Friday, 24 December 2021

अयोध्याकाण्ड

प्रिया प्राण सुत सरबसु मोरें। परिजन प्रजा सकल बस तोरें।। जौं कछु कहौं कपटु करि तोही। भामिनि राम सपथ सत मोही।।_अर्थ_हे प्रिये ! मेरी प्रजा, कुटुम्बी, सर्वस्व ( सम्पत्ति ), पुत्र, यहां तक कि मेरे प्राण भी, ये सब तेरे वश में ( अधीन ) हैं। यदि मैं तुमसे कुछ कपट करके कहता होऊं तो हे भामिनि ! मुझे सौ बार राम की सौगंध है।





बिहसि मागु मनभावति बाता। भूषन सजहि मनोहर गाता।। घरी कुघरी समुझि जियं देखू। बेगि प्रिया परिहरइ कुबेषू।।_अर्थ_तू हंसकर ( प्रसन्नतापूर्वक ) अपनी मनचाही बात मांग ले और अपने मनोहर अंगों को आभूषणों से सजा। मौका_बेमौका तो मन में विचारकर देख। हे प्रिय ! जल्दी इस बुरे वेष को त्याग दे।





यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद। भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुं किरातिनि फंद।।_अर्थ_यह सुनकर और मन में रामजी की बड़ी सौगंध विचारकर मंदबुद्धि कैकेयी हंसते हुए उठी और गहने पहनने लगी; मानो कोई भीलनी मृग को देखकर फंदा तैयार कर रही हो।





पुनि कह राउ सुहृद जियं जानी। प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी।। भामिनि भयउ तोर मन भावा। घर घर नगर अनंद बधावा।।_अर्थ_अपने जी में कैकेयी को सुहृद जानकर राजा दशरथजी प्रेम से पुलकित होकर कोमल और सुन्दर वाणी से फिर बोले_हे भामिनी ! तेरा मनचीता हो गया। नगर में घर_घर आनन्द के बधावे बज रहे हैं।





रामहि देउं कालि जुबराजू। सजहि सुलोचनि मंगल साजू।। दलकि उठेउ सुनि हृदय कठोरू। तनु छुइ गयउ पाक बरतोरू।।_अर्थ_मैं कल ही राम को युवराज पद दे रहा हूं। इसलिए हे सुनयनी ! तू मंगल साज सज। यह सुनते ही उसका कठोर हृदय झलक उठा ( फटने लगा )। मानो पका हुआ फोड़ा छू गया हो।





ऐसिउ पीर बिहसि जेहिं गोई। चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई।। लखहि न भूप कपट चतुराई। कोटि कुटिल मनि गुरु पढ़ाई।।_अर्थ_ऐसी भारी पीड़ा को भी उसने हंसकर छिपा लिया, जैसे चोर की स्त्री प्रकट होकर नहीं रोती ( जिसमें उसका भेद न खुल जाय )। राजा उसकी कपट चतुराई को नहीं लग रहे हैं। क्योंकि वह करोड़ों कुटिलों की शिरोमणि गुरु मंथरा की पढ़ाई हुई है।





जद्यपि नीति निपुन नरनाहू। नारिचरित जलनिधि अवगाहू।। कपट सनेहु बढ़ाई बहोरी। बोली बिहसि नयन मुहु मोरी।।_अर्थ_यद्यपि राजा नीति में निपुण हैं; परन्तु त्रियाचरित्र अथाह समुद्र है। फिर वह कपटपूर्ण प्रेम बढ़ाकर ( ऊपर से प्रेम दिखाकर ) नेत्र और मुंह मोड़ती हुई बोली_





मागु मागु पै कहहु पिय कबहुं न दे हुए न लेहु। देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु।।_अर्थ_हे प्रियतम ! आप मांग_मांग तो कहा करते हैं,  पर देते_लेते कभी कुछ भी नहीं। आपने दो वरदान देने को कहा था, उनके भी मिलने में संदेह है ।






जानेउं मरमु राउ हंसि कहई। तुम्हहिं कोहाब परम प्रिय अहई।।_अर्थ_राजा ने हंसकर कहा कि अब मैं तुम्हारा मर्म ( मतलब ) समझा। मानो करना तुम्हें परम प्रिय है। तुमने उन वरों को थाती रखकर धरोहर ) रखकर फिर कभी मांगा ही नहीं और मेरा भूलने का स्वभाव होने से मुझे भी वह प्रसंग याद न रहा।





झूठेहुं हमहि दोषु जनि देहू। दुइ कै चारि मागि मकु लेहू।। रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जाइ बरु बचनु न जाई।।_अर्थ_मुझे झूठ_मूठ दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार मांग लो। रघुकुल में सदा से यही रीति चली आयी है कि प्राण भले ही चले जायं, पर वचन नहीं जाता।





नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा।। सत्यमूल सब सुकृत सुहाए। बेद पुरान बिदित मनु गाए।।_अर्थ_असत्य के समान पापों का समूह भी नहीं है। क्या करोड़ों घुंघचियां मिलकर भी कहीं पहाड़ के समान हो सकती हैं। ‘सत्य’ ही समस्त उत्तम सुकृतों ( पुण्यों ) की जड़ है। यह बात वेद_पुराणों में प्रसिद्ध है और मधुजी ने भी यही कहा  है।





तेहि पर राम सपथ करि आई। सुकृति सनेह अवधि रघुराई।। बात दृढ़ाइ कुमति हंसि बोली। कुमति कुबिहग कुलह जनु खोली।।_अर्थ_उसपर मेरे द्वारा श्रीराम जी का शपथ करने में आ गयी ( मुंह से निकल पड़ी )। श्री रघुनाथजी मेरे सुकृत ( पुण्य ) और स्नेह की सीमा हैं। इस प्रकार बात पक्की कराके दुर्बुद्धि कैकेयी हंसकर बोली, मानो उसने कुमत ( बुरे विचार ) रूपी दुष्ट पक्षी ( बाज ) ( को छोड़ने के लिये उस ) की कुलही ( आंखों पर टोपी ) खोल दी।





भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु । भिल्लिनि जिमि छाडन चहति बचनु भयंकरु बाजु।_अर्थ_राजा का मनोरथ सुन्दर वन है, सुख सुन्दर पक्षियों का समुदाय है। उसपर भीलनी की तरह कैकेयी अपना वचन रूपी भयंकर बाज छोड़ना चाहती है। 





सुनहु प्राणप्रिय भावतजी का। देहु एक बर भरतहि टीका।। मांगउं दूसर बर कर जोरी। पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी।।_अर्थ_( वह बोली_) हे प्राणप्यारे ! सुनिये, मेरे मन को भानेवाला एक वर तो दीजिये, भरत को राजतिलक; और हे नाथ ! दूसरा वर भी मैं हाथ जोड़कर मांगती हूं, मेरा मनोरथ पूरा कीजिये।





तापस बेस बिषेसि उदासी। चौदह बरिस रामु बनवासी।। सुनि मृदु बचन भूप हियं सोकू। ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू।।_अर्थ_तपस्वियों के वेष में विशेष उदासीन भाव से ( राज्य और कुटुम्बियों की ओर भली-भांति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भांति ) राम चौदह वर्ष तक वन में निवास करें। कैकेयी के कोमल ( विनययुक्त ) वचन सुनकर राजा के हृदय में ऐसा शोक हुआ जैसे चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है।





गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा।। बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिनि हनेउ मनहुं मनहुं तरु तालू।।_अर्थ_ राजा सहम गये, उनसे कुछ कहते न बना, मानो बाज बन में बटेर पर झपटा हो। राजा का रंग बिलकुल उड़ गया, मानो तार के पेड़ को बिजली ने मारा हो ( जैसे तार के पेड़ पर बिजली गिरने से वह बदरंगा हो जाता है, वहीं हाल राजा का हुआ।)





माथे हाथ मूदि दोउ लोचन। तनु धरि सोचु में लाग जनु सोचन।। मोर मनोरथु सुरतरु फूला। परत करिनि जिमि हतेउ समूला।।_अर्थ_माथे पर हाथ रखकर, दोनों नेत्र बन्द कर राजा ऐसे सोच करने लगे, मानो साक्षात् सोच ही शरीर धारण कर सोच कर रहा हो। ( वे सोचते हैं_हाय ! ) मेरा मनोरथ रूपी कल्पवृक्ष फूल चुका था, परन्तु फलते समय कैकेयी ने हथिनी की तरह उसे जड़ समेत उसे उठाकर नष्ट कर डाला।





अवध उजारि कीन्ह कैकेईं। दीन्हसि अचल विपत्ति कै नेईं।।_अर्थ_कैकेयी ने अयोध्या को उजाड़ कर दिया और विपत्ति की अचल ( सुदृढ़ ) नींव डाल दी।





कवनें अवसर का भयउ गयऊं नारि बिस्वास। जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास।।_अर्थ_किस अवसर पर क्या हो गया ! स्त्री का विश्वास करके मैं वैसे ही मारा गया, जैसे योग की सिद्धिरूपी फल मिलने के समय योगी को अविद्या नष्ट कर देती है।





नहिं बिधि राउ मनहिं मन झांका। देखि कुभांति कुमति मन माखा।। भरत कि राउर पूत न होहीं। आनेहु मोल बेसाहि कि मोही।।_अर्थ_इस प्रकार राजा मन_ही_मन झींक रहे हैं। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुर्बुद्धि कैकेयी मन में बुरी तरह से क्रोधित हुई। ( और बोली_) क्या भरत आपके पुत्र नहीं हैं ? क्या मुझे आप दाम देकर खरीद लाते हैं ? ( क्या मैं आपकी विवाहिता पत्नी नहीं हूं ?)





जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें। काहे न बोलहु बचन संभारे।। देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं। सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं।।_अर्थ_जो मेरा वचन सुनते ही आपको बाण_सा लगा तो आप सोच_समझकर बात क्यों नहीं कहते ? उत्तर दीजिये, नहीं तो शाहीन कर दीजिये। आप रघुवंश में सत्य प्रतिज्ञा वाले ( प्रसिद्ध ) हैं।





देन कहेहु अब जनि बर देहू। तजहू सत्य जग अपजसु लेहू।। सत्य सराहि कहेउ बरु देना। जानेहु लेइहि मागि चबेना।।_अर्थ_आपने ही वर देने को कहा था, अब भले ही न दीजिये। सत्य को छोड़ दीजिये और जगत् में अपयश लीजिये। सत्य की बड़ी सराहना करके वर देने को कहा था। समझा था कि यह चबेना ही मांग लेगी।





सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचनु पनु राखा।। अति कटु बचन कहति कैकेई। मानहु लोन जरे पर देई।।_अर्थ_राजा शिबि, दधीचि और बलि ने जो कुछ कहा, शरीर और धन त्यागकर भी उन्होंने अपने वचन की प्रतिज्ञा को निबाहा। कैकेयी बहुत ही कडवे वचन कहे रही है, मानो जले पर नमक छिड़क रही हो।





धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायं। सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायं।।_अर्थ_धर्म की धुरि धारण करनेवाले राजा दशरथ ने धीरज धरकर नेत्र खोले और सिर धुनकर तथा लम्बी सांस लेकर इस प्रकार कहा कि कि मुझे बड़े कुठौर मारा ( ऐसी कठिन परिस्थिति उत्पन्न कर दी, जिससे बच निकलना कठिन हो गया।





आगें दीख जरत रिस भारी। मनहुं रोष तरवारि उघारी।। मूठि कुबुद्धि धार निठुराई। धरी कूबरीं सान बनाई।।_अर्थ_प्रचंड क्रोध से जलती हुई कैकेई सामने इस प्रकार दिखायी पड़ी, मानो क्रोधरूपी तलवार म्यान से बाहर खड़ी हो। कुबुद्धि उस तलवार की मूठ है, निष्ठुरता धार है और वह कुबरी ( मन्थरा ) रूपी सान पर धरकर तेज की हुई है।





लखी महीप कराल कठोरा। सत्य कि जीवन लेइहि मोरा।। बोले राउ कठिन करि छाती। बानी सबिनय तासु सोहाती।।_अर्थ_राजा ने देखा कि यह ( तलवार ) बड़ी ही भयानक और कठोर हैं ( और सोचा_) क्या सत्य ही यह मेरा जीवन लेगी ? राजा अपनी छाती कड़ी करके, बहुत ही नम्रता के साथ उसे ( कैकेयी को ) प्रिय लगने वाली वाणी बोले_





प्रिया बचन कह कहति कुभांती। भीर प्रतीति प्रीति करि हांती।। मोरें भरत राम दुइ आंखी। सत्य कहउं करि संकरु साखी।।_अर्थ_हे प्रिय ! हे भीरु ! विश्वास और प्रेम को नष्ट करके ऐसे बुरी तरह के वचन कैसे कह रही हो। मेरे तो भरत और रामचन्द्र दो आंखें ( अर्थात् एक_से ) हैं; यह मैं शंकरजी की साक्षी देकर सत्य कहता हूं।






अवसि दूत मैं पठइब प्राता। ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता।। सुदिनु सोधि सब साज सजाई। दें भरत कहुं राजु बजाई।।_अर्थ_मैं अवश्य सवेरे ही दूत भेजूंगा। दोनों भाई  ( भरत_शत्रुध्न ) सुनते ही तुरंत आ जायेंगे। अच्छा दिन ( शुभ_मुहूर्त ) शोधवाकर, सब तैयारी करके डंका बजाकर मैं भरत को राज्य दे दूंगा।






लोभ न रामहि राजु कर बहुत भरत पर प्रीति। मैं बड़ छोटे बिचारि जियं करत रहेउं नृपनीति।।_अर्थ_राम को राज्य का लोभ नहीं है और भरत पर उनका बड़ा ही प्रेम है। मैं ही अपने मन में बड़े_छोटे का विचार करके राजनीति का पालन कर रहा था ( बड़े को राजतिलक देने जा रहा था ) ।





राम सपथ सत कहउं सुभाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ।। मैं सब कहउं तोहि  बिनु पूछें। तेहि ते परेउ मनोरथ छूछें।। _अर्थ_राम की सौ बार सौगंध खाकर मैं स्वभाव से ही कहता हूं कि राम की माता ( कौशल्या ) ने ( इस विषय में ) मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। अवश्य ही मैंने तुमसे बिना पूछे यह सब किया। इसी से मेरा मनोरथ खाली गया।





