Monday, 8 July 2024

अयोध्याकाण्ड

पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहीं दूषा।। रामभगत अब अमिअ अघाहूं। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूं।।_अर्थ_यह चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर प्रेमरूपी अमृत से पूर्ण है। यह गुरु के अपमान रूपी दोष से दूषित नहीं है। तुमने इस यश रूपी चन्द्रमा की सृष्टि करके पृथ्वी पर भी अमृत को सुलभ कर दिया। अब श्रीरामजी के भक्त इस अमृत से तृप्त हो लें।




भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुमंगल खानी।। दसरथ गुन गन बरनि न जाहिं। अधिकु कहा जेहिं समय कोई नाहीं।।_अर्थ_ राजा भगीरथ गंगाजी को लिये, जिन ( गंगाजी )_ का स्मरण ही संपूर्ण सुन्दर मंगलों की खान है। दशरथ जी के गुण समूहों का वर्णन तो नहीं किया जा सकता; अधिक क्या, जिनकी बराबरी का जगत् में कोई नहीं है।





जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ। जे हर हिय नयननइ कबहुं निरखे नहीं अघाइ।।_अर्थ_जिसके प्रेम और संकोच ( शील ) के वश में होकर स्वयं ( सच्चिदानंद घन ) भगवान् श्रीराम आकर प्रकट हुए जिन्हें श्रीमहादेवजी अपने हृदय के नेत्रों से कभी अघाकर नहीं देख पाये ( अर्थात् जिनका स्वरूप हृदय में देखते_देखते शिवजी कभी तृप्त नहीं हुए )।






कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहं बस राम प्रेम मृगरूपा।। तात ग्लानि करहु जियं जाएं। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएं।।_अर्थ_( परन्तु उनसे भी बढ़कर ) तुमने कीर्तिरूपी अनुपम चन्द्रमा को उत्पन्न किया जिसमें श्रीराम प्रेम ही हिरण के ( चिह्न ) के रूप में बसता है । हे तात ! तुम व्यर्थ ही हृदय में ग्लानि कर रहे हो। पारस पाकर भी तुम दरिद्रता से डर रहे हो।






सुनहु भरत हम झूठ न कहहिं। उदासीन तापस बन रहही।। सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन रामु सिय दरसनु पावा।।_अर्थ_हे भरत ! सुनो, हम झूठ नहीं कहते। हम उदासीन हैं ( किसी का पक्ष नहीं करते), तपस्वी हैं ( किसी की मुंह देखी नहीं कहते ) और वन में रहते हैं ( किसी से कुछ प्रयोजन नहीं रखते )। सब कामों का उत्तम फल हमें लक्ष्मण जी, श्रीरामजी और सीताजी का दर्शन प्राप्त हुआ।





तेहि फल कर फल दरसु तुम्हारा। सहित प्रयाग सुभाग हमारा।। भरतु धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस प्रेम मगन मुनि भयऊ।।_अर्थ_( सीता लक्ष्मण सहित श्रीराम दर्शनरूप ) उस महान फल का परम फल यह तुम्हारा दर्शन है। प्रयागराज समेत हमारा बड़ा भाग्य है‌ । हे भरत ! तुम धन्य हो, तुमने अपने यश से जगत् को जीत लिया है। ऐसा कहकर मुनि प्रेम में मग्न हो गये।






सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरसे।। धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा।।_अर्थ_भरद्वाज मुनि के वचन सुनकर सभाषद् हर्षित हो गये। 'साधु_साधु' कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाये। आकाश में और प्रयागराज में 'धन्य_धन्य की ध्वनि सुन_सुनकर भरतजी प्रेम में मग्न हो रहे हैं।





पुलक गात हियं राम सीय सजल सरोरुह नैन। करि प्रनामु मुनि मंडलिहिं बोले गदगद बैन।।_अर्थ_भरतजी का शरीर पुलकित है, हृदय में श्रीसीतारामजी हैं और कमल के समान नेत्र ( प्रेमाश्रु के ) जल से भरे हैं। वे मुनियों की मंडली को प्रणाम करके गदगद वचन बोले _





