Thursday, 22 June 2017

बालकाण्ड

जटा मुकुट सरसरित सिर, लोचन मिलन बिसाल। नीलकण्ठ लावण्यनिधि, सोह बालबिधु भाल।।___अर्थ___जटाओं का मुकुट बनाये, सिर पर गंगाजी विराजमान, विशाल कमल के समान नेत्र, नीलकण्ठवाले सुन्दरता की खान मस्तक पर द्वितीया का चन्द्रमा शोभायमान था।


बैठे सोह कामरिपु कैसे। करे सरीरु सान्तरसु जैसे। पारबतीं भल अवसरु जानि। गई संभु नहिं मारुति भवानी।।___अर्थ___कामदेव के शत्रु शिवजी बैठे हुए  ऐसे सुशोभित थे जैसे शान्त शरीर धारण किये बैठा हो। माता पार्वतीजी सुअवसर जानकर उनके पास गईं।

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसानु हर दीन्हा।। बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरब जन्म कथा चित्त आई।।___अर्थ___अपनी प्यारी पत्नी जानकर शिवजी ने उनका बहुत आदर_सत्कार किया और अपनी बायीं ओर बैठने के लिये आसन दिया। पार्वतीजी प्रसन्न होकर शिवजी के पास बैठ गयीं। उन्हें पिछले जन्म की कथा स्मरण हो आयी।

पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोली प्रिय बानी।। कथा जो सकल लोक हितकारी। सोई पूछन रह सैलकुमारी।।___अर्थ___ स्वामी के हृदय में ( अपने ऊपर पहले की अपेक्षा ) अधिक प्रेम समझकर पार्वतीजी हँसकर प्रिय वचन बोलीं। ( याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि ) जो कथा सब लोगों का हित करनेवाली है, उसे ही पार्वतीजी पूछना चाहती हैं।

बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा विदित तुम्हारी।। चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पंकज सेवा।।___अर्थ___[ पार्वतीजी ने कहा___ ] हे संसार के स्वामी ! हे मेरे नाथ ! हे त्रिपुरासुर का वध करनेवाले ! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात है। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरणकमलोंकी सेवा करते हैं।

प्रभु समरथ सर्वग्य सिव सकल कला गुन धाम। जोग ग्यान वैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम।।___अर्थ___हे प्रभो ! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भण्डार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिये कल्पवृक्ष है।

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी।। तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना।।___अर्थ___हे सुख के राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी [ या अपनी सच्ची ़दासी ] जानते हैं, तो हे प्रभो ! आप श्री रघुनाथजी की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिये।

जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई।। ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी।।___अर्थ___जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो, वह भला दरिद्रता से उत्पन्न दुःख को क्यों सहेगा ? हे शशिभूषण ! हे नाथ ! हृदय में ऐसा विचारकर मेरी बुद्धि के भारी भ्रम को दूर कीजिये।

प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादि।। सेस सारदा बेद पुराना। सकल कहहिं रघुपति गुन गाना।।___अर्थ___हे प्रभो ! जो परमार्थतत्व ( ब्रह्म )  के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे श्रीरामचन्द्रजी को अनादि ब्रह्म कहते हैं; और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी श्रीरघुनाथजी का गुण गाते हैं।


जौं नृपतनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ अति भोरि। देखि चरित महिमा सुनत भ्रमत बुद्धि अति मोरि।।___अर्थ___यदि वे राजापुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे ? [ और यदि ब्रह्म हैं तो ] स्त्री के विरह में उनकी मति बावली कैसे हो गयी ? इधर उनके ऐसे चरित्र देखकर और उधर उनकी महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यन्त चकरा रही है।


जौं अनीह व्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाई नाथ मोहि सोऊ। अग्य जानि जनि रिस उर धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोई करहू।।___अर्थ___यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और है, तो हे नाथ ! मुझे उसे समझाकर कहिये। मुझे नादान समझकर मन में क्रोध न लाइये। जिस तरह मेरा मोह दूर हो वही कीजिये।

मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहिं सुनाई।। तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फल भली भाँति हम पावा।।___अर्थ___मैंने [ पिछले जन्म में ] वन में श्रीरामचन्द्रजी की प्रभुता देखी थी, परन्तु अत्यन्त भयभीत होने के कारण मैंने वह बात आपको सुनायी नहीं। तो भी मेरे मलिन मन को बोध न हुआ। उसका फल भी मैंने अच्छी तरह पा लिया।

अजहुँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें।। प्रभु तब मोहि बहुत भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा।।___अर्थ___अब भी मेरे मन में कुछ संदेह है। आप कृपा कीजिये, मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ। हे प्रभो ! आपने उस समय मुझे बहुत तरह से समझाया था [ फिर भी मेरा संदेह नहीं गया ], हे नाथ ! यह सोचकर मुझ पर क्रोध न कीजिये।

तब कर एस बिमोह अब नाहीं। राम कथा पर रुचि मन माहीं।। करहु पुनीत राम गुण गाथा। भुजगनाथ भूषण सुरनाथा।।___अर्थ___पहले जैसा मोह अब मुझको नहीं है। रामकथा सुनने की मन में रुचि है। हे नागराज_भूषण ! हे देवताओं के स्वामी ! आप श्रीरामचन्द्रजी के गुणों की पवित्र कथा कहिए।