रिस परिहरि अब मंगल साजू। कछु दिन गएं भरत जुबराजू।। एकहि बात मोर दुखु लागा। बर दूसर असमंजस मागा।।_अर्थ_अब क्रोध छोड़ दें और मंगल साज सज। कुछ ही दिनों बाद भरत युवराज हो जायेंगे। एक ही बात का मुझे दुख लगा कि तुमने दूसरा वरदान बड़ी अड़चन का मांगा।






अजहूं हृदउ जरत तेहि आंचा। रिस परिहास  सांचहु सांचा।। कहु तजि रोषु राम अपराधू। सब कोउ कहइ रामु सुठि साधू।।_अर्थ_उसकी आंच से अब भी मेरा हृदय जल रहा है। यह दिल्लगी में, क्रोध में अथवा सचमुच ही ( वास्तव में ) सच्चा है ? क्रोध को त्यागकर राम का अपराध तो बता। सब कोई तो कहते हैं कि राम बड़े ही साधु हैं।






तुहूं सराहसि करसि सनेहू। अब सुनि मोहि भयउ संदेहू।। जासु सुभाउ अरिहि अनुकूला। सो किमि करिहि मातु प्रतिकूला।।_अर्थ_तू स्वयं भी राम की सराहना करती और उनपर स्नेह किया करती थी। अब यह बात सुनकर मुझे संदेह हो गया है ( कि तुम्हारी प्रशंसा और स्नेह कहीं  झूठे तो न थे ? )





 जिसका स्वभाव शत्रु को भी अनुकूल है, वह माता के प्रतिकूल आचरण क्यों कर करेगा ?
प्रिया हास रिस परिहरहि मागु बिचारि बिबेकु। जेहिं देखि अब नयन भरि भरत राज अभिषेक।।_अर्थ_हे प्रिये ! हंसी और क्रोध छोड़ दें और विवेक ( उचित_अनुचित ) विचार कर वर मांग, जिससे अब मैं नेत्र भरकर भरत का राज्याभिषेक देख सकूं।





जिएं मीन बरु बारि बिहीना। मनि बिनु फनिकु जिएं दुख दीना।। कहउं सुभाउ न छलु मन माहीं। जीवनु मोर राम बिनु नाहीं।।_अर्थ_मछली चाहे बिना पानी के जीती रहे और सांप भी चाहे बिना मणि के दीन दु:की होकर जीता रहे। परन्तु मैं स्वभाव से ही कहता हूं, मन में ( जरा भी ) छल रखकर नहीं कि मेरा जीवन राम के बिना नहीं है।






समुझि देखु जियं प्रिया प्रबीना। जीवनु राम दरस अधीना।। सुनि मृदु बचन कुमति अति जरई। मनहुं अनल आहुति घृत परई।।_अर्थ_हे चतुर प्रिये ! जी मैं समझ देख, मेरा जीवन श्रीराम के दर्शन के अधीन है। राजा के कोमल वचन सुनकर दुर्बुद्धि अत्यन्त जल रही है। मानो अग्नि में घी की आहुतियां पड़ रही हैं।





कहइ करहु किन कोटि उपाया। इहां न लागिहि राउरि माया।। देहु कि लेहु अजसि करि नाहीं। मोहि न बहुत प्रपंच सोहाहीं।।_अर्थ_( कैकेयी कहती है_) आप करोड़ों उपाय क्यों न करें, यहां आपकी माया ( चालबाजी ) नहीं चलेगी। या तो मैंने जो मांगा है सो दीजिये नहीं तो ‘नाहीं’ करके अपयश लीजिये। मुझे बहुत प्रपंच ( बखेड़े ) नहीं सुहाते।





रामु साधु तुम्ह साधु सयाने। राममातु भलि सब पहिचाने।। जस कौसिलां मोर भल ताका। तस बलु उन्हहिं देउं करि साका।।_अर्थ_राम साधु हैं, आप सयाने साधु हैं और राम की माता भी भली हैं; मैंने सबको पहचान लिया है। कौशल्या ने मेरा जैसा भला चाहा है, मैं भी साका करके ( याद रखने योग्य ) उन्हें वैसा ही फल दूंगी।






होत प्रात मुनिबेष धरि जौं न रामु बन जाहिं। मोर मरनु राउर अजस नृप समुझिअ मन माहिं।।_अर्थ_सवेरा होते ही मुनि का वेष धारण कर यदि राम वन को नहीं जाते, तो हे राजन् ! मन में ( निश्चय ) समझ लीजिये कि मेरा मरना होगा और आपका अपयश।





अस कहि कुटिल भइ उठि ठाढ़ी। मानहु रोष तरंगिनि बाढ़ी।। पाप प्रहार प्रगट भइ सोई। भरी क्रोध जल जाइ न जोई।।_अर्थ_ऐसा कहकर कुटिल कैकेयी उठ खड़ी हुई, मानो क्रोध की नदी उमड़ी हो। वह नदी पापरूपी पहाड़ से प्रकट हुई है और क्रोध रूपी जल से भरी है; ( ऐसी भयानक है कि ) देखी नहीं जाती।





दोउ बर कूल कठिन हठ धारा। भवंर कूबरी बचन प्रचारा।। ढ़ाहत भूपरूप तरुमूला। चली बिपति बारिधि अनुकूला।।_अर्थ_दोनों वरदान उस नदी के दो किनारे हैं, कैकेयी का कठिन हठ ही उसकी कठिन ( तीव्र ) धारा है और कुबरी ( मंथरा ) के वचनों की प्रेरणा ही भंवर है। ( वह क्रोध रूपी नदी ) राजा दशरथरूपी वृक्ष को जड़मूल से ढ़हाती हुई विपत्तिरूप समुद्र की ओर ( सीधी ) चली जाती है।





छाड़हु बचनु कि धीरजु धरहू। जनि अबला जिमि करुना करहू।। तनु तिय तनय धामु धनु धरनी। सत्यसंध कहुं तृन सम बरनी।।_अर्थ_या तो वचन ( प्रतिज्ञा ) ही छोड़ दीजिये या धैर्य धारण कीजिये। यों असहाय स्त्री के भांति रोइये_पीटिये नहीं। सत्यव्रती के लिये तो शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, धन और पृथ्वी_सब तिनके के बराबर कहे गये हैं।





मरम बचन सुनि राउ कहु कछु दोष न तोर। लागेउ तोहि पिशाच जिमि कालु कहावत मोर।।_अर्थ_कैकेयी के मर्मभेदी वचन सुनकर राजा ने कहा कि तू जो चाहे कह, तेरा कुछ भी दोष नहीं है। मेरा काल तुझे मानो पिशाच होकर लग गया है, वहीं सब तुझसे यह सब कहला।





चहत न भरत भूपतहिं भोरें। बिधि बस कुमति बसी जिय तोरें। सो सब मोर पाप परिनामू। भयउ कुठाहर जेहिं बिधि बामू।।_अर्थ_भरत तो भूलकर भी राजपद नहीं चाहते। होनहारवश तेरे ही जी में कुमति आ बसी। यह सब मेरे पापों का परिणाम है, जिससे कुसमय में ( बेमौके ) विधाता विपरीत हो गया।





सुबस बसिहि फिरि अवध सुहाई। सब गुन धाम राम प्रभुताई।। करिहहिं भाइ सकल सेवकाई। होइहिं तिहुं पुर सम बड़ाई।।_अर्थ_( तेरी उजाड़ी हुई ) यह सुन्दर अयोध्या फिर भली_भांति बसेगी और समस्त गुणों के नाम श्रीराम की प्रभुता भी होगी। सब भाई उनकी सेवा करेंगे और तीनों लोकों में श्रीराम जी की बड़ाई होगी।





तोर कलंक मोर पछिताऊ। मुएहुं न मिटिहिं न जाइहिं काऊ।। अब तोहि नीक लाग करु सोई। लोचन ओट बैठु मुहु गोई।।_अर्थ_केवल तेरा कलंक और मेरा पछतावा मरने पर भी नहीं मिटेगा, यह किसी तरह नहीं जायगा। अब तुझे जो अच्छा लगे वहीं कर। मुंह छिपाकर मेरी आंखों की ओट जा बैठ ( अर्थात् मेरे सामने से हट जा, मुझे मुंह न दिखा।




जब लगि जियौं कहउं कर जोरी। तब लगि जनि कछु कहसि बहोरी।। फिरि पछितैहसि अंत अभागी। मारसि गाइ निहारूं लागी।।_अर्थ_मैं हाथ जोड़कर कहता हूं कि जबतक मैं जीता रहूं, जबतक फिर कुछ न कहना ( अर्थात् मुझसे न बोलना )। अरी अभागिनी ! फिर तू अन्त में पछतायेगी जो तू नहारू ( तांत ) के लिये गाय को मार रही है।





परेउ  राउ कहि कोटि बिधि काहे करसि निदानु। कपट सयानि न कहति कछु जागति मनहुं मसानु।।_अर्थ_राजा करोड़ों प्रकार से ( बहुत तरह से ) समझाकर ( और यह कहकर ) कि तू क्यों सर्वनाश कर रही है, पृथ्वी पर गिर पड़े। पर कपट करने में चतुर कैकेयी कुछ बोलती नहीं, ( मानो मौन होकर ) मसान जगा रही हो ( श्मशान में बैठकर प्रेतमंत्र सिद्ध कर रही हो।





राम राम रट बिकल भुआलू। जनु बिनु पंख बिहग बेहालू।। हृदयं मनाव भोरु जनि होई। रामहि जाइ कहै जनि कोई।।_अर्थ_राजा ‘राम_राम’ रट रहे हैं और ऐसे व्याकुल हैं, जैसे कोई पक्षी पंख के बिना बेहाल हो। वे अपने हृदय में मनाते हैं कि सबेरा न हो और राम को जाकर कोई न कहे। 




 
उदउ करहु जनि रबि रघुकुल गुर। अवध बिलोकि सूल होइहिं उर।। भूप प्रीति कैकेयी कठिनाई। उभय अवधि बिधि रची बनाई।।_अर्थ_हे रघुकुल के गुरु ( बड़ेरे मूलपुरुष ) सूर्यभगवान् ! आप अपना उदय न करें। अयोध्या को ( बेहाल ) देखकर आपके हृदय में बड़ी पीड़ा होगी। राजा की प्रीति और कैकेयी की निष्ठुरता दोनों को ब्रह्मा ने सीमा तक रचकर बनाया है ( अर्थात् राजा प्रेम की सीमा हैं और कैकेयी निष्ठुरता की । )





बिलपत नृपहि भयउ भिनुसारा। बीना बेनु संख धुनि द्वारा।। पढ़हिं भाट गुन गावहिं गायक। सुनत नृपहिं तनु लागहिं सायक।।_अर्थ_विलाप करते_करते ही राजा को सबेरा हो गया। राजद्वारे पर वीणा, बांसुरी और शंख की ध्वनि होने लगी। भाट लोग विरुदावली पढ़ रहे हैं और गवैये गुणों का गान पढ़ रहे हैं। सुनने पर राजा को वे बाण_जैसे लगते हैं।





मंगल सकल सोहाहिं न कैसें। सहगामिनिहिं बिभूषन जैसें।। तेहि निसि नींद पूरी नहिं काहू। राम दरस लालसा उछाहू।।_अर्थ_राज को ये सब मंगल_साज कैसे नहीं सुहा रहे हैं, जैसे पति के साथ सती होने वाली स्त्री को आभूषण ! श्रीरामचन्द्र जी के दर्शन की लालसा और उत्साह के कारण उस रात्रि में किसी को भी नींद नहीं आयी।





द्वार भीर सेवक सचिव कहहिं उदित रबि देखि। जागेउ अजहुं न अवधपति कारनु कवनु बिसेषि।।_अर्थ_राजद्वार पर मंत्रियों और सेवकों की भीड़ लगी है। वे सब सूर्य को उदय हुआ देखकर कहते हैं कि ऐसा कौन सा विशेष कारण है कि अवधपति दशरथजी अभी तक नहीं जागे।





पछिले पहर भूपु नित जागा। आजु हमहि बड़ अचरजु लागा।। जाहु सुमंत्र जगावहु जाई। कीजिए काजु रजायसु पाई।।_अर्थ_राजा नित्य ही रात के पिछले पहर जाग जाता करते हैं, किन्तु आज हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। हे सुमंत्र ! जाओ, जाकर राजा को जगाओ। उनकी आज्ञा पाकर हम सब काम करें।





गए सुमंत्रु तब राउर माहीं। देखि भयावन जात डेराहीं।। धाइ खाई जनु जाइ न हेरा। मानहुं बिपति बिषाद बसेरा।।_अर्थ_तब सुमंत्र रावले ( राजमहल ) में गये, पर महल को भयानक देखकर वे जाते हुए डर रहे हैं। ( ऐसा लगता है )  मानो दौडकर काट खायेगा, उसकी ओर देखा नहीं जाता। मानो विपत्ति और विषाद ने वहां डेरा डाल रखा हो। 





 पूछें कोई न उतरु देई। गए जेहिं भवन भूप कैकेई।। कहि जयजीव बैठ सिरु नाई। देखि भूप गति गयउ सुखाई।।_अर्थ_ पूछने पर कोई जवाब नहीं देता; वे उस महल में गये जहां राजा और कैकेयी थे। ‘जय_जीव’ कहकर सिर नवाकर ( वन्दना करके ) बैठे और राजा की दशा देखकर तो वे सूख ही गये।





सोच बिकल बिबरन महि परेऊ। मानहुं कमल मूलु परिहरेऊ।। सचिउ सभीत सकइ नहिं पूंछी। बोली असुभ भरी सुभ छूंछी।।_अर्थ_( देखा कि_) राजा सोच से व्याकुल हैं, चेहरे का रंग उड़ गया है। जमीन पर ऐसे पड़े हैं मानो कमल जड़ छोड़कर ( जड़ से  ) मुर्झाया पड़ा हो। मंत्री मारे डर के कुछ पूछ नहीं सकते। तब अशुभ से भरी हुई शुभ से विहीन कैकेयी बोली_