मुनि समाजु अरु तीरथराजू। सांचिहुं साथ अघाइ अकाजू।। एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि समय अधिक न अघ अधमाई।।_अर्थ_मुनियों का समाज है और फिर तीरथराज है। यहां सच्ची सौगन्ध खाने से भी भरपूर हानि होती है। इस स्थान में यदि कुछ बनाकर के कहा जाय, तो इसके समान बड़ा पाप और नीचता न होगी।





तुम्ह सर्बग्य कहुं सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ।। मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखी जियं जगु जानिहिं पोचू।।_अर्थ_मैं सच्चे भाव से कहता हूं। आप सर्वज्ञ हैं, और श्रीरघुनाथजी हृदय के भीतर के जाननेवाले हैं ( मैं कुछ भी असत्य कहूंगा तो आपसे और उनसे छिपा नहीं रह सकता )। मुझे माता कैकेयी की करनी का कुछ भी सोच नहीं है। और न मेरे मन में इस बात का दु:ख है कि जगत् मुझे नीचे समझेगा।





नाहिन डर बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू।। सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए।।_अर्थ_ न यही डर है कि मेरा परलोक बिगड़ जायेगा और न पिताजी के मरने का ही मुझे शोक है। क्योंकि उनका सुन्दर पुण्य और यश विश्वभर में सुशोभित है। उन्होंने श्रीराम लक्ष्मण सरीखे पुत्र पाये।






राम बिरह तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू।। राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेस फिरहिं बन बनहीं।।_अर्थ_ फिर जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजी के बिरह में अपने क्षणभंगुर शरीर को त्याग दिया, ऐसे राजा के लिये सोच करने का कौन प्रसंग है ? ( सोच इसी बात का है कि ) श्रीरामजी, लक्ष्मण जी और सीताजी पैरों में बिना जूती के मुनियों के वेश बनाये वन_वन में फिरते हैं।






अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात। बसि तरु तर नित सहित हिम आतप बरषा बात।।_अर्थ_वे बल्कि वस्त्र पहनते हैं, फलों भोजन करते हैं, पृथ्वी पर कुश और पत्ते बिछाकर सोते हैं और वृक्षों के नीचे निवास करके नित्य सर्दी, वर्षा और हवा सहते हैं।







एहि दुख दाहें दहइ दिन छाती। भूख न बाहर नीद न राती।। एहि कुरोगशकर औषध नाहीं। सोधेउं सकल विश्व मन माहीं।।_अर्थ_इसी दु:ख के जलन से निरंतर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न दिन में भूख लगती है, न रात को नींद आती है। मैंने मन_ही_मन समस्त विश्व को खोज डाला, पर इस कुरोग की औषध कहीं नहीं है।






मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहि हमार हित कीन्ह बंसूला।। करि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू।। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रू।।_अर्थ_ माता का कुमत ( बुरा विचार) पापों का मूल बढ़ई है। उसने हमारे हित का बसूला बनाया। उससे कलह रुपी कुकाठ का कुयंत्र बनाया और चौदह वर्ष की अवधि रूपी कठिन कुमंत्र पढ़कर उस यन्त्र को गाड़ दिया। ( यहां माता का कुविचार बढ़ई है, भरत को राज्य वसूला है, राम का वनवास कुमंत्र है और चौदह वर्ष की अवधि कुमंत्र है।






मोहि लगि यह कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा।। मिटा कुजोगु राम फिरि आएं। बसि अवध नहिं आन उपाएं।।_अर्थ_मेरे लिये उसने यह सारा कुठाटु ( बुरा साज ) रचा और सारे जगत् को बारहबाटा ( छिन्न_भिन्न ) करके नष्ट कर डाला। यह कुयोग श्रीरामचन्द्रजी के लौट आने पर ही मिट सकता है और तभी अयोध्या बस सकती है, दूसरे किसी उपाय से नहीं।






भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीह बहुत भांति बड़ाई।। तात करहु जनि सोच बिसेषी। सब दुखु मिटिहि राम पग देखी।।_अर्थ_ भरतजी के वचन सुनकर मुनि ने सुख पाया और सभी ने उसकी बहुत प्रकार से बड़ाई की। (मुनि ने कहा_) हे तात ! अधिक सोच मत करो। श्रीरामचन्द्रजी के चरणों का दर्शन करते ही सारा दु:ख मिट जायगा।







करि प्रबोधु मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय हओहउ। कंद मूल फल फूल हम देहिं देहु करि छोहु।।_अर्थ_ इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी ने उनका समाधान करके कहा_अब आप लोग हमारे प्रेम-प्रिय अतिथि बनिये और कृपा करके कंद_मूल, फल_फूल जो कुछ हम दें, स्वीकार कीजिये।








सुनि मुनि बचन भरत हियं सोचू। भयउ सुअवसर कठिन संकोचू।। जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी।।_अर्थ_मुनि के वचन सुनकर भरतजी के हृदय में सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढ़ब संकोच आ पड़ा। फिर गुरुजनों की वाणी को महत्वपूर्ण ( आदरणीय ) समझकर, चरणों की वन्दना कर हाथ जोड़कर बोले_








सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धर्म यही नाथ हमारा।। भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए।।_अर्थ_हे नाथ ! आपकी आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है। भरतजी के ये वचन मुनिश्रेष्ठ के मन को अच्छे लगे। उन्होंने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्यों को पास बुलाया 








चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कन्द मूल फल आनहु जाई।। भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए।।_अर्थ_( और कहा कि ) भरत की पहुनई करनी चाहिये। जाकर कन्द, मूल और फल लाओ। उन्होंने ' हे नाथ ! बहुत अच्छा ! कहकर सिर नवाया और तब बड़े आनन्दित होकर अपने _अपने काम को चल दिये।








मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेता। तिस पूजा चाहिए जस देवता।। सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं । आयसु होइ सो करहिं गोसाईं।।_अर्थ_ मुनि को चिंता हुई कि हमने बहुत बड़े मेहमान को न्योता है। अब जैसा देवता हैं वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिये। यह सुनकर रिद्धियां और अणिमादि सिद्धियां आ गयीं ( और बोलीं _) हे गोसाईं ! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें। 







राम बिरह व्याकुल भरतु सानुज सहित समाज। पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज।।अर्थ_मुनिराज ने प्रसन्न होकर कहा_छोटे भाई शत्रुध्न और समाज सहित भरतजी श्रीरामचन्द्रजी के विरह में व्याकुल हैं। इनकी पहुनाई ( आतिथ्य_सत्कार ) करके इनके श्रम को दूर करो।







रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहिं अनुमानी।। कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई।।_अर्थ_ रिद्धि_सिद्धि ने मुनिराज की आज्ञा को सिर पर चढ़ाकर अपने को बड़भागिनि समझा। सब सिद्धियां आपस में कहने लगीं _श्रीरामचन्द्रजी के छोटे भाई भरत ऐसे अतिथि हैं, जिनकी तुलना में कोई नहीं आ सकता।







मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू।। अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना।।_अर्थ_अत: मुनि के चरणों की वन्दना करके आज वही करना चाहिये जिससे सारा राज समाज सुखी हो। ऐसा कहकर उन्होंने बहुत _से सुन्दर घर बनाये, जिन्हें देखकर विमान भी विलखते हैं ( लजा जाते हैं )।






