थ_जो तुम्हारे और श्रीरामचन्द्रजी के श्रेष्ठ सम्बंध को जान लेगा, वह सभी प्रकार से तुमसे भला मानेगा। श्रीरामचन्द्रजी के लौट आने पर राज्य उन्हें सौंप देना और सुन्दर स्नेह से उनकी सेवा करना।
कीजिअ गुर आयसु अवसि कहहिं सचिव कर जोरि। रघुपति आएं उचित जस तस तब करब बहोरि।।_अर्थ_मंत्री हाथ जोड़कर कह रहे हैं_गुरुजी की आज्ञा का अवश्य ही पालन कीजिये। श्री रघुनाथजी के लौट आने पर जैसा उचित हो, तब फिर वैसा ही कीजियेगा।
कौसल्या धरि धीरजु कहई। पूत पथ्य गुर आयसु अहई।। सो आदरिअ करिअ हित मानी। तजिअ बिषादु काल गति जानी।।_अर्थ_कौसल्याजी भी धीरज धरकर कह रही हैं_हे पुत्र ! जो पिता की आज्ञा का पालन करता है वही पुत्र धन्य है। समय की गति को समझकर धीरज धरो।
बन रघुपति सुरपुर नरनाहू। तुम्ह एहि भांति तात कदराहू।। परिजन प्रजा सचिव सब अंबा। तुम्हीं सुत सब कहां अवलंबा।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी वन में हैं, महाराज स्वर्ग का राज करने चले गये। और हे तात ! तुम इस प्रकार कातर हो रहे हो। हे पुत्र! कुटुम्ब, प्रजा, मंत्री और सब माताओं के_सबके एक तुम ही सहारे हो।
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लखि बिधि बाम कालु कठिनाई। धीरजु धरहु मातु बलि जाई।। सिर धरि गुरु आयसु अनुसरहू। प्रजा पालि परिजन दुखु हरहू।।_अर्थ_विधाता को प्रतिकूल और काल को कठोर देखकर धीरज धरो, माता तुम्हारी बलिहारी जाती है। गुरु की आज्ञा का पालन कर कुटुम्बियों का दु:ख हरो।
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गुरु के बचन सचिव अभिनन्दनु। सुने भरत हिय हित जनु चंदनु।। सुनी बहोरि मातु मृदु बानी। सील सनेह सरल रस सानी ।।_अर्थ_भरतजी ने गुरु के वचनों और मंत्रियों के अभिनंदन ( अनुमोदन )_को सुना जो उनके हृदय के लिये मानो चन्दन के समान शीतल था।
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सानी सरल रस मातु बानी सुनि भरत व्याकुल भए। लोचन सरोरुह स्रवत सींचती बिरह उर अंकुर नए। सो दशा देखत समय तेहि बिसरी सबही सुधि देह की। तुलसी सराहत सकल सादर सीव सहज सनेह की।।_अर्थ_सरलता के रस में सनी हुई माता की वाणी सुनकर भरतजी व्याकुल हो गये। उनके नेत्र_कमल जल ( आंसू ) बहाकर हृदय के विरह रूपी नवीन अंकुर को सींचने लगे। ( नेत्रों के आंसुओं ने उनके वियोग दु:ख को बहुत ही बढ़ाकर उन्हें अत्यंत व्याकुल कर दिया। ) उनकी वह दशा देखकर उस समय सबको अपने शरीर की सुध भूल गयी। तुलसीदासजी कहते हैं_ स्वाभाविक प्रेम की सीमा श्रीभरतजी की सबलोग आदरपूर्वक सराहना करने लगे।
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भरत कमल कर जोरि धीर धुरंधर धीर धरि। बचन अमिअ जनु बोरि देते उचित उत्तर सबहि।।_अर्थ_धैर्य की धुरी धारण करनेवाले भरतजी धीरज धरकर, कमल के समान हाथों को जोड़कर, वचनों को मानो अमृत में डुबाकर सबको उचित उत्तर देने लगे।
