भरत तीसरे पहर कहं कीन्ह प्रबेसु प्रयाग। कहत राम सिया राम सिया उमगि उमगि अनुराग।।_अर्थ_प्रेम में उमंग_उमंगकर सीताराम_सीताराम कहते हुए भरतजी ने तीसरे पहर प्रयाग में प्रवेश किया।
झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें।। भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू।।_अर्थ_उनके चरणों में छाले कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूंदें चमकती हैं। भरतजी आज पैदल ही चलकर आये हैं, यह समाचार सुनकर सारा समाज दु:खी हो गया।
खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए।। सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने ।।_अर्थ_जब भरतजी ने यह पता पा लिया कि सब लोग स्नान कर चुके, तब त्रिवेणी पर आकर उन्होंने प्रणाम किया। फिर विधिपूर्वक ( गंगा_यमुना के ) श्वेत और श्याम जल में स्नान किया और दान देकर ब्राह्मणों का सम्मान किया।
देखत स्यामल धवल हिलोरे। पुलकित सरीरा भरत कर जोरे।। सकल कामप्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।_अर्थ_ श्याम और सफेद ( यमुनाजी और गंगाजी की ) लहरों को देखकर भरतजी का शरीर पुलकित हो उठा और उन्होंने हाथ जोड़कर कहा_हे तीर्थराज ! आप समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। आपका प्रभाव वेदों में प्रसिद्ध और संसार में प्रकट है।
मागउं भीख त्यागि निज धरमू। आरती काह न करि कुकरमू।। अस जियं जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी।।_अर्थ_मैं अपना धर्म ( न मांगने का क्षत्रिय धर्म ) त्यागकर आपसे भीख मांगता हूं । आर्य मनुष्य कौन_कौन सा कुकर्म नहीं करता ? ऐसा हृदय में जानकर सुजान उत्तम दानी जगत् में मांगनेवाले की वाणी को सफल किया करते हैं ( अर्थात् वह जो मांगता है, सो दे देते हैं ) ।
अर्थ न धरम न काम रुचि गति न चहउं निरबान। जन्म जन्म रति राम पद यह बरदानु न आन।।_अर्थ_ मुझे न तो अर्थ की रुचि ( इच्छा ) है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता हूं। जन्म_जन्म में मेरा श्रीरामजी के चरणों में प्रेम हो, बस, यही वरदान मांगता हूं, दूसरा कुछ नहीं।
जानहु रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही।। सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।_अर्थ_स्वयं श्रीरामचन्द्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझे और लोग मुझे गुरुद्रोही या स्वामिद्रोही भले ही कहें; पर श्रीसीतारामजी के चरणों में मेरा प्रेम आपकी कृपा से दिन दिन बढ़ता ही रहे।
जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ।। चातकु रटना घटें घटि जाई। बढ़ें प्रेमु बसब भांति भलाई।।_अर्थ_मेघ जन्म भरचातक की सुधि भुला दे और जल मांगने पर वह चाहे वज्र और पत्थर ( ओले ) ही गिरावे, पर चातक की रटना घटने से तो उसकी बात ही घट जायगी ( प्रतिष्ठा ही नष्ट हो जायगी )। उसकी तो प्रेम बढ़ने में ही सब तरह से भलाई है।
कनकहिं बान चढ़ई जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहे।। भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भी मृदु बानी सुमंगल देनी।।_अर्थ_ जैसे तपाने पर सोने से आब ( चमक ) आ जाती है, वैसे ही प्रियतम के चरणों में प्रेम का नियम निबाहने से प्रेमी सेवक का गौरव बढ़ जाता है। भरतजी के वचन सुनकर बीच त्रिवेणी में से सुन्दर मंगल देनेवाली कोमल वाणी हुई।
तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।। बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहिं कोउ प्रिय नाहीं।।_अर्थ_ हे तात भरत ! तुम सब प्रकार से साधू हो। श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्रीरामचन्द्रजी को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है।