भोग विभूति भूरि भरि राखे। देखत जइन्हहइं अमर अभिलाषे।। दासी दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहीं मनहि मनु दीन्हें।।_अर्थ_ उन घरों में बहुत _से भोग ( इन्द्रियों के विषय ) और ऐश्वर्य ( ठाट_बाट ) का सामान भरकर रख दिया, जिन्हें देखकर देवता भी ललचा गये। दासी_दास सब प्रकार की सामग्री लिये हुए मन लगाकर उनके मनों को देखते रहते हैं ( अर्थात् उनके मन की रुचि के अनुसार करते रहते हैं।





सब समाजु सजा सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुं नाहीं।। प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेहि।।_अर्थ_जो सुख के समान स्वर्ग में भी स्वप्न में भी नहीं है ऐसे सब सामान सिद्धियों ने पलभर में सज दिये। पहले तो उन्होंने सब किसी को, जिसकी जैसी रुचि थी वैसे ही, सुन्दर सुखदायक निवासस्थान दिये।






बहुरि सपरिजन भरत कहुं रिषि अस आयसु दीन्ह। बिधि बिसमय दायकु बिमल मुनिबर तपबल कीन्ह।।_अर्थ_और फिर कुटुम्बीसहित भरतजी को दिये, क्योंकि ऋषि भरद्वाजजी ने ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी। ( भरतजी चाहते थे कि उनके सब संगियों को आराम मिले, इसलिये उनके मन की बात जानकर मुनि ने पहले ही उन लोगों का स्थान देकर पीछे सपरिवार भरतजी को स्थान देने के लिये आज्ञा दी थी )। मुनि ने तपोबल से ब्रह्मा को भी चकित कर देनेवाला वैभव रच दिया।







मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका।। सुखु समाज नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहि ज्ञानी।।_अर्थ_जब भरतजी ने मुनि के प्रभाव को देखा तो उसके सामने उन्हें ( इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि सभी लोकपालों के लोक तुच्छ जान पड़े। सुख की सामग्री का वर्णन नहीं हो सकता जिसे देखकर ज्ञानी लोग भी वैराग्य भूल जाते हैं।






आसन सयन सुबसन बिताना। बन बालिका बिहग मृग नाना।। सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।।_अर्थ_आसन, सेज, सुन्दर वस्त्र, चंदोवे, वन, बगीचे, भांति भांति के पक्षी और पशु, सुगन्धित फूल और अमृत के समान स्वादिष्ट फल, अनेकों प्रकार के ( तालाब, कुएं, बावली आदि ) निर्मल जलाशय, _









असन पान सुचि अमिअ अभी से। देखि लोग सकुचात जमी से।। सुर सुरभी सुरतरु सबहिं कें।
लखि अभिलाषु सुरेष सची कें।।_अर्थ_ तथा अमृत के भी अमृत सरीखे पवित्र खान_पान के पदार्थ थे, जिन्हें देखकर सबलोग संयमी पुरुषों ( विरक्त मुनियों )_की भांति सकुचा रहे हैं। सभी के डेरों में ( मनोवांछित वस्तु देनेवाले ) कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, जिन्हें देखकर इन्द्र और इन्द्राक्षी को भी अभिलाषा होती है ( उनका भी मन ललचा जाता है ) ।





रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहं सुलभ पदारथ चारी।। स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हर्ष बिसमयबस लोगा।।_अर्थ_बसंत ऋतु है। शीतल, मन्द, सुगन्ध तीन प्रकार की हवा बह रही है। सभी को ( धर्म, अर्थ काम और मोक्ष ) चारों पदार्थ सुलभ हैं। माला, चंदन स्त्री आदि भोगों को देखकर सब लोग हर्ष और विषाद के वश हो रहे हैं। ( हर्ष तो भोग सामग्रियों को और मुनि के तप प्रभाव को देखकर होता है और विषाद इस बात से होता है कि श्रीराम के वियोग में नियम व्रत से रहनेवाले हमलोग भोग_विलास में क्यों आ फंसे; कहीं इनमें आसक्त होकर हमारा मन नियम व्रतों को न त्याग दे।


No comments:

Post a Comment