पठवहु काम जाइ सिव पाहीं। करै छोभु संकर मन माहीं।। तब हम जाइ सिवहिं सिर नाई। करवाउब बिवाह बरिआई।।___अर्थ_तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिवजी की समाधि भंग करे। तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देंगे और जबर्दस्ती ( उन्हें राजी करके ) विवाह करा देंगे।
एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ बसु कोई।। अस्तुति सुरन्ह कीन्ह अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबाण झषकेतू।।__अर्थ___इस प्रकार भले ही देवताओं का हित हो ( और तो कोई उपाय नहीं है ) सबने कहा__यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओंं ने बड़े प्रेम से स्तुति की, तब विषम ( पाँच ) बाण कारण करनेवाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजावाला कामदेव प्रकट हुआ।
सुरन्ह कही निज विपति सब सुनि मन कीन्ह विचार। संभु विरोध न कुशल कुशल मोहन, बिहसि कहें अस मार।।___अर्थ___देवताओं ने कामदेव से सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर देवताओं से यों कहा कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है।
यदपि करीब मैं काजू तुम्हारा। श्रुति कह परम श्रम उपकारा।। पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं रोगी।।___अर्थ___तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिये अपना शरीर त्याग देता है, संत सदा उसकी बड़ाई करते हैं।
अस कहि चलेउ सबहिं सिरु नाईं। सुमन मधुर कर सहित सहाई।। चलत मार अस हृदय बिचारा। सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा।।__अर्थ__यों कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर ( वसन्तादि ) सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने ऐसा हृदय में विचार किया कि शिवजी के साथ विरोध करने से मेरा मरण निश्चित है।
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा।। कोपेउ जबहिं बारिचर केतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू।।__अर्थ__तब उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गयी।
ब्रह्मचर्य व्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना।। सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा।।__अर्थ__ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गयी।
भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सपाट संजुग महि मुरे। सदग्रन्थ पर्बत कन्दरन्हि महुँ जाइ जेहि अवसर दुरे।। होनिहार का कराकर को कथानक जग खरभरु परा। दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपिकर धनु सरु धरा।।___अर्थ___जब कामदेव की सेना के योद्धा रणभूमि की ओर झुके तब ज्ञान अपने साथियों के संग भाग चला। वे उस समय धर्मग्रन्थ रूपी पर्वत की मुद्राओं में जा छिपे। हे विधाता ! क्या होनहार है ? कौन रक्षा करेगा ? संसार में यह खलबली पड़ गई। ऐसा दो सिरवाला कौन है जिसके लिये कामदेव ने क्रोध करके धनुष_बाण उठाया है ?
जे सजीव जग अचर चर, नारि पुरुष अस नाम। तो निज निज मरजाद तजि, भए सकल बस काम।।___अर्थ___संसार में स्त्री_पुरुष नामवाले जितने चर_अचर प्राणी थे, सब अपनी मर्यादा को छोड़कर कामदेव के वश में हो गए।
सबके हृदय मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा।। नहीं उन कि अंकुरित कहँ धाईं। संगम करहिं तलाश चलाईं।।___अर्थ___सबके हृदय में काम की इच्छा हो गयी। कलाओं ( बेलों ) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़_उमड़ कर समुद्र की ओर दौडी और ताल_ तलैया भी आपस में संगम करने लगीं।
जहँ असि दास जड़न्ह कै बरनी। को कहा सके सचेतन करनी।। पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी।।___जब जड़ ( वृक्ष, नदी आदि ) की यह दशा कही गयी, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है ? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरनेवाले सारे पशु_पक्षी ( अपने संयोग का ) समय भुलाकर काम के वश हो गये।
मदन अंध व्याकुल सब लोका। निसि दिनी नहीं अवलोकहिं कोका।। देव अनुज नर किन्नर व्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला।।___अर्थ__सब लोग कामान्ध होकर व्याकुल हो गये। चकवा_चकवी रात दिन नहीं देखते। देव, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल___