मोहि उपदेसु दीन्हा गुर नीका। प्रजा सचिव संमत सब ही का।। मातु उचित धरि आयसु दीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउं कीन्हा।।_अर्थ_गुरुजी ने मुझे सुन्दर उपदेश दिया। ( फिर ) प्रजा, मंत्री आदि सभी को यही सम्मत है। माता ने उचित समझकर ही आज्ञा दी है और मैं भी अवश्य उसको सिर चढ़ाकर वैसा ही करना चाहता हूं।
गुरु पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।। उचित कि अनुचित करें बिचारू। धर्मु जाइ सिर पातक भारू।।_अर्थ_( क्योंकि ) गुरु, पिता, स्वामी और सुहृद मित्र_( मित्र )_ की वाणी सुनकर प्रसन्न मन से अच्छी समझकर मानना चाहिये। उचित_अनुचित का विचार करने से धर्म जाता है और सिर पर पाप का भार चढ़ाता है।
तुम्ह तो देहु सरल सिख सोई। जो आचरण मोर भल होई।। यद्यपि यह समझते हौं नीकें। तदपि होत परितोष न जी कें।।_अर्थ_आप तो मुझे वहीं सरल शिक्षा दे रहे हैं, जिसके आचरण करने में मेरा भला हो। यद्यपि इस बात को मैं भली_भांति समझता हूं, तथापि मेरे हृदय को संतोष नहीं होता।
अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावनु देहू।। उतरु देब छमब अपराधू। दुखित दोष गुन गनहिं न साधू।।_अब आपलोग मेरी विनती सुन लीजिए और मेरी योग्यता के अनुसार मुझे शिक्षा दीजिये। मैं उत्तर दे रहा हूं, यह अपराध क्षमा कीजिये। साधु पुरुष दु:खी मनुष्य के दोष गुणों को नहीं गिनते।
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पितु सुरपुर सिय राम बन करन कहहु मोहि राजु। एहि तें जानहु मोर हित को आपने बड़ काजु।।_अर्थ_पिताजी स्वर्ग में हैं, श्रीसीतारामजी वन में हैं और मुझे शिक्षा दीजिये। मैं उत्तर दे रहा हूं, यह अपराध क्षमा कीजिये। साधु पुरुष दु:खी मनुष्य के दोष_गुणों को नहीं गिनते।
पितु सुरपुर सिय रामु बन करन कहहू मोहि राजु। एहि तें जानहु मोर हित को आपने बड़ काजु।।_अर्थ_पिताजी स्वर्ग में हैं, श्रीसीतारामजी वन में हैं और मुझे आप राज्य करने के लिये कह रहे हैं। इसमें आप मेरा कल्याण समझते हैं या अपना कोई बड़ा काम ( होने की आशा रखते हैं ) ?
हित हमार सियपति सेवकाईं। सो हरि लीन्ह मातु कुटिलाईं।। मैं अनुमानि दीख मन माहीं। आन उपाय मोर हित नहीं।।_अर्थ_मेरा कल्याण तो सीता पति श्रीरामजी की चाकरी में हैं, सो उसे माता की कुटिलता ने छीन लिया। मैंने अपने मन में अनुमान करके देख लिया है कि दूसरे किसी उपाय से मेरा कल्याण नहीं है।
सोक समाजु राजु केहि लेखें। लखन राम सिय बिनु पद देखें।। बादि बसन बिनु भूषन भारू। बादि बिरति बिनु ब्रह्मबिचारू।।_अर्थ_यह शोक का समुदाय राज्य लक्ष्मण, श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी के चरणों को देखें बिना किस गिनती में है ( इसका क्या मूल्य है ) ? जैसे कपड़ों के बिना गहनों का बोझ व्यर्थ है। वैराग्य के बिना ब्रह्मविचार व्यर्थ है।