परी न राजहि नींद निसि हेतु जान जगदीसु। रामु रामु रटि भोरु किय कहइ न मरमु महीसु।।_अर्थ_राजा को रातभर नींद नहीं आती, इसका कारण जगदीश्वर ही जानें। इन्होंने  रखकर सवेरा कर लिया, परन्तु इसका भेद राजा कुछ नहीं बतलाते।




आनहु रामहि बेगि बोलाई। समाचार तब पूंछेहु आई।। चलेउ सुमंत्रु राय रुख जानी। लखी कुचालि कीन्हिं कछु रानी।।_अर्थ_ तुम जल्दी राम को बुला लाओ। तब आकर समाचार पूछ्ना। राजा का रुख जानकर सुमंत्र जी चले, समझ गये कि रानी ने कुछ कुचाल की है।




सोच बिकल मग परइ न पाउ। रामहि बोलि कहिहि का राऊ।। उर धरि धीर गयऊ दुआरे। पूछहि सकल देखि मन मारे।।_अर्थ_सुमंत सोच से व्याकुल हैं कि राम को बुलाकर क्या कहेंगे। मन में धीरज धरकर  द्वार पर गये कि मन मारे देखकर लोग क्या पूछेंगे।




समाधान करि सो सबही का। गयउ जहां दिनकरकुल टीका। राम सुमंत्रहिं आवत देखा। आदर कीन्ह पिता सम लेखा।।_अर्थ_सबका समाधान करके सुमंत्र वहां गये जहां रघुकुलतिलक श्री राम थे। राम सुमंत्र को आते देखकर उनका पिता के समान आदर किया।




निरखहिं बदनु करि भूप रजाई। रघुकुलदीपहिं चलेगी लवाई।। रामु कुभांति सचिव संग जाहीं। देखि लोग जहं तहं बिलखाहीं।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के मुख को देखकर और राजा की आज्ञा सुनाकर वे रघुकुल के दीपक श्रीरामचन्द्रजी को अपने साथ लिवा चले। श्रीरामचन्द्र जी मंत्री के साथ बुरी तरह से ( बिना किसी लवाजमे के ) जा रहे हैं, यह देखकर लोग जहां_ यहां विषाद कर रहे हैं।

Thursday, 21 October 2021

अयोध्याकाण्ड

सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ। देखि दसा दुखु दारुन भयऊ।। भूमि सयन पट मोट पुराना। दिए डारि तन भूषन नाना।।_अर्थ_राजा डरते डरते अपनी प्यारी कैकेयी के पास गये। उसकी दशा देखकर उन्हें बड़ा ही दु:ख हुआ। कैकेयी जमीन पर पड़ी है। पुराना मोटा कपड़ा पहने हुए है। शरीर के नाना आभूषणों को उतारकर फेंक दिया है।   




कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी। अनअहिवातु सूच तनु भावी।। जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी। प्रान प्रिया केहि हेतु रिसानी।।_अर्थ_उस दुर्बुद्धि कैकेयी को यह कुबेषता ( बुरा वेष ) कैसी फब रही है, मानो भावी विधवापन की सूचना दे रही हों। राजा उसके पास जाकर कोमल वाणी से बोले, ' हे प्राणप्रिय ! किसलिए रूठी हो ?’




केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई। मानहुं सरोष भुअंग भामिनि बिषम भांति निहारई।। दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई। तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई।।_अर्थ_’ हे रानी ! किसलिये रूठी हो ?’ यह कहकर राजा उसे हाथ स्पर्श करते हैं तो वह उनके हाथ को ( झटककर ) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो क्रोध में भरी हुई नागिन क्रूर दृष्टि से देख रही हो। दोनों ( वरदानों की ) वासनाएं उस नागिन की दो जीमें हैं और दोनों वरदान दांत हैं; वह काटने के लिये मर्म स्थान देख रही ‌है। तुलसीदास जी कहते हैं कि राजा दशरथ होनहार के वश में होकर इसे ( इस प्रकार हाथ झटकने और नागिन की भांति देखने को ) कामदेव की क्रीड़ा ही समझ रहे हैं।



बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचनि पिकबचनि। कारन मोहि  गजगामिनि निज कोप कर ।। _अर्थ_राजा बार बार कह रहे हैं_हे सुमुखी ! हे सुलोचनी ! हे कोकिलबयनी ! हे गजगामिनि ! मुझे अपने क्रोध का कारण तो सुना।




अनहित तोर प्रिया केइं कीन्हां। केहि दइ सिर केहि जमु चह लीन्हा ।। कहुं केहि रंकहि करौं नरेसू। कहु केहि नृपहि निकासौं देसू।।_अर्थ_ हे प्रिये ! किसने तेरा अनिष्ट किया ? किसके दो सिर हैं ? यमराज किसको लेना ( अपने लोक को ले जाना ) चाहते हैं ? कह, किस कंगाल को राजा कर दूं या किस राजा को देश से निकाल दूं।












Monday, 11 October 2021

अयोध्याकाण्ड

दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।। पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू।।_अर्थ_मंथरा ने देखा कि नगर सजाया हुआ है। सुन्दर मंगलमय बधावे बज रहे हैं। उसने लोगों से पूछा कि कैसा उत्सव है ? ( उनसे ) श्रीरामचन्द्रजी के राजतिलक की बात सुनते ही उसका हृदय जल उठा।





करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होई अकाजु कवनि बिधि राती।। देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवां तकइ केहि भांति।।_अर्थ_वह दुर्बुद्धि नीच जातिवाली दासी  विचार करने लगी किस प्रकार से यह काम रात_ही_रात में बिगड़ जाय, जैसे कोई कुटिल भीलनी शहद का छत्ता लगा देखकर घात लगाती है कि इसको किस तरह से उखाड़ लूं।





भरत मातु पहिं गई बिलखानी। का अनमनि हसि कह हंसी रानी।। ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढ़ारइ आंसू।।_अर्थ_वह उदास होकर भरतजी की माता कैकेई के पास गयी। रानी कैकेयी ने कहा_तू उदास क्यों है ? मंथरा कुछ उत्तर नहीं देती, केवल लंबी सांस ले रही है और त्रियाचरित्र करके आंसू ढ़रका रही है।





हंसि कह रानि गालु बड़ तोरे । दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें।। तबहुं न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कालि जनु सांपिनि।।_अर्थ_रानी हंसकर कहने लगी कि तेरे बड़े गाल हैं ( तू बहुत बढ़_बढ़कर बोलने वाली है )। मेरा मन कहता है कि लक्ष्मण ने तुझे कुछ सीख दी है ( दण्ड दिया है ) । तब भी महापापिनी दासी कुछ नहीं बोलती। ऐसी लम्बी सांसे छोड़ रही है मानो काली नागिन ( फुफकार छोड़ रही ) हो।





सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपाल। लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु।।_अर्थ_तब रानी ने डरकर कहा_अरी ! कहती क्यों नहीं ? श्रीरामचन्द्र, राजा, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न कुशल से तो हैं ? यह सुनकर कुबरी मंथरा के हृदय में बड़ी ही पीड़ा हुई।






कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।। रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।_अर्थ_( वह कहने लगी_) हे माई ! हमें कोई क्यों सीख देगा और मैं किसका बल पाकर गाल करूंगी ( बढ़_बढ़कर बोलूंगी ) । रामचन्द्र को छोड़कर आज और किसकी कुशल है, जिन्हें राजा युवराज पद दे रहे हैं।





भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।। देखहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।_अर्थ_आज कौशल्या को विधाता बहुत ही दाहिने ( अनुकूल ) हुए हैं; यह देखकर उनके हृदय में गर्व समाता नहीं। तुम स्वयं जाकर सब शोभा देख क्यों नहीं लेतीं, जिसे देखकर मेरे मन में क्षोभ हुआ है।





पूतु बिदेस न सोच तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।। नींद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।_अर्थ_ तुम्हारा पुत्र परदेस में है, तुम्हें कुछ सोच नहीं। जानती हो कि स्वामी हमारे वश में हैं। तुम्हें तो तोशक_पलंग पर पड़े_पड़े नींद लेना ही बहुत प्यारा लगता है, राजा की कपटभरी चतुराई तुम नहीं देखती।





सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहुं अरगानी।। पुनि अस कबहुंक कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउं तोरी।।_अर्थ_मंथरा के प्रिय वचन सुनकर किन्तु उसको मन की मैली जानकर रानी झुककर ( डांटकर ) बोली_बस, अब चुप रह घरफोड़ी कहीं की ! जो फिर कभी ऐसा कहा तो तेरी जीभ पकड़कर निकलवा दूंगी।





काने खोरे कूबरे कुटिल कुचालि जानि। तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।_अर्थ_कानों, लंगड़ों और कुबड़ों को कुटिल और कुचाली जानना चाहिये। उनमें भी स्त्री और खासकर दासी ! इतना कहकर भरत की माता कैकेयीजी मुस्करा दीं।






प्रियबादिनि सिख दीन्हिउं तोही। सपनेहुं तो पर कोप न मोही।। सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।_अर्थ_( और फिर बोलीं_) हे प्रिय वचन कहनेवाली मंथरा ! मैंने तुझको यह सीख दी है ( शिक्षा के लिये इतनी बात कही है )। मुझे तुझपर स्वप्न में भी क्रोध नहीं है। सुन्दर मंगलदायक शुभ दिन वही होगा जिस दिन तेरा कहना सत्य होगा ( अर्थात् श्रीराम का राज्यतिलक होगा )।





जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।। राम तिलक जौं सांचेहुं काली। देहु मागु मन भावत  आली।।_अर्थ_बड़ा भाई स्वामि और छोटा भाई सेवक होता है। यह सूर्यवंश की सुहावनी रीति ही है। यदि सचमुच कल ही श्रीराम का तिलक है, तो हे सखी ! तेरे मन को अच्छी लगे वहीं वस्तु मांग ले, मैं दूंगी।





कौशल्या सम सब महतारी। रामहिं सहज सुभाय पिआरी।। मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।_अर्थ_राम को सहज स्वभाव से सब माताएं कौशल्या के समान ही प्यारी हैं। मुझपर तो वे विशेष प्रेम करते हैं। मैंने उनकी प्रीति की परीक्षा करके देख ली है।





जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुं राम सिय पूत पुतोहू।। प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह के तिलक छोभु कस तोरें।।_अर्थ_यदि विधाता कृपा करके जन्म दें तो ( यह भी दें कि ) श्रीरामचन्द्र पुत्र और सीता बहू हों। श्रीराम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। उनके तिलक से ( उनके तिलक की बात सुनकर ) तुझे क्षोभ कैसा ?





भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ। हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।_अर्थ_तुझे भरत की सौगंध है, छल_कपट छोड़कर सच_सच कह। तू हर्ष के समय विषाद कर रही है, इसका कारण सुना।





एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ करि दूजी।। फोरै जोगु कपारु अभागा। भलेउ कहत दुख रौरेहु लागा।।_अर्थ_( मन्थरा ने कहा_) सारी आशाएं तो एक ही बार कहने में पूरी हो गयी। अब तो दूसरी जीभ लगाकर कुछ कहूंगी। मेरा अभागा कपाल तो फोड़ने के ही योग्य है, जो अच्छी बात कहने पर भी आपको दु:ख होता है।





कहहिं झूठि फुरि बात बनाई। ये तुम्हहि करुइ मैं माई।। हमहुं कहबि अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिन राती।।_अर्थ_जो झूठी सच्ची बातें बनाकर कहते हैं, हे माई ! वे ही तुम्हें प्रिय हैं और और मैं कड़वी लगती हूं ! अब मैं भी ठकुरसुहाती ( मुंहदेखी ) कहा करूंगी। नहीं तो दिन रात चुप रहूंगी।





करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनि लहिअ जो दीन्हा।। कोऊ नृप होउ हमहि का हानी। चेरि छाड़ि अब होब कि रानी।।_अर्थ_विधाता ने कुरूप बनाकर मुझे परबस कर दिया ! ( दूसरे को क्या दोष ) जो बोया सो काटती हूं, दिया सो पाती हूं। कोई भी राजा हो, हमारी क्या हानि है ? दासी छोड़कर क्या अब मैं रानी होउंगी ! ( अर्थात् रानी तो होने से रही )।





जारै जोगु सुभाउ हमारा। अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।। तातें कछुक बात अनुसारी। छमिअ देबि बड़ि चूक हमारी।।_अर्थ_हमारा स्वभाव तो जलाने ही योग्य है। क्योंकि तुम्हारा अहित मुझसे देखा नहीं जाता। इसीलिये कुछ बात चलायी थी। किन्तु हे देवी ! हमारी बड़ी भूल हुई, क्षमा करो।





गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानी। सुरमायाबस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि।।_अर्थ_आधाररहित ( अस्थिर ) बुद्धि की स्त्री और देवताओं की माया के वश में होने के कारण रहस्ययुक्त कपटभरे प्रियभरे वचनों को सुनकर रानी कैकेयी ने दासी मंथरा को अपनी सुहृद ( अहैतुक हित करनेवाली ) जानकर उसका विश्वास कर लिया।





सादर पुनि पुनि पूंछति ओही। सबरी गान मृगी जनु मोही।। तसि मति फिरि अहइ जब भाबी। रहसि चेरि घात जनु फाबी।।_अर्थ_बार_बार रानी उससे आदर के साथ पूछ रही है, मानो भीलनी के गान से हिरनी मोहित हो गयी हो। जैसी भावी ( होनहार ) है, वैसी ही बुद्धि भी फिर गयी। दासी अपना दांव लगा जानकर हर्षित हुई।





तुम्ह पूछहु मैं कहत डेराउं। धरेहु मोर घरफोरी नाउं।। सजि प्रतीति बहुविधि गढ़ि छोली। अवध साढ़साती तब बोली।।_अर्थ_तुम पूछती हो, किन्तु मैं कहते डरती हूं।  तुमने पहले ही मेरा नाम घरफोरी रख दिया है। इस तरह बहुत छल से पूर्ण मनगढ़ंत बात कहकर रानी को अपने वश में करके अयोध्या की साढ़ेसाती बोली_