इन्ह कै दशा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी।। सिद्ध विरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी।।___अर्थ___ये तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्ध, बिरक्त, महामुनि और महान् योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गये।
भए कामबस जोगीस तापस पाँवरन्हि की को कहै। देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देकर रहे।। अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं। दुइ दंड भरी ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं।।___अर्थ__जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गये, तब पामर मनुष्यों की कौन कहे ? जो समस्त चराचर जगत् को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्रह्माण्ड के अन्दर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक ( तमाशा ) रहा।
धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे। जे राखे रघुवीर रे उबरे तेहि काल महुँ।।___अर्थ___किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिये। श्रीरघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे।
उभय घड़ी यह कौतुक भयऊ। जौं लगि काम संभव पहिं गयऊ।। सिवहि बिलोकि असंतोष मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू।।___अर्थ___दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा_का_तैसा स्थिर हो गया।
भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे।। रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना।।___अर्थ___तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गये जैसे मतवाले ( नशा पिये हुए ) लोग मद ( नशा ) उतर जाने पर सुखी होते हैं। दुराधर्ष ( जिसको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन है ) और दुर्गम ( जिनका पार पाना कठिन है ) भगवान् ( संपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ग्राम और वैराग्यरूप छ: ईश्वरीय गुणों से युक्त ) रुद्र ( महाभयंकर ) शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो गया।
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरन ठानि मन परसि उपाई।। प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा।।___लौट जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुन्दर रितुराज वसन्त को प्रगट किया। फूले हुए नये_नये वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गयीं।
बन उपबन बापिका तड़ागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा।। जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखा मुएहुँ मन मनसिज जागा।।___अर्थ___वन_उपवन, बावली_तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुन्दर हो गये। जहाँ_तहाँ मानो प्रेम उमड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा।
जागई मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कहि। सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही।। बिकसे सरन्हि बहु कंज सुंदर पुंज मंजुल मधुकरा। कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा।।___अर्थ___ मरे हुए मन में भी कामदेव जागने लगा, वन की सुन्दरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल_मन्द_सुगंधित पवन चलने लगा। सरोवरों में सुन्दर_सुन्दर फूल खिल गये और सभी पक्षी कलरव करने लगे।
सकल कला करि कोटि बिधि। हारेउ सेन समेत।। टली न अचल समाधि सिव। कोपेउ हृदय निकेत।।___अर्थ___कामदेव ने हर तरह की कला से शिव की समाधि भंग करने का प्रयत्न किया, लेकिन शिवजी की अचल समाधि नहीं टूटी। तब कामदेव को गुस्सा आ गया।
देखि रसाल विटप पर साखा। तेहि पर चढ़ेउ मदन मन माखा।। सुमन चाप निज सर संधाने। अति रिस ताकि श्रवण लगि ताने।।___अर्थ___कामदेव ने एक बड़ा आम का पेड़ देखकर उसके बड़े डाल पर मन में अभिमान लिये चढ़ गये। अपने फूल के धनुष पर बाण चढ़ाकर गुस्से में उसे कान तक खींचा।
छाड़े विषम विसिख उर लागे। छूटि समाधि संभु तब जागे।। भयऊ ईस मन छोभ विसेषी।। नयन उघारि सकल दिसि देखी।।___अर्थ___कामदेव ने वाण चलाया जो शिवजी की छाती में लगा। तब शिवजी का समाधि टूटा। भगवान् शिव नयन खोलकर सभी दिशाओं में देखने लगे।
सौरभ पल्लव मदन बिलोका। भयउ कोप कंपेउ त्रयलोका।। तब सिव तीसर नयन उघारा। चितवत काम भयउ जरि छारा।।___अर्थ___शिवजी ने आम के पल्लव के बीच कामदेव को देखा। उन्हें क्रोध हो गया जिससे तीनों लोक काँपने लगे। तब शिवजी ने अपनी तीसरी आँख खोली और देखते ही कामदेव जलकर राख हो गया।
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