कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहिं हरषानी।। बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा।।___अर्थ___सुन्दर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया।
भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा।। मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी।।___अर्थ___बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गयीं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गये। मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने पार्वतीजी को अपने पास बुला लिया।
अधिक सनेहँ गोद बैठारी। श्याम सरोज नयन भरे बारी।। जेहि बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा।।___अर्थ___और अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नील कमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा___जिस विधाता ने तुमको इतना सुन्दर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया?
कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई। जो फल चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई।। तुम्ह सहित गिरि ते गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं। घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं।।___अर्थ___जिस विधाता ने तुमको सुन्दरता दी, उसने तुम्हारे लिये वर बावला कैसे बनाया ? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिये, वह जबर्दस्ती बबूल में लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूँगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पड़ूँगी। चाहे घर उजड़ जाय और संसारभर में अपकीर्ति फैल जाय, पर जीते_जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी।
भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि। करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि।।___ अर्थ___हिमाचल की स्त्री ( मैना ) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गयीं। मैना अपनी कन्या के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थी___
नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा।। अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा।।___अर्थ___मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वतीजी को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिये तप किया।
साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया।। पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा।।___अर्थ___सचमुच उनको न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है; वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़ने वाले हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा तो क्या जाने ?
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी।। अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता।।___अर्थ___माता को विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं___हे माता ! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं; ऐसा विचारकर तुम सोच मत करो।
करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू।। तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका।।___अर्थ___जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है तो किसी को क्यों दोष लगाया जाय ? हे माता ! क्या विधाता के अंक तुमसे मिट सकते हैं ? वृथा कलंक का टीका मत लो।
जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं। दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं।। सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं। बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहिं।।___अर्थ___हे माता ! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुःख_सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी वहीं पाऊँगी ! पार्वतीजी के ऐसे विनयभरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति_भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं।
तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत। समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत।।___अर्थ___इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्तर्षियों को साथ लेकर अपने घर गये।
तब नारद सबहिं समुझावा। पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा। मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदंबा तव सुता भवानी।। तब नारद ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया ( और कहा ) कि हे मैना ! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात् जगतजननी भवानी है।
अजा अनादि सक्ति अबिनासिनी। सदा संभु अरधंग निवासिनी।। जग संभव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि।।___अर्थ___ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिवजी के अर्धांग में रहती हैं। ये जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाली हैं और अपनी इच्छा से ही लीला_शरीर कारण करती हैं।
जन्मी प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुन्दर तनु पाई।। तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं।।___अर्थ___पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुंदर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शंकरजी से ही ब्याही गयी थीं। यह कथा सारे जगत् में प्रसिद्ध है।
एक बार आवत सिव संगा। देखेउ रघुकुल कमल पतंगा।। भयउ मोह सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा।।___अर्थ___ एक बार इन्होंने शिवजी के साथ आते हुए ( राह में ) रघुकुलरूपी कमल के सूर्य श्रीरामचन्द्रजी को देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होंने शिवजी का कहना न मानकर भ्रमवश सीताजी का वेष धारण कर लिया।
सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं। हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु के जग्य जोगानल जरीं।। अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तप किया। अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया।।___अर्थ___ सतीजी ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शंकरजी ने उनको त्याग दिया। फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भष्म हो गयीं। अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिये कठिन तप किया है ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया ( अर्धांगिनी ) हैं।
सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद। छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद।।___अर्थ___ तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर_घर फैल गया।
तब मैना हिमवंतु अनंदे। पुनि पुनि पारबती पद बंदे।। नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने।।___ अर्थ___तब मैना और हिमवान् आनन्द में मगन हो गये और उन्होंने बार_बार पार्वती के चरणों की वन्दना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृदध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए।
लगे होन पुर मंगल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना।। भाँति अनेक भईं जेवनारा। सूपशास्त्र जस कछु व्यवहारा।।___अर्थ___नगर में मंगलगीत गाये जाने लगे और सबने भाँति_भाँति के सुवर्ण कलश सजाये। पाकशास्त्र में जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई ( रसोई बनी )।
सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी।। सादर बोले सकल बराती। बिष्णु बिरंचि देव सब जाती।।___अर्थ___जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार ( भोजनसामग्री ) का वर्णन कैसे किया जा सकता है ? हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों को___विष्णु, ब्रह्मा और सब देवताओं को बुलाया।
बिबिध पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा।। नारिबृंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी।।___ अर्थ___ भोजन (करनेवालों) की बहुत_सी पंगतें बैठीं। चतुर रसोइये परोसने लगे। स्त्रियों की मण्डलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ गाने लगीं।
गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरी बिंग्य बचन सुनावहिं। भोजन करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं।। जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो। अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो।।___अर्थ___ अब सुन्दरि स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ गाने लगीं और व्यंगभरे वचन सुनाने लगीं। देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिये भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनन्द बढ़ा, वह करोड़ों मुख से भी नहीं कहा जा सकता। ( भोजन कर चुकने पर ) सबके हाथ_मुँह धुलवाकर पान दिये गये। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गये।
बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ। समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ।।___अर्थ___फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान् को लगन ( लग्नपत्रिका ) सुनायी और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा।
बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहिं यथोचित आसन दीन्हे।। बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमंगल गावहिं नारी।।___अर्थ___सब देवताओं को आदरसहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिये। वेद की रीति से वेदी सजायी गयी और स्त्रियाँ सुन्दर श्रेष्ठ मंगल गीत गाने लगीं।
सिंहासन अति दिव्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरंचि बनावा।। बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदय सुमिरि निज प्रभु रघुराई।।___अर्थ ___ वेदिका पर एक अत्यन्त सुन्दर दिव्य सिंहासन था, जिस ( की सुन्दरता ) का वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह स्वयं ब्रह्माजी का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर मानकर और हृदय में अपने स्वामी श्रीरघुनाथजी का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन पर बैठ गये।
बहुरि मुनीसन्ह उमा बुलाई। करि सिंगारु सखी लै आईं।। देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है।।___अर्थ___फिर मुननीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया। सखियाँ श्रृंगार करके उन्हें ले आयीं। पार्वतीजी के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गये। संसार में ऐसा कवि कौन है जो उस सुन्दरता का वर्णन कर सके।
जगदंबिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रणामा।। सुंदरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी।।___ अर्थ ___पार्वतीजी को जगदंबा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन_ही_मन प्रणाम किया। भवानीजी सुंदरता की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती।
कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा। सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा।। छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ। अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ।।___अर्थ___जगज्जननी पार्वतीजी की महान् शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते नहीं बनता। वेद, शेषजी और सरस्वतीजी तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मन्दबुद्धि तुलसी किस गिनती में है। सुन्दरता और शोभा की खान माता भवानी मण्डप के बीच में, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गयीं। वे संकोच के मारे पति ( शिवजी ) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मनरूपी भौंरा तो वहीं ( रसपान_कर रहा ) था।
मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि। कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि।।___अर्थ___मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे ( कि गणेशजी तो शिव_पार्वती की संतान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ ये आ गये )।
जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई।। गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी।।___अर्थ___वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गयी है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवायी। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी ( शिवपत्नी ) जानकर शिवजी को समर्पण किया।
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा।। बेदमंत्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं।।___जब महेश्वर ( शिवजी ) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब ( इन्द्रादि ) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जयजयकार करने लगे।
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना। हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू।।___अर्थ___अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव_पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्रह्मांड में आनन्द भर गया।
दासीं दास तुरंत रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा।। अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना।।___अर्थ___दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, दाँतों, वस्त्र और मणिपुर आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में पद पाकर दहेज में दिये, जिनका वर्णन नहीं हो सकता।
दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो। का देउँ पूरनकाम लेकर चरण पंकज गहि रह्यो।। सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो। पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो।।___अर्थ___बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा___हे शंकर ! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ ? ( इतना कहकर ) वे शिवजी के चरणकमल पकड़कर रह गये। तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्णहृदय मैनाजी ने शिवजी के चरणकमल पकड़े ( और कहा )___
नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु। छमेहु सकल अपराध अब होई प्रसन्न बरु देहु।।___अर्थ___हे नाथ ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान [ प्यारी ] है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइयेगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहियेगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिये।
बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई।। जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही।।___अर्थ___ शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी को चरणों में सिर नवाकर घर गयीं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बैठाकर यह सुन्दर सीख दी___
करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा।। बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी।।___अर्थ___हे पार्वती ! तू सदा शिवजी के चरण की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिये पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते_कहते उनकी आँखों में आँसू भर आये और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया।
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।। भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी।।___अर्थ___[ फिर बोलीं कि ] विधाता ने जगत् में स्त्रीजाति को क्यों पैदा किया ? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो गयी, परन्तु कुसमय जानकर ( दुःख करने का अवसर न जानकर ) उन्होंने धीरज धरा।
पुनि पुनि मिलत परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना।। सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी।।___ अर्थ___मैना बार_बार मिलती हैं और [ पार्वती के ] चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल_भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं।
जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं। फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं।। जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले। सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले।।___अर्थ___पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिये। पार्वतीजी फिर_फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गयीं। महादेवजी सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वतीजी के साथ घर ( कैलास ) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुन्दर नगाड़े बजाने लगे।
चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु। बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु।।___अर्थ___तब हिमवान् अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिये साथ चले। वृषकेतु ( शिवजी ) ने बहुत तरह से उन्हें सन्तोष कराकर विदा किया।
तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई।। आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर विदा कीन्ह हिमवाना।।___अर्थ___पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आये और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान् ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की।
जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए।। जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहि सिंगारु न कहउँ बखानी।।___अर्थ___जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने_अपने लोकों को चले गये। [ तुलसीदासजी कहते हैं कि ] पार्वतीजी और शिवजी जगत् के माता_पिता हैं इसलिये मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता।
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा। हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि विपुल काल चलि गयऊ।।___अर्थ___शिव_पार्वती विविध प्रकार के भोग_विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नये विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया।
तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा।। आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना।।___अर्थ___तब छः मुखवाले पुत्र ( स्वामीकार्तिक ) का जन्म हुआ, जिन्होंने ( बड़े होने पर ) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिकेय के जन्म की कथा प्रसिद्ध है।
जगु जान षन्मुख जन्म कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा। तेहि हेतु मैं बृषकेतू सुत कर चरित संछेपहिं कहा।। यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं। कल्यान काज बिबाहो मंगल सर्बदा सुखु पावहीं।।___अर्थ___षडानन ( स्वामिकार्तिक ) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान् पुरुषार्थ को सारा जगत् जानता है। इसलिये मैंने वृषकेतु ( शिवजी ) के पुत्र का चरित्र संक्षेप से ही कहा है। शिव_पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री_पुरुष कहेंगे और गायेंगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पावेंगे।
चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु। बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु।। गिरिजापति महादेवजी का चरित्र समुद्र के समान ( अपार ) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है।
संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा।। बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी।।___अर्थ___शिवजी के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भारद्वाजजी ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बहुत बढ़ गयी। नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गयी।
प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी।। अहो धन्य तव जन्म मुनीसा। तुम्हहिं प्रान सम प्रिय गौरीसा।।___अर्थ___वे प्रेम में मुग्ध हो गये, मुख से वाणी नहीं निकलती। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए [ और बोले ] हे मुनिश ! अहा हा ! तुम्हारा जन्म धन्य है; तुमको गौरीपति शिवजी प्राणों को समान प्रिय हैं।
सिव पद कमल जिन्हहिं रति नाहीं। रामहिं ते सपनेहुँ न सोहाहीं। बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू।।___अर्थ___शिवजी के चरणकमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्रीरामचन्द्रजी को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ श्रीशिवजी के चरणों में निष्कपट ( विशुद्ध ) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है।
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी।। पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहिं प्रिय भाई।।___अर्थ___शिवजी के समान रघुनाथजी [ की भक्ति ] का व्रत धारण करनेवाला कौन है ? जिन्होंने बिना ही पाप के सती_जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके श्रीरघुनाथजी की भक्ति को दिखा दिया। हे भाई ! श्रीरामचन्द्रजी को शिव के समान और कौन प्यारा है ?
प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार। सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार।।___अर्थ___मैंने पहले ही शिवजी का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम श्रीरामचन्द्रजी के पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो।
मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला।। सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें।___अर्थ___मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्रीरघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि ! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनन्द हुआ है वह कहा नहीं जा सकता।
राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा।। तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनु पानी।।___अर्थ__हे मुनीश्नर ! रामचरित्र अत्यन्त अपार है। सौ करोड़ शेषजी भी उसे नहीं कह सकते। तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी ( प्रेरक ) और हाथ में धनुष लिये हुए प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करके कहता हूँ।
सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी।। जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी।।___अर्थ___सरस्वतीजी कठपुतली समान हैं और अन्तर्यामी स्वामी श्रीरामचन्द्रजी [ सूत पकड़कर कठपुतली को नचानेवाले ] सूत्रधार हैं। अपना भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदयरूपी आँगन में सरस्वती को वे नचाया करते हैं।
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा।। परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू।।___अर्थ___उन्हीं कृपालु श्रीरघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव_पार्वतीजी सदा निवास करते हैं।
सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद। बसहिं तहाँ सुकृती सकल से सेवहिं सिव सुखकंद।।___अर्थ___सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनन्दकन्द श्रीमहादेवजी की सेवा करते हैं।
हरिहर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं।। तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुन्दर सब काला।।___अर्थ___जो भगवान् विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते। उसपर एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल ( छहों ऋतुओं ) में सुन्दर रहता है।
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव विश्राम बिटप श्रुति गाया।। एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर्वरक अति सुखु भयऊ।।___अर्थ___वहाँ तीनों प्रकार की ( शीतल, मन्द और सुगन्ध ) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठण्डी रहती है। वह शिवजी के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है। एक बार प्रभु श्रीशिवजी उस वृक्ष के नीचे गये और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत आनन्द हुआ।
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला।। कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधान मुनिचीरा।।___अर्थ___अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही ( बिना किसी खास प्रयोजन के ) वहाँ बैठ गये। कुन्द के पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। लम्बी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के_से (वल्कल ) वस्त्र धारण किये हुए थे।
तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना।। भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी।।___अर्थ___उनके चरण नये ( पूर्णरूप से खिले हुए ) लाल कमल के समान थे, पंखों की ज्योति उन भक्तों के हृदय का अंधकार हरनेवाली थी। साँप और भष्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिवजी का मुख शरद् ( पूर्णिमा ) के चन्द्रमा की शोभा को भी हरनेवाला ( फीकी करनेवाला ) था।