हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी।। समुझि कामसुख सोचहिं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी।।___अर्थ___जगत् में बड़ा हाहाकार मच गया। देवता डर गये, दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुख तो याद करके चिंता करने लगे और साधक जोगी निष्कंटक हो गये।
जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरछित भई। रोदति बदति बहु भाँति करुणा करति संकर पहिं गई।। अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही। प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही।।___अर्थ___योगी निष्कंटक हो गये, कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूर्छित हो गयी। रोती_चिल्लाती और बार_बार करुणा करती हुई वह शिवजी के पास गयी। अत्यन्त प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गयी। शीघ्र प्रसन्न होने वाले कृपालु शिवजी अबला ( असहाय स्त्री ) को देखकर सुन्दर ( उसको शान्त्वना देनेवाले ) वचन बोले__
अब ते रति तव नाथ कर होइहिं नाम अनंगु। बिनु हरि व्यापिहिं सबहिं पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु।।___ अर्थ___हे रति ! अब से तेरे स्वामी का नाम अनंग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन।
जब जदुबंस कृष्ण अवतारा।होइहिं हरन महा महिभारा।। कृष्ण तनय होइहिं पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा।।___अर्थ___जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिये यदुबंस में कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र ( प्रद्युम्न ) के रूप में उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन पूरा होगा।
रति गवनि सुना संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी।। देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुण्ठ सिधाए।।___अर्थ___शिवजी के वचन सुनकर रति चली गयी। अब दूसरी कथा विस्तार से कहता हूँ।ब्रह्मादि देवता सब समाचार सुनकर बैकुण्ठ चले।
सब सुर विष्णु बिरंचि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता।। पृथक_पृथक तिन्ह कीन्ही प्रशंसा। भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा।।___अर्थ___ फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गये जहाँ कृपा के धाम शिवजी थे। उन सबने शिवजी की अलग_अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गये।
सकल सुरन्ह के हृदय अस संकर परम उछाहु। निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु।।___अर्थ___हे शंकर ! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं।
यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोई कछु करहु मदन मन मोचन।।काम जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा।।___अर्थ___हे कामदेव का नाश करनेवाले ( शिव ) ! आपके विवाह का उत्सव हम आँख भरकर देखना चाहते हैं। आपने कामदेव को जलाकर रति को वरदान दिया। हे कृपा के सागर ! आपने यह बहुत अच्छा किया।
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ।। पारबतीं तप कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अंगीकारा।।___अर्थ___हे नाथ ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं। पार्वती ने अपार तप किया है अब उन्हें साकार कीजिये।
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होइ कहा सुखु मानी।। तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं।।___ अर्थ___ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्रीरामजी के वचनों को याद करके शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा___’ऐसा ही हो'। तब देवताओं ने नगाड़े बजाये और फूलों की वर्षा करके ‘जय हो’ ! देवताओं के स्वामी की जय हो !’ ऐसा कहने लगे।
अवसरु जानी सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए।। प्रथम गए जहाँ रही भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी।।___अर्थ___उचित अवसर पर सप्तरिषि आये और ब्रह्माजी ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे पहले वहाँ गये जहाँ पार्वतीजी थीं और उनसे छल से भरे मीठे ( विनोदयुक्त, आनन्द पहुँचानेवाले ) वचन बोले___
कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस। अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ काम महेस।।___अर्थ___नारदजी के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेवजी ने काम को ही भष्म कर डाला।
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