बंदउँ पद धरि धरनि सिरु, विनय करउँ कर जोरि। बरनउँ रघुबर बिसद जसु, श्रुति सिद्धांत निचोरि।।___अर्थ___मैं पृथ्वी पर सिर रखकर आपके चरणों को प्रणाम करती हूँ और हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि आप श्रीरामचन्द्रजी का निर्मल यश, वेदों का लाभांश लेकर वर्णन कीजिये।

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी। गूढ़उ तत्व न साधु दुराबहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं।।___अर्थ___यद्यपि स्त्री को वेद का सिद्धांत सुनने का अधिकार नहीं है तथापि मन कर्म और वाणी से मैं आपकी दासी हूँ। साधु ( सज्जन ) लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गूढ़ तत्व को भी नहीं छिपाते।

अति आरती पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया।। प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी।।___अर्थ___हे देवेश ! बहुत दीन होकर मैं आपसे पूछती हूँ, कृपा करके आप रघुनाथजी की कथा कहिये। पहले वह कारण विचारकर बतलाइये जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है।

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा।। कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूसन काहीं।।___अर्थ___ फिर, हे प्रभु ! रामजी के अवतार की कथा कहिये, फिर उदार बालचरित्र का वर्णन करिये। जिस प्रकार श्रीजानकीजी से विवाह हुआ सो कहिये और राज्य को छोड़ दिया, सो क्या दोष था?


बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावण मारा। राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु संकर सुखसीला।।___अर्थ___वन में रहकर जो अनेक चरित्र किये और जैसे रावण को मारा, हे नाथ ! वह भी कहिये। फिर हे सुखस्वरूप शंकरजी ! रामचन्द्रजी ने राजगद्दी पर बैठकर अनेक लीलाएँ कीं, वे सब कहिये।

बहुरि कहहु करुनायतन, कीन्ह जो अचरज राम। प्रजा सहित रघुबंसमनि, किमि गवने निज धाम।।___अर्थ___हे कृपानिधान ! जो अद्भुत कार्य रामजी ने किये, सब कहिये। रघुवंशमणि श्रीरामचन्द्रजी प्रजा सहित अपने धाम बैकुण्ठ को कैसे गए ?

पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहि बिज्ञान मगन मुनि ग्यानी।। भगति ग्यान बिज्ञान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा।।___अर्थ___फिर हे प्रभु ! वह तत्व वर्णन कीजिये जिसके स्मरण में मुनि और ज्ञानीजन सदा मग्न रहते हैं। भक्ति ज्ञान और वैराग्य का वर्णन कीजिये।

औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका।। जौं प्रभु मैं पूछा नहीं होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई।।___अर्थ___श्रीरामजी के और भी जो अनेक गूढ़ चरित्र हों उन्हें भी कहिये। हे नाथ ! आपका ज्ञान निर्मल है। हे प्रभु ! मैंने जो न पूछा हो वह भी छिपा न रखियेगा।

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना। प्रस्न उमा कै सहज सुहाई।। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई।।___अर्थ___आपको वेदों ने तीनों लोकों का गुरु कहा है, अन्य तुच्छ जीव इस रूहस्य को क्या जानें। पार्वतीजी के स्वाभाविक, सुहावने और छल_रहित वचन शिवजी को भले लगे।

हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए।। श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा।।___अर्थ___शिवजी के हृदय में रामजी के सब चरित्रों का स्मरण हो आया, प्रेम से शरीर रिसर्च हो नेत्रों में जल भर आया। राजमा का रूप हृदय में आ गया जिससे शिवजी को अत्यन्त सुख प्राप्त हुआ।

मगन ध्यानरस दण्ड जुग, पुनि मन बाहेर कीन्ह। रघुपति चरित महेस तब, हरषित बरनै लीन्ह।।___अर्थ___ महादेवजी दो घड़ी ध्यान के रस में मग्न रहे, फिर उन्होंने मन को ध्यान से हटाया। तब प्रसन्न होकर रामचन्द्रजी का चरित्र वर्णन करने लगे।

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें।। जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई।।___अर्थ___जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य जान पड़ता है, जैसे रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है, जिसको जान लेने से संसार छूट जाता है जैसे जागने से स्वप्न का भ्रम दूर हो जाता है।

बन्दउँ बालरूप सोई रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू।। मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।___अर्थ___मैं उन्हीं श्रीरामचन्द्रजी के बालरूप की वन्दना करता हूँ, जिसका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सुलभ हो जातीं हैं। मंगलों के धाम, अमंगलों को हरनेवाले तथा श्रीदशरथजी के आँगन में निवास करने वाले श्रीरामचन्द्रजी मुझपर कृपा करें।

करि प्रणाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी।। धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी।।___अर्थ___श्रीरामचन्द्रजी को प्रणाम कर, शिवजी प्रसन्न हो अमृत के समान वाणी बोले___हे पार्वती ! धन्य है, धन्य है, तुम्हारे समान उपकारी कोई नहीं है।

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा।। तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी।।___अर्थ___तुमने रामजी की कथा प्रसंग पूछा है जो सब लोकों को पवित्र करनेवाली गंगाजी के समान है। तुम रामजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो, जगत् के हित के लिये ही तुमने यह प्रश्न किया है।

रामकृपा तें पारबति, सपनेहुँ रन मन माहिं मन माहिं। लोक मोह सन्देह भ्रम, मम विचार कुछ नाहिं।।___अर्थ___हे पार्वतीजी ! मेरे विचार से तो श्रीरामचन्द्रजी की कृपा से सपने में भी तुम्हारे मन को शोक, मोह संदेह और भ्रम कुछ भी नहीं है।

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