प्रिय सिय राम कहा तुम्ह रानी। रामहि तुम्ह सो फुरि बानी।। रहा प्रथम अब ये दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते।।_अर्थ_हे रानी ! तुमने जो कहा कि मुझे सीता_राम प्रिय हैं और राम को तुम प्रिय हो, सो यह बात सच्ची है। परन्तु यह बात पहले थी, वे दिन अब बीत गये। समय फिर जाने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं।





भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।। जरि तुम्हारि चह सवति उखारी। रूंधेहु करि उपाउ बर बारी।।_अर्थ_सूर्य कमल के कुल का पालन करनेवाला है, पर बिना जल के वहीं सूर्य उनको ( कमलों को ) जलाकर भस्म कर देता है। सौत कौसल्या तुम्हारी जड़ उखाड़ना चाहती है। अतः उपायरूपी श्रेष्ठ बाड़ ( घेरा ) लगाकर उसे रूंध दो ( सुरक्षित कर दो )।





तुम्हहि न सोच सोहाग बल निज बस जानहु राउ। मन मलीन मुंह मीठ नृपु राउर सरल सुभाउ।।_अर्थ_तुमको अपने सुहाग के ( झूठे ) विश्वास पर कुछ भी सोच नहीं है; राजा को अपने वश में जानती हो। किन्तु राजा मन के मैले और मुंह के मीठे हैं ! और आपका सीधा स्वभाव है।





चतुर गंभीर राम महतारी। बीचु पाई निज बात संवारी।। सौत तुम्हार कौसिलहिं माई। कपट चतुर नहिं होई जनाई।।_अर्थ_( कौसल्या समझती है कि ) और सब सौतें तो मेरी अच्छी तरह सेवा करती हैं, एक भरत की मां पति के बल पर गर्वित रहती हैं ! इसी से हे माई ! कोसल्या को तुम बहुत साल ( खटक ) रही हो। किन्तु वह कपट करने में चतुर है; अतः उसका हृदय का भाव जानने में नहीं आता ( वह उसे चतुरता से छिपाये रखती है )।





सेवहिं सकल सवति मोहि नीके। गरबित भरत मातु बल पी कें।। सालु तुम्हार कौसिलहिं माई। कपट चतुर नहिं होई जनाई।।_अर्थ_(कौशल्या समझती है कि ) और सब सौतें मेरी अच्छी तरह सेवा करती हैं, एक भरत की मां पति के बल पर गर्वित रहती है ! इसी से हे माई ! कौशल्या को तुम बहुत ही साल ( खटक ) रही हो। किन्तु वह कपट करने में चतुर है; अतः उसके हृदय का भाव जानने में नहीं आता (वह उसे चतुरता से छिपाये रहती है।





राजहि तुम पर प्रेम बिसेषी। सवति सुभाय सकइ नहिं देखी।। रचि प्रपंच भूपहिं अपनाई। राम तिलक हित लगन धराई।।_अर्थ_राजा का तुम पर विशेष प्रेम है। कौशल्या सौत के स्वभाव से उसे देख नहीं सकती। इसीलिये उसने जाल रचकर राजा को अपने वश में करके, ( भरत की अनुपस्थिति में ) राम के राजतिलक के लग्न निश्चय करा लिया।





यह कुल उचित राम कहुं टीका। सबहि सोहाइ मोहि सुठि नीका।। आगिलि बात समुझि डरु मोही। देउ दैउ फिरि सो फलु ओही।।_अर्थ_राम को तिलक हो, यह कुल ( रघुकुल ) के उचित ही है और यह बात सभी को सुहाती है;  और मुझे तो बहुत ही अच्छी लगती है। परन्तु मुझे तो आगे की बात से डर लगता है। दैव उलटकर इसका फल उसी ( कौशल्या ) को दे।





रूचि पचि कोटि कुटिलपन कीन्हेसि कपट प्रबोधु। कहिसि कथा सत सवति कै जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।।_अर्थ_इस तरह करोड़ों कुटिलपन की बातें गढ़_छोलकर मंथरा ने कैकेयी को उल्टा_सीधा समझा दिया और सैकड़ों सौतों की कहानियां इस प्रकार ( बना_बनाकर ) कहीं जिस प्रकार विरोध बढे। 





भावी बस प्रतीति उर आई। पूंछ रानी पुनि सपथ देवाई।। का पूंछहु तुम्ह अबहूं न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।।_अर्थ_होनहारवश कैकेयी के मन में विश्वास हो गया। रानी फिर सौगंध दिलाकर पूछने लगी। ( मन्थरा बोली_) क्या पूछती हो ? अरे तुमने अब भी नहीं समझा ? अपने भले_बुरे को ( अथवा मित्र शत्रु को ) तो पशु भी पहचान लेते हैं।





भयउ पाखु दिन सजत समाजू। तुम्ह पाई सुधि मोहि सन आजू।। खाइअ पहिरिअ राज तुम्हारे। सत्य कहें नहिं दोषु हमारे।।_अर्थ_पूरा पखवाड़ा बीत गया सामान सजते और तुमने खबर पायी है आज मुझसे।  मैं तुम्हारे राज्य में खाती पहनती हूं, इसलिेए सच कहने में मुझे कोई दोष नहीं है।





जौं असत्य कछु कहब बनाई। तौं बिधि देइहि हमहि सजाई।। रामहिं तिलक कालि जौं भयऊ। तुम्ह कहुं बिपति बीजु बिधि बयऊ।।_अर्थ_यदि मैं कुछ बनाकर झूठ कहती होऊंगी तो विधाता मुझे दंड देगा। यदि कल राम को राजतिलक हो गया ( समझ रखना कि ) तुम्हारे लिये विधाता ने विपत्ति का बीज बो दिया।





रेख खंचाइ कहउं बलु भाषी। भामिनि भयहु दूध कई माखी।। जौं सुत सहित करहु सेवकाई। तौं घर रहहु न आन उपाई।।_अर्थ_मैं यह बात लकीर खींचकर बलपूर्वक कहती हूं, हे भामिनी ! तुम तो अब दूध की मक्खी हो गयी ! ( जैसे दूध में पड़ी हुई मक्खी को लोग निकालकर फेंक देते हैं, वैसे ही तुम्हें भी लोग घर से निकाल बाहर करेंगे ) यदि पुत्र सहित ( कौशल्या की ) चाकरी बजाओगी तो घर में रह सकोगी; ( अन्यथा घर में रहने का ) दूसरा उपाय नहीं।





कद्रूं बिनतहिं दीन्ह दुखु तुम्हहिं कौसिलां देब। भरतु बंदिगृह सेइहहिं लखनु राम के नेब।।_अर्थ_कद्रू ने बिनता को दु:ख दिया था, तुम्हें कौशल्या देगी। भरत कारागार का सेवन करेंगे ( जेल की हवा खायेंगे ) और लक्ष्मण राम के नायाब ( सहकारी ) होंगे।





कैकयसुता सुनत कटु बानी। कहि न सकइ कछु सहमि सुखानी।। तन पसेउ कदली जिमि कांपी। कुबरी दसन जीभ तब चांपी।।_अर्थ_कैकेयी मंथरा की कड़वी बाणी सुनते ही डरकर सूख गयी, कुछ बोल नहीं सकती। शरीर में पसीना हो आया और वह केले के तरह कांपने लगी। तब कुबरी ( मंथरा ) ने अपनी जीभ दांतों तले दबायी ( उसे भय कि कहीं भविष्य का अत्यन्त डरावना चित्र सुनकर कैकेयी की हृदय की गति न रुक जाय; जिससे उलटा सारा काम ही बिगड़ जाय )।






कहि कहि कोटि कपट कहानी। धीरजु धरहु प्रबोधिसि रानी।। फिरा करमु प्रिय लागि कुचाली। बकिहि सराहइ मानि मराली।।_अर्थ_फिर कपट की करोड़ों कहानियां कह_कहकर उसने रानी को खूब समझाया कि धीरज रखो ! कैकेयी का भाग्य पलट गया, उसे कुचाल प्यारी लगी। वह बगुली को हंसिनी बनाकर ( वैरिन को हित मानकर ) उसकी सराहना करने लगी।





सुनु मंथरा बात फुरि तोरी। दाहिनि आंख नित फरकइ मोरी।। दिन प्रति देखउं राति कुसपने। कहउं न तोहि मोह बस अपने।।_अर्थ_कैकेयी ने कहा_मन्थरा सुन, तेरी बात सत्य है। मेरी दाहिनी आंख नित्य फड़का करती है। मैं प्रतिदिन रात को बुरे स्वप्न देखती हूं; किन्तु अपने अज्ञानवश तुझसे कहती नहीं।





काह करौं सखी सूध सुभाऊ। दाहिन बाम न जानउं काऊ।।_अर्थ_सखी ! क्या करूं, मेरा तो सीधा स्वभाव है। मैं दायां_बायां कुछ नहीं जानती।





अपनें चलत न आजु लगि अनभल काहुक कीन्ह। केहिं अघ एकहि बार मोहि दैअं दुसह दुखु दीन्ह।।_अर्थ_अपनी चलते ( जहां तक मेरा वश चला ) मैंने आज तक कभी किसी का बुरा नहीं किया। फिर न जाने किस पाप से दैव ने एक ही साथ मुझे दु:सह दु:ख दिया।





नैहर जनमु भरब बरु जाई। जिअत न करबि सवति सेवकाई।। अरि बस दैव जिआवत जाही। मरनु नीक तेहि जीवन चाही।।_अर्थ_मैं भले ही नैहर जाकर वहीं जीवन बिता दूंगी; पर जीते जी सौत की चाकरी नहीं करूंगी। दैव जिसको शत्रु के वश में रखकर जिलाता है, उसके लिये तो जीने के अपेक्षा मरना ही अच्छा है।





दीन बचन कह बहुबिधि रानी। सुनि कुबरीं तियमाया ठानी।। अब कस कहहु मानि मन ऊना। सुखु सोहागु तुम्ह कहुं दिन दूना।।_अर्थ_रानी ने बहुत प्रकार के दिन बचन कहे। उन्हें सुनकर कुबरी ने त्रियाचरित्र फैलाया। ( वह बोली_) तुम मन में ग्लानि मानकर ऐसा क्यों कह रही हो, तुम्हारा सुख_सुहाग दिन_दिन दूना होगा।





जेहिं राहुर अति अनभल ताका। सोइ पाइहि यहु फलु परिपाका।। जब ते कुमत सुना मैं स्वामिनि। भूख न बासर नींद न जामिनि।।_अर्थ_जिसने तुम्हारी बुराई चाही है, वही परिणाम में यह ( बुराईरूप ) फल पायेगी। हे स्वामिनी ! मैंने जबसे यह कुमत सुना है, तबसे मुझे न तो दिन में भूख लगती है और न रात में नींद ही आती है।






पूंछेउं गुनिन्ह रेख तिन्ह खांची। भरत भुआल होहिं यह सांची।। भामिनि करहु तो कहौं उपाऊ। हैं तुम्हारी सेवा बस राऊ।।_अर्थ_मैंने ज्योतिषियों से पूछा, तो उन्होंने रेखा खींच कर ( गणित करके अथवा निश्चयपूर्वक )  कहा कि भरत राजा होंगे, यह सत्य बात है। सो हे भामिनि ! तुम करो, तो उपाय मैं बताऊं। राजा तुम्हारे सेवा के वश में हैं ही।





परउं कूप तुअ बचन पर सकउं पूत पति त्यागि। कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि।।_अर्थ_( कैकेयी ने कहा_)मैं तेरे कहने से कुएं में गिर सकती हूं, पुत्र और पति को भी छोड़ सकती हूं। जब तू मेरा बड़ा भारी दु:ख देखकर कुछ कहती हैं तो भला मैं अपने हित के लिये उसे क्यों न करूंगी ?





कुबरीं करि कबुली कैकेई। कपट छुरी उर पाहन टेई।। लखइ न रानि निकट दुखु कैसें। चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें।।_अर्थ_कुबरी ने कैकेयी को ( सब तरह से ) कबूल करवाकर ( अर्थात् बलिपशु बनाकर ) कपटरूप छुरी को अपने  ( कठोर ) हृदयरूपी पत्थर पर टेया ( उसकी धार को तेज किया )। रानी कैकेयी अपने निकट के ( शीघ्र आनेवाले ) दु:ख को कैसे नहीं देखती जैसे बलि का पशु हरी_हरी घास चलता है ( पर यह नहीं जानता कि मौत सिर पर नाच रही है।





सुनत बात मृदु अंत कठोरी। देखि मनहुं मधु माहुरी घोरी।। कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाहीं। स्वामिनी कहिहु कथा मोहि पाहीं।।_अर्थ_मन्थरा की बातें सुनने में तो कोमल हैं, पर परिणाम में कठोर ( भयानक ) हैं। मानो वह शहद में घोलकर जहर पिला रही हो। दासी कहती है_हे स्वामिनी ! तुमने मुझको एक कथा कही थी,  उसकी याद है कि नहीं ?






दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुरावहु छाती।। सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासू।_अर्थ_तुम्हारे दो वरदान राजा के पास धरोहर हैं। आज उन्हें राजा से मांगकर अपनी छाती ठंडी करो। पुत्र को राज्य और राम को वनवास दो और सौत का सारा आनन्द तुम ले लो।





भूपति राम सपथ जब करई। तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई।। होई अकाजु आजु निसि बीतें। बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें।।_अर्थ_जब राजा राम की सौगंध खा लें, तब वर मांगना, जिससे वचन न टलने पावे। आज की रात बीत गयी, तो काम बिगड़ जायगा। मेरी बात को हृदय से प्रिय ( प्राणों से भी प्यारी ) समझना।





बड़ कुघात करि पातकिनि कहेसि कोपगृह जाहु। काजु  संवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु।।_अर्थ_पापिनी मंथरा ने बड़ी बुरी घात लगाकर कहा_कोपभवन में जाओ। सब काम बड़ी सावधानी से बनाना, राजा पर सहसा विश्वास न कर लेना ( उनकी बातों में न आ जाना )।




कुबरिहि रानी प्राणप्रिय जानी। बार बार बड़ि बुद्धि बखानी।। तोहि सम हित न मोर संसारा। बहे जात कर भइसि अधारा।।_अर्थ_कुबरी को रानी प्राणों के समान प्रिय समझकर बार_बार उसकी बुद्धि का बखान किया और बोली_संसार में मेरा तेरे समान हितकारी और कोई नहीं है। तू मुझ बही जाती हुई के लिये सहारा हुई है।





जौं बिधि पुरब मनोरथ काली। करौं तोहि चख पुतरि आली।। बहुबिधि चेरिहि आदरु देई। कोपभवन गवनी कैकेई।।_अर्थ_यदि विधाता कल मेरा मनोरथ पूरा कर दें तो हे सखी ! मैं तुझे आंखों की पुतली बना लूं। इस प्रकार दासी को बहुत तरह से आदर देकर कैकेयी कोपभवन में चली गयी।





बिपति बीजु बरषा रितु चेरी। भुईं भई कुमति कैकेई केरी।। पाइ कपट जल अंकुर जामा। बर दोउ दल दुख फल परिनामा।।_अर्थ_विपत्ति ( कलह ) बीज है, दासी बर्षा_ऋतु है, कैकेयी की कुबुद्धि ( उस बीज के बोने के लिये ) जमीन हो गयी। उसमें कपटरूपी जल पाकर अंकुर फूट निकला। दोनों वरदान उस अंकुर के दो पत्ते हैं और अंत में इसके दुख रूपी फल होगा।





कोप समाजु साजि सबु सोई। राजु करत निज कुमति बिगोई।। राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचालि कछु जान न कोई।।_अर्थ_कैकेयी कोप का सब साज सजकर ( कोपभवन में जा सोयी। राज्य करती हुई वह अपनी दुष्ट बुद्धि से नष्ट हो गयी। राजमहल और नगर में धूमधाम मच रही है। इस कुचाल को कोई कुछ नहीं जानता।





प्रमुदित पुर नर नारि सब सजहिं मंगलचार। एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार।।_अर्थ_बड़े ही आनन्दित होकर नगर के सब स्त्री-पुरुष शुभ मंगलाचार के साज सज रहे हैं। कोई भीतर जाता है कोई बाहर निकलता है; राजद्वार में बड़ी भीड़ हो रही है।





बालसखा सुनि हिय हरषाहीं। मिलि दस पांच राम पहिं ‌जाहीं।। प्रभु आदरहिं प्रेम पहिचानी। पूछहिं कुसल खेम मृदु बानी।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के बाल सखा राजतिलक का समाचार सुनकर हृदय में हर्षित होते हैं। वे दस पांच मिलकर श्रीरामचन्द्र जी के पास जाते हैं। प्रेम पहचानकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी उनका आदर करते हैं और कोमल वाणी से कुशल_क्षेम पूछते हैं।





फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई। करत परस्पर राम बड़ाई।। को रघुबीर सरिस संसारा। सीलु सनेह निबाहनिहारा।।_अर्थ_अपने प्रिय सखा श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा पाकर वे आपस में एक_दूसरे से श्रीरामचन्द्र जी की बड़ाई करते हुए घर लौटते हैं और कहते हैं_संसार में श्रीरघुनाथजी के समान शील और स्नेह को निबाहनेवाला कौन है ? 





जेहिं जेहिं जोनि करम बस भ्रमहीं। तहं तहं ईसु देउ यह हमहीं।। सेवक हम स्वामी सियनाहू। होउ नात यह ओर निबाहू।।_अर्थ_भगवान् हमें यही दें कि हम अपने कर्मवश भ्रमते हुए जिस जिस योनि में जन्में वहां_वहां ( उस उस, योनि में ) हम तो सेवक हों और सीतापति श्रीरामचन्द्र जी हमारे स्वामी हों और यह नाता अंत तक निभ जाय।





अस अभिलाषु नगर सब काहू। कैकयसुता हृदयं अति दाहू।। को न कुसंगति पाइ नसाई। रहइ न नीच मतें चतुराई।।_अर्थ_नगर में सबकी ही ऐसी अभिलाषा है। परन्तु कैकेयी के हृदय में बड़ी जलन हो रही है। कुसंगति पाकर कौन नष्ट नहीं होता। नीच के मत के अनुसार चलने से चतुराई नहीं रह जाती।





सांझ समय सानंद नृपु गयी कैकेई गेहं। गवनु निठुरता निकट किय तनु धरि देह सनेहं।।_अर्थ_सन्ध्या के समय राजा दशरथ आनंद के साथ कैकेयी के महल में गये। मानो साक्षात् स्नेह ही शरीर धारण कर निष्ठुरता के पास गया हो।





कोपभवन सुनि सकुचेउ राऊ। भय बस अगहुड़ परन पाऊ।। सुरपति बसा बाहुबल जाकें। नरपति रहहिं सकल रुख ताकें।।_अर्थ_कोपभवन का नाम सुनकर राजा सहम गये। डर के मारे उनका पांव आगे को नहीं पड़ता। स्वयं देवराज इन्द्र जिनकी भुजाओं के बल पर ( राक्षसों से निर्भय होकर ) बसता है और संपूर्ण राजा लोग जिनका रुख देखते रहते हैं,





सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई। देखहु काम प्रताप बड़ाई।। सूल कुलिस अति अंगवनिहारे। ते रतिनाथ सुमन सर मारे।।_अर्थ_वही राजा दशरथ स्त्री का क्रोध सुनकर सूख गये। कामदेव का प्रताप और महिमा तो देखिये। जो त्रिशूल, वज्र और तलवार आदि का चोट अपने अंगों पर सहनेवाले हैं, वे रतिनाथ कामदेव के पुष्प बाण से मारे गये।

Thursday, 12 August 2021

अयोध्याकाण्ड

नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।। त्रिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरिभाग दशरथ सब नाहीं।।_अर्थ_सब राजा उनकी कृपा चाहते हैं और लोकपालगण उनके रुख को रखते हुए ( अनुकूल होकर ) प्रीति करते हैं। ( पृथ्वी, आकाश और पाताल ) तीनों भुवनों में और ( भूत, भविष्य, वर्तमान ) तीनों कालों में दशरथजी के समान बड़भागी और कोई नहीं है।





मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिए थोर सबु तासू।। राय सुभायं मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा ।।_अर्थ_मंगलों के मूल श्रीरामचन्द्रजी जिनके पुत्र हैं, उनके लिये जो कुछ कहा जाय सब थोड़ा है। राजा ने  स्वाभाविक ही हाथ में दर्पण ले लिया और उसमें अपना मुंह देखकर मुकुट को सीधा किया।





श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुं जरठपन अस उपदेसा।। नृप जुबराजु राम कहुं देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।_अर्थ_( देखा कि ) कानों के पास बाल सफेद हो गये हैं, मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है कि हे राजन् ! श्रीरामचन्द्रजी को युवराज_पद लेकर अपने जीवन और जन्म  का लाभ क्यों नहीं लेते।





यह बिचारि उर आनि नृप। सुदिनु सुअवसरु पाइ। प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ।।_अर्थ_हृदय में यह विचार लाकर ( युवराज पद देने का निश्चय कर ) राजा दशरथजी ने शुभ दिन और सुन्दर समय पाकर, प्रेम से पुलकित शरीर हो आनन्द मग्न मन से उसे गुरु वसिष्ठ जी को जा सुनाया।





कहइ भुआल सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक।। सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमरे अरि मित्र उदासी।।_अर्थ_राजा ने कहा_ हे मुनिराज ! ( कृपया यह निवेदन ) सुनिये। श्रीरामचन्द्र अब सब प्रकार से योग्य हो और गये हैं। सेवक, मंत्री, सब नगरवासी और जो हमारे शत्रु, मित्र हैं__





सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस तनु धनु धरि सोही।। बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाईं।।_अर्थ_सभी को श्रीरामचन्द्र वैसे ही प्रिय हैं जैसे वे मुझको हैं। ( उनके रूप में ) आपका आशीर्वाद ही मानो शरीर धारण करके शोभित हो रहा है। हे स्वामी ! सारे ब्राह्मण परिवार सहित आपके ही समान उनपर स्नेह करते हैं।





जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।। मोहि  यह अनुभयउ न दूजें। सबु पायउं रज पावनि पूजें।।_अर्थ_जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सबकुछ पा लिया।





अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरें।। मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।_अर्थ_अब मेरे मन में एक ही अभिलाषा है। हे नाथ ! वह भी आपके  अनुग्रह से पूरी होगी। राजा का सहज प्रेम देखकर मुनि ने प्रसन्न होकर कहा_नरेश ! आज्ञा दीजिये ( कहिये क्या अभिलाषा है ? )। 





राजन राउर नाम जसु सब अभिमत दातार। फल अनुगामी महीप मनि मन अभिलाषु तुम्हार।।_अर्थ_हे राजन् ! आपका नाम और यश ही संपूर्ण मनचाही वस्तुओं को देनेवाला है। हे राजाओं के मुकुटमणि ! आपके मन की अभिलाषा फल का अनुगमन करती है ( अर्थात् आपकी इच्छा करने के पहले ही फल उत्पन्न हो जाता है।





अब बिधि गुरु प्रसन्न जिय जानी। बोलेउ राउ रहंसि मृदु बानी।। नाथ राम करिअहिं जुबराजू। कहिए कृपा करि करिय समाजू।।_अर्थ_गुरु को प्रसन्न देखकर राजा ने मीठी वाणी से कहा कि वे श्रीरामचन्द्र जी को युवराज बनाना चाहते हैं।





मोहि अछत यह होहु उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू।। प्रभु प्रसाद सिव सबहिं निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं।।_अर्थ_मेरे जीते_जी यह आनन्द उत्सव हो जाय, ( जिससे ) सब लोग अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करें। प्रभु ( आप )_के प्रसाद से शिवजी ने सबकुछ निबाह दिया ( सब इच्छाएं पूर्ण कर दीं ), केवल यही एक लालसा मनमें रह गयीं हैं।





पुनि न सोच तन रहउ कि जाऊ। जेहि न होई पाछे पछिताऊ।। सुनि मुनि दशरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए।।_अर्थ_इस ( लालसा के पूर्ण हो जाने पर ) फिर सोच नहीं, शरीर रहे या चला जाय, जिससे मुझे पीछे पछतावा न हो। दशरथजी के मंगल और आनंद के मूल सुन्दर वचन सुनकर मुनि मन में बहुत प्रसन्न हुए।





सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं।। भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।_अर्थ_( बसिष्ठजी ने कहा_ ) हे राजन् ! सुनिये, जिनसे बिमुख होकर लोग पछताते हैं और जिनके भजन बिना जी की जलन नहीं जाती, वहीं स्वामी ( सर्वलोकमहेश्वर ) श्रीरामजी आपके पुत्र हुए हैं, जो पवित्र प्रेम के अनुगामी हैं। ( श्रीरामजी पवित्र प्रेम के पीछे_पीछे चलनेवाले हैं।





बेगि बिलंबु न करिअ नृप  साजिय सबुइ समाजु। सुदिन सुमंगल तबहिं जब राम होहिं जुबराजु।।_अर्थ_हे राजन् ! अब देर न कीजिये, शीघ्र सब सामान सजाइये। शुभ दिन और सुन्दर मंगल तभी है जब श्रीरामचन्द्र जी युवराज हो  ( अर्थात् उनके अभिषेक के लिये शुभ और मंगलमय है।





मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए। कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए।।_अर्थ_राजा आनन्दित होकर महल में आये और उन्होंने सेवकों तथा मंत्री सुमंत्र को बुलवाया। उन लोगों ने ' जय जीव’ कहकर सिर नवाये। तब राजा ने सुन्दर मंगलमय वचन ( श्रीरामजी को युवराज पद देने का प्रस्ताव ) सुनाये।





जौं पाचहुं मत लागै नीका। करहुं हरषि हियं रामहि टीका।।_अर्थ_( और कहा_ ) यदि पंचों को ( आप सबको ) यह मत अच्छा लगे, तो हृदय में हर्षित होकर आपलोग श्रीरामचन्द्र का राजतिलक कीजिये।





मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवं परेउ जनु पानी।। बिनती सचिव करहिं कर जोरी। जिअहु जगतपति सरिस करोरी।।_अर्थ_इस प्रिय वाणी को सुनते मंत्री ऐसे आनंदित हुए मानो उनके मनोरथरूपी पौधे पर पानी पड़ गया हो। मंत्री हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि हे जगत्पति ! आप करोड़ों वर्ष जियें।





जग मंगल भव काजु बिचारा। बेगि नाथ न लाइअ बारा।। नृपहिं मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ तनु लही सुसाखा।।_अर्थ_आपने जगत् भर का मंगल करने वाला भला काम सोचा है। हे नाथ ! शीघ्रता कीजिये, देर नहीं लगाइये। मंत्रियों की सुन्दर वाणी सुनकर राजा को ऐसा आनंद हुआ मानो बढ़ती हुई बेल सुन्दर डाली का सहारा पा गयी हो ।





कहेउ भूप मुनि राज कर जोइ जोइ आयसु होई। राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ।।_अर्थ_राजा ने कहा_श्रीरामचन्द्र के राज्याभिषेक के लिये मुनिराज वशिष्ठ जी की जो_जो आज्ञा हो, आपलोग वहीं सब तुरंत करें।





हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।। औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना।।_अर्थ_मुनिराज ने हर तीर्थ का पानी, फल, मूल, फूल और अनगिनत प्रकार के मंगल सामग्री एकत्रित करने कहा।





चामर चरम बसन बहु भांति। रोम पाट पट अगनित जाती।। मनि गन मंगल बस्तु समेता। जो जग जोगु भूप अभिषेका।।_अर्थ_चंवर, मृगचर्म, बहुत प्रकार के वस्त्र, असंख्यों जातियों के ऊनी और रेशमी कपड़े, ( नाना प्रकार की ) मणियां ( रत्न ) तथा और भी बहुत_सी मंगल वस्तुएं, जो जगत् में राज्याभिषेक  योग्य होती हैं ( सबको मंगाने की उन्होंने आज्ञा दी।





बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना।। सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुं फेरा।।_अर्थ_मुनि ने वेदों में कहा हुआ सब विधान बताकर कहा_नगर में बहुत_से मण्डप (चंदोवे ) सजाओ। फलों समेत आम, सुपारी और केले के वृक्ष नगर की गलियों में चारों ओर रोप दो।





रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू।। पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा।।_अर्थ_सुन्दर मणि के मनोहर चौकें पुरवाओ और बाजार को तुरन्त सजाने के लिये कह दो। श्रीगणेशजी, गुरु और कुलदेवता की पूजा करो और भूदेव ब्राह्मणों की सब प्रकार से सेवा करो।





ध्वज पताक तोरन कलश सजहु तुरग रथ नाग। सिर धरि  गुर बचन सब निज निज काजहिं लाग।।_अर्थ_ध्वजा, पताका, तोरण, कलश, घोड़े, हाथी और रथ सबको सजाओ। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी के वचनों को शिरोधार्य करके सबलोग अपने अपने काम में लग गये।





जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहि काजु प्रथम जनु कीन्हा।। बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करन राम हित मंगल काजा।‌_अर्थ_मुनीश्वर ने जिसको जिस काम के लिये आज्ञा दी, उसने वह काम ( इतनी शीघ्रता से कर डाला कि ) मानो पहले से ही कर रखा था। राजा ब्राह्मण, साधु और देवताओं को पूज रहे हैं और श्रीरामचन्द्रजी के लिये सब मंगलकार्य कर रहे हैं।





सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा ।। राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी के शरीर में शुभ शकुन सूचित हुए। उनके सुन्दर मंगल अंग फड़कने लगे।





पुलकि सप्रेम परस्पर कहहीं।  भरत आगमनु सूचक अहहीं ।। भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी।।_ अर्थ_पुलकित होकर वे दोनों प्रेमसहित एक_दूसरे को कहते हैं कि ये सब शकुन भरत के आने की सूचना देने वाले हैं। ( उनको मामा के घर गये बहुत दिन हो गये; बहुत ही अवसेर आ रही है ( बार बार उनसे मिलने की मन में आती है ) शकुनों से प्रिय ( भरत )_के मिलने का विश्वास होता है।





भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फल दूसर नाहीं।। रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ हृदउ जेहि भांति।।_अर्थ_और भरत के समान जगत् में ( हमें ) कौन प्यारा है ! शकुन का बस यही फल है, दूसरा नहीं। श्रीरामचन्द्रजी को ( अपने ) भाई भरत का दिन_रात ऐसा सोच रहता है जैसा कछुए का हृदय अंडों में रहता है।





एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहंसेउ रनिवासु। सोभत लखि बिनु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु।।_अर्थ_इसी समय यह परम मंगल समाचार सुनकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। जैसे चन्द्रमा को बढ़ते देखकर समुद्र में लहरों का विलास ( आनंद ) सुशोभित होता है।





प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।। प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं।। मंगल कलस सजन सब लागीं।।_अर्थ_सबसे पहले ( रनिवास में ) जाकर जिन्होंने ये वचन ( समाचार ) सुनाये, उन्होंने बहुत से आभूषण और वस्त्र पाये। रानियों का शरीर प्रेम से पुलकित हो उठा और मन प्रेम में मग्न हो गया। वे सब मंगलकलश सजाने लगीं।





चौकें चारु सुमित्रां पूरी। मनिमय बिबिध भांति अति रूरी।। आनंद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हंकारी।।_अर्थ_सुमित्राजी ने मणियों ( रत्नों ) के बहुत प्रकार के अत्यन्त सुन्दर और मनोहर चौक पूरे। आनन्द में मगन हुई श्रीरामचन्द्रजी की माता कौशल्याजी ने ब्राह्मणों को बुलाकर बहुत दान दिए।





पूजीं ग्रामदेवी सुर नागा। कहेउ बहोरि देहु बलिभागा।। जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू।।_अर्थ_उन्होंने ग्रामदेवी, देवताओं और नागों की पूजा की और फिर बलि भेंट देने को कहा ( अर्थात् कार्य सिद्ध होने पर फिर पूजा करने की मनौती मानी ); और प्रार्थना की कि जिस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी का कल्याण हो, दया करके वहीं वरदान दो।





गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं।।_अर्थ_ कोमल की_सी मीठी वाणी वाली और हिरण के बच्चे के से नेत्रोंवाली स्त्रियां मंगलगान करने लगीं।





राम राज अभिषेक सुनि हियं हरसे नर नारि। लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का राज्याभिषेक सुनकर सभी स्त्री_पुरुष हृदय में हर्षित हो उठे और विधाता को अपने अनुकूल समझकर सब सुन्दर मंगल साजा सजाने लगे।





तब नरनाहं बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए।। गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आई पद नायउ माथा।।_अर्थ_तब राजा ने बसिष्ठजी को बुलाया और शिक्षा ( समयोचित उपदेश ) देने के लिये श्रीरामचन्द्र जी के महल में भेजा। गुरु का आगमन सुनते ही श्रीरघुनाथजी ने दरवाजे पर आकर उनके चरणों में मस्तक नवाया।





सादर अरघ देइ घर आने। सोलह भांति पूजि सनमाने।। गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।_अर्थ_आदरपूरवक अर्ध्य देकर उन्हें घर में लाते और षोडशोपचार से पूजा करके उनका सम्मान किया। फिर सीताजीसहित उनके चरण स्पर्श किये और कमल के समान दोनों हाथों को जोड़कर श्रीरामजी बोले_‌





सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।। तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती।। पठइय काज नाथ असि नीती।।_अर्थ_ यद्यपि सेवक के घर स्वामि का पधारना मंगलों का मूल और अमंगलों का नाश करनेवाला होता है, तथापि से नाथ, उचित तो यही था कि प्रेम पूर्वक दास को ही कार्य के लिये बुला भेजते; ऐसी ही नीति है।





प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यह गेहू।। आयसु होई हो करौं गोसाईं। सेवकु रही स्वामि सेवकाई।।_अर्थ_परन्तु प्रभु ( आप )_ने प्रभुता छोड़ कर स्वयं यहां पधारकर जो स्नेह किया, उससे आज यह घर पवित्र हो गया। हे गोसाईं ! ( अब ) जो आज्ञा हो, मैं वहीं करूं। स्वामी की सेवा में ही सेवक का लाभ है।





सुनि स्नेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस। राम कह न तुम कहहु अस हंस बंस अवतंस।।_अर्थ_( श्रीरामचन्द्रजी ) प्रेम में सने हुए बचनों को सुनकर मुनि बसिष्ठजी ने श्री रघुनाथ जी की प्रशंसा करते हुए कहा कि हे राम ! भला, आप ऐसा क्यों न कहें। आप सूर्यवंश के भूषण जो हैं। 






बरनि राम गुन सील सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकित मुनिराऊ।। भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहिं जुबराजू।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के गुण, शील और स्वभाव का बखान कर, मुनिराज प्रेम से पुलकित होकर बोले_( हे श्रीरामचन्द्रजी ! ) राजा ( दशरथजी )_ ने राज्याभिषेक की तैयारी की है। वे आपको युवराज_पद देना चाहते हैं।





राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू।। गुरु सिख देइ राय पहिं गयऊ। राम हृदयं अस बिसमउ भयऊ।।_अर्थ_( इसलिेये ) हे रामजी ! आज आप ( उपवास, हवन आदि विधिपूर्वक ) सब संयम कीजिये, जिससे विधाता कुशलपूर्वक इस काम को निबाह दें ( सफल कर दें ) । गुरुजी शिक्षा देकर दशरथजी के पास चले गये। श्रीरामचन्द्रजी के हृदय में ( यह सुनकर ) इस बात का खेल हुआ कि_





जन्मे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।। करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा।।_अर्थ_हम सब भाई एक ही साथ जन्मे; खाना, सोना, लड़कपन के खेलकूद, कनछेदन यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव सब साथ_साथ ही हुए।





बिमल बंस यह अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।। प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरेउ भगत मन कै कुटिलाई।।_अर्थ_पर इस निर्मल वंश में यही एक अनुचित बात हो रही है कि और सब भाइयों को छोड़कर राज्याभिषेक एक बड़े का ही ( मेरा ही ) होता है। ( तुलसीदास जी कहते हैं कि ) प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का यह सुन्दर प्रेमपूर्ण पछतावा भक्तों के मन की कुटिलता को हरण करे।





तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद। सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चन्द।।_अर्थ_उसी समय प्रेम और आनन्द में मग्न लक्ष्मण जी आये। रघुकुलरूपी कुमुद के खिलानेवाले चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर उनका सम्मान किया।





बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना।। भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुं बेगि नयन फलु  पावहिं।।_अर्थ_बहुत प्रकार के बाजे बज रहे हैं। नगर के अतिशय आनंद का वर्णन नहीं हो सकता। सबलोग भरत का आगमन मना रहे हैं और कह रहे हैं कि वे भी शीघ्र आवें और ( राज्याभिषेक का उत्सव  देखकर ) नयनों का फल प्राप्त करें।





हाट बाट घर गली अथाईं। कहहिं परस्पर लोग लोगाईं। कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहिं सिद्धि अभिलाषु हमारा।।_अर्थ_बाजार, रास्ते, घर, गली और चबूतरों पर ( जहां_तहां ) स्त्री और पुरुष आपस में यही कहते हैं कि कल वह शुभ लग्न ( मुहूर्त ) कितने समय है जब विधाता हमारी अभिलाषा पूरी करेंगे।





कनक सिंहासन सीय समेता। बैठहिं राम होइ चित चेता।। सकल कहहिं कब होइहिं काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली।।_अर्थ_जब सीताजी सहित श्रीरामचन्द्र जी सुवर्ण के सिंहासन पर विराजेंगे और हमारा मनचीता होगा ( मन:कामना पूरी होगी )। इधर तो सब कह रहे हैं कि कल कब होगा, उधर कुचक्री देवता विध्न मना रहे हैं।





तिन्हहिं सोहाइ न अवध बधावा। चोरहिं चांदिनी रात न भावा।। सादर बोलि बिनती सुर कहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं।।_अर्थ_उन्हें ( देवताओं को ) अवध के बधावे नहीं सुहाते, जैसे चोर को चांदनी रात नहीं भाती। सरस्वती जी को बुलाकर देवता विनय कर रहे हैं और बार_बार उनके पैरों को पकड़कर उनपर गिरते हैं।





बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोई आजु। रामु जाहिं बन राज तजि होई सकल सुरकाजु।।_अर्थ_ ( वे कहते हैं_) हे माता ! हमारी बड़ी विपत्ति को देखकर आज वही कीजिये जिससे श्रीरामचन्द्र जी राज त्यागकर वन को चले जायं और देवताओं का सब कार्य सिद्ध हो।
सुनि सुर बिनय खाड़ी पछिताती। भयउं सरोज बिपिन हिमराती।। देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी।।_अर्थ_देवताओं की विनती सुनकर सरस्वतजी खड़ी_खड़ी  पछता रही हैं कि ( हाय ! ) मैं कमलवन के लिये हेमन्त_ऋतु की रात हुई। उन्हें इस प्रकार पछताते देखकर देवता फिर विनय करके कहने लगे_हे माता ! इसमें आपको जरा भी दोष न लगेगा।





बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब नाम प्रभाऊ।। जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देशहित लागी।।_अर्थ_ श्रीरघुनाथजी विषाद और हर्ष से रहित हैं। आप तो श्रीरामजी के सब प्रभाव को जानती ही हैं। जीव अपने कर्मवश ही सुख_दु:ख का भागी होता है। अतः देवताओं के हित के लिये आप अयोध्या जाइये।





बार बार गहि चरन संकोची। चली बिचारि बिबुधमति पोची।। ऊंच निवासु नीति करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती।।_अर्थ_बार_बार चरण पकड़कर देवताओं ने सरस्वती को संकोच में डाल दिया। तब वह यह विचार कर चली कि देवताओं की बुद्धि ओछी है। इनका निवास तो ऊंचा है, पर इनकी करनी नीची है। ये दूसरे का ऐश्वर्य नहीं देख सकते।





आगिल काजु बिचारि बहोरी। करिहहिं चाह कुसल कबि मोरी।। हरषि हृदयं दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई।।_अर्थ_परन्तु आगे के काम का विचार करके ( श्रीरामजी के वन जाने से राक्षसों का वध  होगा, जिससे सारा जगत् सुखी हो जायगा ) चतुर कवि ( श्रीरामजी के वनवास के चरित्रों का वर्णन करने के लिये ) मेरी चाह ( कामना ) करेंगे। ऐसा विचार कर सरस्वतजी हृदय में हर्षित होकर दशरथजी की पुरी अयोध्या में आतीं मानो दु:सह दु:ख देनेवाली कोई ग्रहदशा आयी हो।





नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि। अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि ।।_अर्थ_मंथरा नाम की कैकयी की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं।

Wednesday, 16 June 2021

द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके। भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि ब्यालराट्।। सोऽयं भूति विभूषण: सुरवर: सर्वाधीप: सर्वदा। शर्व: सर्वगत: शिव: शशिनिभ: श्रीशंकर: पातु माम्।।_अर्थ_जिनकी गोद में हिमाचलसुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कण्ठ में हलाहल विष और वक्ष:स्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर संहारकर्ता ( या भक्तों के पापनाशक ), सर्वव्यापक, कल्यानरूप, चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण शंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।

प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्लेवनवासदु:खत:। मुखाम्बुज श्रीरघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा।।_अर्थ_रघुकुल को आनन्द देनेवाले श्रीरामचन्द्रजी के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक ( राज्याभिषेक की बात सुनकर ) न तो प्रसन्नता हुई और न वनवास के दु:ख से मलीन ही हुई, वह ( मुखकमल की छवि ) मेरे लिये सदा सुन्दर मंगलों की देनेवाली हो।

नीलाम्बुजश्यामलकोमलांगं सीतासमारोहपितवामभागम्। पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्।।_अर्थ_नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं, श्रीसीताजी जिनके वाम_भाग में विराजमान हैं और जिनके हाथों में ( क्रमशः ) अमोघ बाण और सुन्दर धनुष हैं, उन रघुवंश के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी को मैं नमस्कार करता हूं।