तनु पुलकेउ हियं हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल। भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरिसहिं फूल।।_अर्थ_त्रिवेणीजी के अनुकूल वचन सुनकर भरतजी का शरीर पुलकित हो गया, हृदय में हर्ष छा गया। भरतजी धन्य हैं, धन्य हैं, कहकर देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगें।
प्रमुदित तीरथराज निवासी। बऐखआनस बटु गृही उदासी।। कहहिं परस्पर मिली दस पांचा। भरतु सनेहु सील सुठि सांचा।।_अर्थ_तीर्थराज प्रयाग में रहनेवाले वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और उदासीन ( संन्यासी) सब बहुत ही आनंदित हैं और दस पांच मिलकर आपस में कहते हैं कि भरतजी का प्रेम और शील पवित्र और सच्चा है।
सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनि बर पहिं आए।। दंड प्रनामु करते मुनि देखें। मूर्तिमंत भाग्य निज लेखे।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर गुण समूहों को सुनते हुए वे मउनइश्रएष्ठ भरद्वाजजी के पास आये। मुनि ने भरतजी को दण्डवत् प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान सौभाग्य समझा।
धाई उठाई लाइ उर लीन्हे। दीन्ह असीसा कृतार्थ कीन्हे।। आसनु दीन्ह नाइ सिर बैठे। चाहत सकुच गृहं जनु भजि पैठे।।_अर्थ_उन्होंने दौड़कर भरतजी को हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनि ने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर संकोच के घर में घुस जाना चाहते हैं।
मुनि पूछब कछु यह बड़ सोचूं सोचू। बोले रिषि लखि सीलु संकोचू।। सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई।।_अर्थ_उनके मन में यह बड़ा सोच है कि मुनि कुछ पूछेंगे ( तो मैं क्या उत्तर दूंगा ) । भरतजी के शील और संकोच को देखकर ऋषि बोले _भरत ! सुनो, हम सब खबर पा चुके हैं। विधाता के कर्तव्य पर कुछ वश नहीं चलता।
तुम्ह ग्लानि जियं जानि करहु समुझि मातु करतूति।। तात कैकेइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति।।_अर्थ_माता की करतूत को समझकर ( याद करके ) तुम हृदय में ग्लानि मत करो। हे तात ! कैकेयी का कोई दोष नहीं है, उसकी बुद्धि तो सरस्वती बिगाड़ गयी थी।
यहउ कहत भल कहि न कोऊ। लोकु बेदु बुध संमत दोऊ।। तात तुम्हार बिमल जासु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई।।_अर्थ_यह कहते भी कोई भला न कहेगा, क्योंकि लोक और बेद दोनों ही विद्वानों को मान्य है। किन्तु हे तात ! तुम्हारा निर्मल यश गाकर तो लोक और वेद दोनों बड़ाई पावेंगे।
लोक बेद संमत सब कहई। जेहिं पितु देइ राज सो लहई।। राउ सत्यव्रत तुम्हहिं बोलाई। देखत राज सुखु धरम बड़ाई।।_अर्थ_यह लोक और वेद दोनों का मान्य है और सब यही कहते हैं कि पिता जिसको राज्य दे वही पाता है। राजा सत्यव्रती थे; तुमको बुलाकर राज्य देते, तो सुख मिलता, धर्म रहता और बड़ाई होती।
राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल विश्व भई सूला।। सो भावी बस रानी अयानी। करि कुचल अंतहुं पछितानी।।_अर्थ_सारे अनर्थ की जड़ तो श्रीरामचन्द्रजी का वन गमन है, जिसे सुनकर समस्त संसार को पीड़ा हुई। वह श्रीराम का वन गमन भी भावीवश हुआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अन्त में पछतायी।
तहंउं तुम्हार अलप अपराधू। कहो सो अधम अयान असाधू।। करतेहु राजु तो तुम्हहिं न दोषू।