सरुज शरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरि भगति जायें जप जोगा।। जायं जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सबु बिनु रघुराई।।_अर्थ_रोगी शरीर के लिये नाना प्रकार के भोग व्यर्थ हैं। श्रीहरि की भक्ति के बिना जप जप और जोग व्यर्थ है। वैसे ही श्री रघुनाथजी के बिना मेरा सबकुछ व्यर्थ है।
सरुज शरीर बादि बहु भोगा। बिनु हरि भगति जायें जप जोगा।। जायं जीव बिनु देह सुहाई। बादि मोर सब बिनु रघुराई।।_अर्थ_रोगी शरीर के लिये नाना प्रकार के भोग व्यर्थ हैं। श्रीहरि की भक्ति के बिना जप और जोग व्यर्थ है। वैसे ही श्री रघुनाथ के बिना मेरा सबकुछ व्यर्थ है।
जाउं राम नहिं आयसु देहू। एकहइं आंक मोर हित एहू।। मोहि नृप करि भल आपन चहहू। सोच सनेह जड़ता बस कहहू।।_अर्थ_मुझे आज्ञा दीजिये, मैं श्रीरामजी के पास जाऊं। एक ही आंक ( निश्चयपूर्वक ) मेरा हित इसी में हैं। और मुझे राजा बनाकर आप अपना भला चाहते हैं, यह भी आप स्नेह की जड़ता ( मोह ) के वश होकर ही कह रहे हैं।
कैकेई सुअ कुटिलमति राम बिमुख गतलाज। तुम्ह चाहत सुखु मोह बस मोहि से अधम कें राज।।_अर्थ_कैकेयी के पुत्र, कुटिलबुद्धि, राम विमुख और निर्लज्ज मुझ से अधम के राज्य से आप मोह के वश होकर ही सुख चाहते हैं।
कहउं सांची सब सुनि पतिआहू। चाहिअ धरमसील नरनाहू। मोहि राजु हठि देइहहु जबहीं। रसा रसातल जाइहि तबहीं।।_अर्थ_मैं सत्य कहता हूं, आप सब सुनकर कीन्हा विश्वास करें, धर्मशील को ही राजा होना चाहिये। आप मुझे हठ करके ज्योंहि राज देंगे त्योंहि पृथ्वी पाताल में धंस जायगी।
मोहि समान को पापनिवासू। जेहिं लगा सिय राम बनवासू।। रायन राम कहुं कानन दीन्हा। बिछुड़त गमन अमरपुर कीन्हा।।_अर्थ_मेरे समान पापों का घर कौन होगा, जिसके कारण सीताजी और श्रीरामजी का बनवास हुआ ? राजा ने श्रीरामजी को वन दिया और उनके बिछड़ते ही स्वयं स्वर्ग को गमन किया।
मैं सठ सब अनरथ कर हेतू। बैठ बात सब सुनउं सचेतू।। बिनु रघुबीर बिलोकि अबासू। रहे प्रान सहि जग उपहासू।।_अर्थ_और मैं दुष्ट,जो सारे अनर्थों का कारण हूं, होश_हवास में बैठा सब बातें सुन रहा हूं। श्री रघुनाथजी से रहित घर को देखकर और जगत् का उपहास संकर भी ये प्राण बने हुए हैं।
राम पुनीत बिषय रस रूखे। लोलुप भूमि भोग के भूखे।। कहां लगी कहां हृदय कठिनाई। निदरि कुलिसहु जेहिं लही बड़ाई।।_अर्थ_(इसका यही कारण है कि ये प्राण ) श्रीराम रूपी पवित्र विषय_रस में आसक्त नहीं है। ये लालची भूमि और भोगों के ही भूखे हैं। मैं अपने हृदय की कठोरता कहां तक कहूं ? जिसने वज्र का भी तिरस्कार करके बड़ाई पायी है।
कारन तें कारज कठिन होत दोस नहिं मोर। कुलिस अस्थि तें उपल तें लोह कराल कठोर।।_अर्थ_कारण से कार्य कठिन होता ही है, इसमें मेरा दोष नहीं। हड्डी से वज्र और पत्थर से लोहा भयानक कठोर होता है।
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