श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनी रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।_अर्थ_श्रीगुरुजी के चरणकमलों की रज से अपने मनरूपी दर्पण को साफ करके मैं श्री रघुनाथ जी के उस निर्मल यश का वर्णन करता हूं, जो चारों फलों को ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को ) देनेवाला है।





जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए।। भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरसहिं सुख बारी।।_अर्थ_जबसे श्रीरामचन्द्रजी विवाह करके घर आये, तबसे ( अयोध्या में ) नित नये मंगल हो रहे हैं और आनन्द के बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोकरूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्यरूपी मेघ सुखरूपी जल बरसा रहे हैं।





रिधि सिद्धि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुं आई।। मनि गन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर बहु भांति।।_अर्थ_ रिद्धि_सिद्धि और संपत्ति रूपी सुहावनी नदियां उमड़_उमड़कर अयोध्यारूपी समुद्र में आ मिलीं। नगर के स्त्री_पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं, जो सब प्रकार से अमूल्य, पवित्र और सुन्दर हैं।





कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। तनु एतनीय बिरंचि करतूती।। सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंद निहारी।।_अर्थ_नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही  है। सब नगरनिवासी श्रीरामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं।





मुदित मातु सब सखी सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली।। राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।।_अर्थ_सब माताएं और सखी_सहेलियां अपनी मनोरथरूपी बेल को फली हुई देखकर आनन्दित हैं। श्रीरामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख_सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनंदित होते हैं।





 सब के उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु। आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु।।_अर्थ_सबके हृदय में ऐसी अभिलाषा है और सब महादेवजी को मनाकर ( प्रार्थना करके ) कहते हैैं कि राजा अपने जीते_जी श्रीरामचन्द्रजी को युवराज पद दे दें।





एक समय सब सहित समाजा। राजसभां रघुराज बिराजा।। सकल सुकृति मूर्ति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिथि उछाहू।।_अर्थ_एक समय रघुकुल के राजा दशरथजी अपने सारे समाज सहित राजसभा में विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्यों की मूर्ति हैं, उन्हें श्रीरामचन्द्रजी का सुन्दर यश सुनकर अत्यन्त आनन्द हो रहा है।






बालकाण्ड

देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता।। मारग जात भयावनि भारी। केहिबिधि तात ताड़का मारी।।_अर्थ_श्रीरामजी के सांवले सुन्दर कोमल अंगों को देखकर सब माताएं प्रेम सहित  वचन कहे रही हैं_हे तात ! मार्ग में जाते हुए तुमने बड़ी सयानी ताड़का राक्षसी को किस प्रकार से मारा ?





घोर निसाचर बिकट समर गनहिं नहिं काहु। मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु।।_अर्थ_बड़े भयानक राक्षस जो बिकट योद्धा थे और जो युद्ध में किसी को कुछ नहीं गिनते थे, उन दुष्ट मारीच और सुबाहु को सहायकों सहित तुमने कैसे मारा?





मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईंस अनेक करवरें टारी।। मख रखवारी करि दुहुं भाई। गुरु प्रसाद सब विद्या पाई।।_अर्थ_हे तात ! मैं बलैया लेती हूं, मुनि की कृपा से ही ईश्वर ने बहुत_सी बलाओं को टाला। दोनो भाइयों ने यज्ञ की रखवाली करके गुरुजी के प्रसाद से सब विद्याएं पायीं।





मुनि तिय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरी पूरी।। कमल पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुं सिव धनु तोरा।।_अर्थ_चरणों की धूलि लगते ही मुनि पत्नी अहिल्या तर गयी। विश्व भर में यह कीर्ति पूर्ण रूप से व्याप्त हो गयी कच्छप की पीठ, वज्र और पर्वत से भी कठोर शिवजी के धनुष को राजाओं के समाज में तुमने तोड़ दिया।





बिस्व बिजय जसु जानकी पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई।। सकल अमानुष  करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपां सुधारें।।_अर्थ_ विश्वविजय के यश और जानकी को पाया और सब भाइयों को ब्याहकर घर आये। तुम्हारे सभी कर्म अमानुषी हैं ( मनुष्य की शक्ति से बाहर हैं ), जिन्हें केवल विश्वामित्रजी की कृपा ने सुधारा है ( सम्पन्न किया है )।





आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा।। जे दिन  गए तुम्हहिं  बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें।।_अर्थ_हे तात ! तुम्हारा चन्द्रमुख देखकर आज हमारा जगत्  जन्म लेना सफल हुआ। तुमको बिना देखे जो दिन बीते हैं, उनको ब्रह्मा गिनती में न लावें ( हमारी आयु में शामिल न करें)।





राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन। सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन।।_अर्थ_ विनय से भरे उत्तम वचन कहकर श्रीरामचन्द्र जी ने माताओं को संतुष्ट किया। फिर शिवजी, गुरु और ब्राह्मणों के चरणों का स्मरण कर नेत्रों को नींद के वश किया ( अर्थात् वे हो रहे )।





नींदउं बदन सोह सठि लोना। मनहुं सांझ सरसीरुह सोना।। घर घर करहिं जागरन नारी। देहिं परस्पर मंगल गारी।।_अर्थ_नींद में भी उनका अत्यन्त सलोना मुखड़ा ऐसा सोह रहा था, मानो सन्ध्या के समय का लाल कमल सोह रहा हो। स्त्रियां घर_घर जागरण कर रही हैं और आपस में ( एक_दूसरी को ) मंगलमयी गालियां दे रही हैं।





पुरी बिराजति  राजति रजनी। रानी कहहिं बिलोकहु सजनी।। सुन्दर बधून्ह सासु लै सोईं। फनिकन्ह तनु सिरमनि उर गोईं।।_अर्थ_रानियां कहती हैं_हे सजनी ! देखो ( आज ) रात्रि  कैसी शोभा है, जिससे अयोध्या पुरी विशेष सुशोभित हो रही है ! यों कहती हुई सासुएं सुन्दर बहुओं को लेकर सो गईं, मानो सर्पों ने अपने सिर की मणियों को हृदय में छिपा लिया है।





प्रातः पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे।। बन्दि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन्ह आए।।_अर्थ_प्रात:काल पवित्र ब्रह्ममुहुर्त में प्रभु जागे। मुर्गे सुन्दर बोलने लगे। भाट और मागधों  ने गुणों का गान किया तथा नगर के लोग द्वार पर जोहार करने को आए।





बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाई असीस मुदित सब भ्राता।। जननिन्ह सादर बदन निहारे भूपति संग द्वार पगु धारे।।_अर्थ_ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओं की वन्दना कर आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न हुए। माताओं ने आदर के साथ उनके मुखों को देखा। फिर वे राजा के साथ दरवाजे ( बाहर ) पधारे।





कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ। प्रातः क्रिया करि तात पहिं आए चारिउ  _अर्थ_स्वभाव से ही पवित्र चारों भाइयों ने सब शौचादि से निवृत होकर पवित्र सरयू नदी में स्नान किया और प्रातः क्रिया ( सन्ध्या_वन्दनादि ) करके वे पिता के पास आये।





नवाह्नपारायण तीसरा विराम

भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई।। देखि राम सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी।। राजा ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया। तदनन्तर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गये। श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन कर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमान कर सारी सभा शीतल हो गयी ( अर्थात् सबके तीनों प्रकार के ताप सदा के लिये मिट गये )।





पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए।। सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखहिं रामु दोउ गुर अनुरागे।।_अर्थ_फिर मुनि बसिष्ठजी और विश्वामित्रजी आए। राजा ने उनको सुन्दर आसनों पर बैठाया और पुत्रों समेत उनकी पूजा करके उनके चरणों लगे। दोनो गुरु श्रीरामजी को देखकर प्रेम में मुग्ध हो गये।





कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीस सहित रनिवासा।। मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी।।_अर्थ_बसिष्टजी धर्म के इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवास सहित सुन रहे हैं। जो मुनियों के मन को भी अगम्य है, ऐसी विश्वामित्र जी की करनी को बसिष्टजी ने आनन्दित होकर बहुत प्रकार से वर्णन किया।





बोले बामदेउ सब सांची। कीरति कवित लोक तिहुं माची।। सुनि आनंदु भरी सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू।।_अर्थ_वामदेवजी बोले_ये सब बातें सत्य हैं। विश्वामित्रजी की सुन्दर कीर्ति तीनों लोकों में छायी है। यह सुनकर सब किसी को आनन्द हुआ। श्रीराम_लक्ष्मण के हृदय में अधिक उत्साह ( आनंद ) हुआ।





मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भांति। उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति।।_अर्थ_नित्य मंगल, आनंद और उत्सव होते हैं; इस तरह आनंद से भरकर उमड़ पड़ी, आनंद की अधिकता अधिक_अधिक बढ़ती ही जा रही है।





सुदिन सोधि कल कंकन छोरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे।। नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं।।_अर्थ_ अच्छा दिन ( शुभ मुहूर्त ) शोधकर सुन्दर कंकण खोले गये। मंगल, आनंद और विनोद कुछ कम नहीं हुए ( अर्थात् बहुत हुए )। इस प्रकार नित्य नये सुख को देखकर देवता सिहाते हैं और अयोध्या में जन्म पाने के लिये ब्रह्माजी से याचना करते हैं।





बिस्वामित्रु चलन नित चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं।। दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ।।_अर्थ_विश्वामित्रजी नित्य ही चलना ( अपने आश्रम जाना ) चाहते हैं, पर रामचन्द्रजी के स्नेह और विनयवश  रह जाते हैं। दिनों-दिन राजा का सौगुना भाव ( प्रेम ) देखकर महामुनिराज  विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं। 





मागत विदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ भए आगे।। नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवक समेत सुत नारी।।_अर्थ_अन्त  जब विश्वामित्रजी ने विदा मांगी, तब राजा प्रेममग्न हो गये और पुत्रोंसहित आकर खड़े हो गये। ( वे बोले_ ) हे नाथ ! यह सारी सम्पदा आपकी है। मैं तो स्त्री_पुत्रोंसहित आपका सेवक हूं।





करब सदा लरिकन्ह पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू।। अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी।।_अर्थ_हे मुनि ! लड़कों पर सदा स्नेह करते रहियेगा। ऐसा कहकर पुत्रों और रानियोंसहित राजा दशरथजी विश्वामित्रजी के चरणों पर गिर पड़े। ( प्रेमविह्वल हो जाने के कारण ) उनके मुंह से बात नहीं निकलती।





दीन्हि असीस बिप्र बहु भांति। चले न प्रीति की रीति कहि जाती।। रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुंचाई।।_अर्थ_ ब्राह्मण विश्वामित्रजी ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दिये और वे चल पड़े, प्रीति की रीति कहीं नहीं जाती। सब भाइयों को साथ लेकर श्रीरामजी प्रेम के साथ उन्हें पहुंचाकर और आज्ञा पाकर लौटे।





राम रूप भूपति भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु। जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु।।_अर्थ_गाधिकुल के चन्द्रमा विश्वामित्रजी  बड़े हर्ष के साथ श्रीरामचन्द्रजी के रूप, राजा दशरथ जी की भक्ति ( चारों भाइयों के ) विवाह और ( सबके ) उत्साह को मन_ही_मन सराहते जाते हैं।





बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी।। सुनि सुनि सुजस मनहिं मन राऊ। बरनी आपन पुन्य प्रभाऊ।।_अर्थ_ बामदेवजी और रघुकुल के गुरु ज्ञानी वसिष्ठजी ने फिर विश्वामित्रजी की कथा बखानकर कही। मुनि का सुन्दर यश सुनकर राजा मन_ही_मन अपने पुण्यों के प्रभाव का बखान करने लगे।





बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहं गयऊ।। जहं तहं राम ब्याहु सब गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुं छावा।।_अर्थ_आज्ञा हुई तब सब लोग ( अपने अपने घरों को ) लौटे। राजा दशरथजी भी पुत्रोंसहित महल में गये। जहां_तहां सब श्रीरामचन्द्रजी के विवाह की गाथाएं गा रहे हैं। श्रीरामचन्द्रजी का पवित्र सुयश तीनों लोकों में छा गया।





आए  रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें।। प्रभु बिबाहं जब भयउ उछाहू। सकइ न बरनि गिरा अहिनाहू।।_अर्थ_जब से श्रीरामचन्द्रजी विवाह करके घर आये,  तबसे सब प्रकार का आनंद अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु के विवाह में जैसा आनंद उत्साह हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेष जी भी नहीं कह सकते।





कबिकुल जीवन पावन जानी। राम सीय जसु मंगल खानी।। तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी।।_अर्थ_श्रीसीतारामजी के यश को कविकुल के जीवन को पवित्र करनेवाला और मंगलों की खान जानकर, इससे मैंने अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये कुछ ( थोड़ा_सा ) बखान कर कहा है।





निज गिरा करन कारन राम जसु तुलसी कहृयो। रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौने लह्यो।। उपबीत  ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं। बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं।।_अर्थ_अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये तुलसी ने राम का यश कहा है। ( नहीं तो ) श्रीरघुनाथजी का चरित्र अपार समुद्र है, किस कवि ने उसका पार पाया है ? जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मंगलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेंगे, वे लोग श्रीजानकीजी और श्रीरामजी  की कृपा से सदा सुख पावेंगे।





 रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं। तिन्ह कहुं सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।_अर्थ_श्रीसीताजी और श्रीरघुनाथजी के विवाह प्रसंग को लोग प्रेमपूर्वक गायेंगे_सुनेंगे उनके लिखे सदा उत्साह ( आनंद )_ही_उत्साह है; क्यों कि श्रीरामचन्द्रजी का यश मंगल का नाम है।





मासपारायण, बारहवां विश्राम

इति श्रीरामचरितमानसे सकलकलिकलुष विध्वंसने प्रथम सोपान: समाप्त
कलियुग के संपूर्ण पापों को विध्वंस करनेवाले श्रीरामचरितमानस का यह पहला सोपान समाप्त हुआ।