रामहिं होता सुनत संतोषू।।_अर्थ_उसमें भी तुम्हारा कोई तनिक सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि तुम राज्य करते तो भी तुम्हें दोष न होता। सुनकर श्रीरामचन्द्रजी को संतोष ही होता।
अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहिं उचित मत एहु। सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।।_अर्थ_हे भरत ! अब तो तुमने बहुत ही अच्छा किया; यही मत तुम्हारे लिये उचित था। श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम होना ही संसार में समस्त मंगलों का मूल है।
सो तुम्हार धनु जीवन प्राना। भूरि भाग को तुम्हहिं समाना।। यह तुम्हार आचरजु न ताता। दशरथ सुअन राम प्रिय भ्राता।।_अर्थ_ सो वह ( श्रीरामचन्द्रजी के चरणों का प्रेम) तो तुम्हारा धन, जीवन और प्राण ही है; तुम्हारे समान बड़भागी कौन है? हे तात ! तुम्हारे लिये यह आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि तुम दशरथ जी के पुत्र और श्रीरामचन्द्रजी के प्यारे भाई हो।
सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। प्रेम पात्र तुम्ह सम कोउ नाहीं।। लखन राम सईतहइं अति प्रीती। निसि सब तुम्हहिं सराहत बीती।।_अर्थ_हे भरत ! श्रीरामचन्द्रजी के मन में तुम्हारे समान प्रेमपात्र दूसरा कोई नहीं है। लक्ष्मण जी, श्रीरामजी और सीताजी तीनों को सारी रात उस दिन अत्यन्त प्रेम के साथ तुम्हारी सराहना करते हुए बीती।
जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरे अनुरागा।। तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें।।_अर्थ_प्रयागराज में जब वे स्नान कर रहे थे, उस समय मैंने उनका यह मर्म जाना। वे तुम्हारे प्रेम में मगन हो रहे थे। तुमपर श्रीरामचन्द्रजी का ऐसा ही ( अगाध ) स्नेह है जैसा मूर्ख ( विषयासक्त ) मनुष्य का संसार में सुखमय जीवन होता है।
यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रान्त कुटुंब पाल रघुराई।। तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू।।_अर्थ_यह श्रीरघुनाथजी की बहुत बड़ाई नहीं है। क्योंकि श्रीरघुनाथजी तो शरणागत के कुटुम्बभर के पालनेवाले हैं। हैं भरत ! मेरा यह मत है कि तुम तो मानो शरीरधारी श्रीरामजी के प्रेम ही हो।
तुम्ह कहं भरत कलंक यह हम सब कहां उपदेसु। राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु।।
_अर्थ_ हे भरत ! तुम्हारे लिये ( तुम्हारी समझ में ) यह कलंक है, पर हम सबके लिये तो उपदेश है। श्रीरामभक्तिरूपी रस की सिद्धि के लिये यह समय गणेश ( बड़ा शुभ) हुआ है।
नव बिनु बिमल तात जासु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा।। उदित सदा अंथइहइं कबहूं ना। घटिहिं न जग नभ दिन दिन दूना।।_ अर्थ_हे तात ! तुम्हारा यश निर्मल नवीन चन्द्रमा है और श्रीरामचन्द्रजी के दास कुमुद और चकोर हैं ( वह चन्द्रमा तो प्रतिदिन अस्त होता और घटता है, जिससे कुमुद और चकोर को दु:ख होता है ); परन्तु यह तुम्हारा यश रूपी चन्द्रमा सदा उदय रहेगा; कभी अस्त होगा ही नहीं। जगत् रूपी आकाश में यह घटेगा नहीं, वरन दिन दिन दूना होगा।
कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबी छबिहि न हरिही।। निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकेइ करतबु राहू।।_अर्थ_ त्रैलोक रूपी चकवा इस यश रूपी चन्द्रमा पर अत्यन्त प्रेम करेगा और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का प्रताप रूपी सूर्य इस छबि का हरण नहीं करेगा। यह चन्द्रमा रात_दिन सब किसी को सुख देनेवाला होगा। कैकेयी का कुकर्मरूपी राहू इसे ग्रास नहीं करेगा।
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