Monday, 3 May 2021

बालकाण्ड

चारि सिंघासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए।। तिन्ह पर कुअंरि कुअंर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे।।_अर्थ_स्वाभाविक ही सुन्दर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेव ने अपने हाथ से बनाये थे। उनपर माताओं ने राजकुमारियों और राजकुमारों को बैठाया और आदर के साथ उनके पवित्र चरण धोये।





धूप दीप नैबेद बेदबिधि। पूजे बर दुलहिनी मंगलनिधि।। बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढ़रहीं।।_अर्थ_ फिर वेद की विधि के अनुसार मंगलों के निधान दूलह और दुलहिनों की धूप, दीप और नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा की। माताएं बारंबार आरती कर रही हैं और वर_वधूओं के सिरों पर सुन्दर पंखे तथा चंवर ढल रहे हैं।





बस्तु अनेक निछावरि होहीं। भरी प्रमोद मातु सब सोहीं।। पावा परम तत्व तनु जोगीं। अमृतु लहेउ जनु संतत रोगीं।।_अर्थ_अनेकों वस्तुएं निछावर हो रही हैं; सभी माताएं आनंद से भरी हुईं ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो योगी ने परम तत्व को प्राप्त कर लिया।





परम रंक जनु पारस पावा। अंधहिं लोचन लाभु सुहावा।। मूक बदन तनु सारद छाई। मानहुं समर सूर जय पाई।।_अर्थ_जन्म का दरिद्रि मानो पारस पा गया। अंधे को सुंदर नेत्रों का लाभ हुआ। गूंगे के मुख में मानो सरस्वती आ विराजीं और शूरवीर ने मानो युद्ध में विजय पा ली।





एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु। भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु।।_अर्थ_इन सुखों से भी सौ करोड़ गुना बढ़कर आनंद माताएं पा रही हैं। क्योंकि रघुकुल के चन्द्रमा श्रीरामजी विवाह करके भाइयों सहित घर आये हैं।





लोक रीति जननि करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं। मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ राम मनहिं मुसुकाहिं।।_अर्थ_ माताएं लोकरीति करती हैं और दूलह_दुलहिनें सकुचाते हैं। इस महान् आनंद और विनोद को देखकर श्रीरामजी मन_ही_मन मुस्करा रहे हैं।





देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की।। सबहि बंदि मागहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना।।_अर्थ_मन की सभी वासनाएं पूरी हुई जानकर देवता और पितरों का भली-भांति पूजन किया सबकी वन्दना करके माताएं यही वरदान मांगती हैं कि भाइयों सहित श्रीरामजी का कल्याण हो।





अंतरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अंचल भरि लेहीं।। भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे।।_अर्थ_देवता छिपे हुए ( अन्तरिक्ष से ) आशीर्वाद दे रहे हैं और माताएं आनन्दित हो आंचल भरकर ले रही हैं। तदनन्तर राजा ने बरातियों को बुलवा लिया और उन्हें सवारियां, वस्त्र, मणि ( रत्न ) और आभूषणादि दिये।





आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहिं।। पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन सकल बनाए।।_अर्थ_आज्ञा पाकर, श्रीरामजी को हृदय में रखकर वे सब आनन्दित होकर अपने घर गये। नगर के समस्त स्त्री_पुरुषों को राजा ने कपड़े और गहने पहनाये। घर_घर बनावे बजने लगे।




जाचक जन जाचहिं जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई।। सेवक सकल बजनिया नाना। पूरन किए दान सनमाना।।_अर्थ_याचक लोग जो जो मांगते हैं, विशेष प्रसन्न होकर राजा उन्हें वही_वही देते हैं। संपूर्ण सेवकों और बाजेवालों को राजा ने नाना प्रकार के दान और सम्मान से संतुष्ट किया।





देहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ। तब गुर भूसुर सहित गृह गवनु कीन्ह नरनाथ।।_अर्थ_सब जोहार ( वन्दन ) करके आशिष देते हैं और गुणसमूहों की कथा गाते हैं। तब गुरु और ब्राह्मणों सहित राजा दशरथजी ने महल में गमन किया।





जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही।। भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठी भाग्य बर जानी।।_अर्थ_वशिष्ठजी ने जो आज्ञा दी, उसे लोक और वेद की विधि के अनुसार राजा ने आदरपूर्वक किया। ब्राह्मणों की भीड़ देख कर अपना बड़ा भाग्य जानकर सब रानियां आदर के साथ उठीं।




पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजी बहुविधि भूप जेवांए।। आदर दान प्रेम परितोषे। देत असीस चले मन तोषे।।_अर्थ_ चरण धोकर उन्होंने सबको स्नान कराया और राजा ने भली_भांति पूजन करके उन्हें भोजन कराया। आदर, दान और प्रेम से पुष्ट हुए वे संतुष्ट मन से आशीर्वाद दे ते हुए चले।





बहुबिधि कीन्ह गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा।। कीन्हि प्रशंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्ही पग धूरी।।_अर्थ_राजा ने गाधिपुत्र विश्वामित्र जी की बहुत तरह से पूजा की और कहा_हे नाथ ! मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है। राजा ने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियों सहित उनकी चरणधूलि को ग्रहण किया।





भीतर भवन दीन्ह बर बासू। मन जोगवत रह नृपु रनिवासु।। पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्ह बिनती उर प्रीति न थोरी।।_अर्थ_उन्हें महल के भीतर ठहरने का उत्तम स्थान दिया, जिसमें राजा और सब रनिवास उनका मन जोहता रहे ( अर्थात् जिसमें राजा और महल की सारी रानियां स्वयं उनके इच्छानुसार उनके राम की ओर दृष्टि रख सकें ), फिर राजा गुरु वसिष्ठ जी के चरण कमलों की पूजा की और विनती की। उनके हृदय में प्रीति कम न थी ( अर्थात् बहुत प्रीति थी।)





बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु। पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीसु महीसु।।_अर्थ_बहुओंसहित सब राजकुमार और सब रानियों समेत राजा बार गुरुजी के चरणों की वन्दना करते हैं और मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं।





बिनय कीन्ह उर अति अनुरागें। सुख संपदा राखि सब आगें।। नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा।। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा।।_अर्थ_राजा ने अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय पुत्रों को और सारी सम्पत्ति को सामने आकर ( उसे स्वीकार करने के लिये ) विनती की। परन्तु मुनिराज ने ( पुरोहित के नाते ) केवल अपना नेग मांग लिया और बहुत तरह से आशीर्वाद दिया।





उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता।। बिप्रबधू सब भूप बोलाईं। चैल चारु भूषन पहिराई।।_अर्थ_फिर सीताजी सहित श्रीरामजी को हृदय में रखकर गुरु वशिष्ठ जी हर्षित होकर अपने स्थान को गये। राजा ने सब ब्राह्मणों की स्त्रियों को बुलवाया और उन्हें सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनाये।





बहुरि बोलाइ सुवासिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्ही।। नेगी नेग जोग सब लेहीं। रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं।।_अर्थ_फिर सब सुआसिनिओं को ( नगरभर की सौभाग्यवती बहिन, बेटी, भानजी आदि को ) बुलवा लिया और उनकी रुचि समझकर ( उसी के अनुसार ) उन्हें पहिरावनी दी। नेगी लोग अपना-अपना नेग_जोग लेते और राजाओं के शिरोमणि दशरथजी उनकी इच्छा के अनुसार देते हैं।





प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भांति सनमाने।। देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरसि प्रसून प्रसंसि उछाहू।।_अर्थ_ जिन मेहमानों को प्रिय और पूजनीय जाना, उसका राजा ने भली_भांति सम्मान किया। देवगण श्रीरघुनाथजी का विवाह देखकर, उत्सव की प्रशंसा करके फूल बरसाते हुए_।





चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ। कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदय समाइ।।_अर्थ_नगाड़े बजाकर और ( परम) सुख प्राप्त कर अपने_अपने लोकों को चले। वे एक_दूसरे से श्रीरामजी का यश कहते जाते हैं। हृदय में प्रेम समाता नहीं है।





सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयं भरि पूरि उछाहू।। जहं रनिवास तहां पंगु धारे। सहित बधूटिन्ह कुंअर निहारे।।_अर्थ_सब प्रकार से सबका प्रेमपूर्वक  भली-भांति आदर_सत्कार कर लेने पर राजा दशरथजी के हृदय में पूर्ण उत्साह ( आनन्द ) भर गया। जहां रनिवास था, वे वहां पधारे और बहुओं समेत उन्होंने कुमारों को देखा।





लिए गोद करि मोद  समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु देता।। बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियं हरषि दुलारीं।।_अर्थ_राजा ने आनन्द सहित पुत्रों को गोद में ले लिया। उस समय राजा को जितना सुख हुआ उसे कौन कह सकता है ? फिर पुत्रवधुओं को प्रेम सहित गोदी में बैठाकर, बार बार हृदय में हर्षित  उन्होंने उनका  दुलार ( लाड़ चाव ) किया।





देखि समाजु मुदित रनिवासू। सबकें उर आनंद कियो बासू।। कहेउ भूप जिमि भयऊ बिबाहू। सुनि सुनि हरषु होत सब काहू।।_अर्थ_यह समाज ( समारोह ) देखकर रनिवास प्रसन्न हो गया। सबके हृदय में आनंद ने निवास कर लिया। तब राजा ने जिस तरह विवाह हुआ था वह सब कहा। उसे सुन-सुनकर सबको हर्ष होता है।





जनक राज गुन सील बड़ाई। प्रीति रीति संपदा सुहाई।। बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी।।_अर्थ_राजा जनक के गुण, शील, महत्व, प्रीति की रीति और सुहावनी सम्पत्ति का वर्णन राजा ने भाट की तरह बहुत प्रकार से किया। जनकजी की करनी सुनकर सब रानियां बहुत प्रसन्न हुईं।





सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति। भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति।।_अर्थ_पुत्रोंसहित स्नान करके राजा ने ब्राह्मण, गुरु और कुटुम्बियों को बुलाकर अनेक प्रकार के भोजन किये। ( यह सब करते करते पांच घड़ी रात बीत गयी।





मंगलगान करहिं बर भामिनि। भै सुख मूल मनोहर जामिनि। अंचइ पान सब काहू पाए। स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए।।_अर्थ_सुंदर स्त्रियां मंगलगान कर रही हैं। वह रात्रि सुख की मूल और मनोहारिणी हो गयी। सबने आचमन करके पान खाये और फूलों की माला, सुगंधित द्रव्य आदि से विभूषित होकर सब शोभा से छा गये।





रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई।।  प्रेम प्रमोदु बिनोदु बड़ाई। समउ समाजु मनोहरताई।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी को देखकर और आज्ञा पाकर सब आज्ञा पाकर अपने_अपने घर को चले। वहां के प्रेम, विनोद, आनंद, महत्व, समय, समाज और मनोहरता को___।





कहि न सकहिं सत सारद सेसू।  बेद बिरंचि महेस गनेसू।। सो मैं कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरि कि धरनी।।_अर्थ_सैकड़ों  सरस्वती, शेष, वेद, ब्रह्मा, शिव और गणेश भी जिसका वर्णन नहीं कर सकते, उसका वर्णन मैं कैसे कर सकता?  कहीं केंचुआ भी धरती को सिर पर ले सकता है ?





नृप सब भांति सबहिं  सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाईं रानी।। बधू लरिकनी पर घर  आईं। राखेहु नयन पलक की नाईं।।_अर्थ_राजा ने सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर रानियों को बुलाया और कहा_बहुएं अभी बच्ची हैं, पराये घर से आयी हैं। इनको इस तरह से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती  हैं ( जैसे पलकें नेत्रों की रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुंचाती हैं वैसे ही इन्हें सुख पहुंचाना।)





लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ। अब कहि गे विश्रामगृहं राम चरन चितु लाइ।।_अर्थ_ लड़के थके हुए नींद के वश हो रहे, इन्हें ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कहकर राजा श्रीरामचन्द्र जी के चरणों में मन लगाकर विश्राम भवन चले गये।





भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलंग डसाए।। सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपोतीं नाना।।_अर्थ_राजा के स्वभाव से ही सुन्दर वचन सुनकर ( रानियों ने ) मणियों से जुड़े सुवर्ण के पलंग बिछवाये। ( गद्दों पर ) गौ के दूध के फेन के समान सुन्दर एवं कोमल अनेकों सफेद चादरें बिछायीं।





उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्त्रग सुगंध मनि मंदिर माहीं।। रतनदीप सुनि चारु चंदोवा। कहत न बनइ जान जेहि जोवा ।।_अर्थ_सुन्दर तकियों का वर्णन नहीं किया जा सकता। मणियों के मन्दिर में फूलों की मालाएं और सुगंध द्रव्य सजे हैं। सुन्दर रत्नों के दीपकों और सुन्दर चंदोवे की शोभा कहते नहीं बनती। जिसने उन्हें देखा हो वही जान सकता है।





सेज रुचिर रचित रामु उठाए। प्रेम सहित पलंग पौढ़ाए।। अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयध तिन्ह कीन्ही।।_अर्थ_इस प्रकार सुन्दर शय्या सजाकर ( माताओं ने ) श्रीरामचन्द्र जी को उठाया और प्रेम सहित पलंग पर पौढ़ाया। श्रीरामजी ने बार बार भाइयों को आज्ञा दी। तब वे भी अपनी अपनी शय्याओं पर सो गये।


Sunday, 28 March 2021

बालकाण्ड

भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठईं जनक अनेक सुसारा।। तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा।।_अनगिनत बैलों और कहारों पर भर_भरकर ( लाद_लादकर ) भेजी गयी। साथ ही जनकजी ने अनेकों सुंदर शय्याएँ ( पलँग ) भेजीं। एक लाख घोड़े और पचीस हजार रथ सब नख से शिखा तह ( ऊपर से नीचे तक ) सजाये हुए,





मत्त सहस दस सिंधु साजे। जिन्हहिं देखि दिसिकुंजर लाजे।। कनक बसन  मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना।।_अर्थ_दस हजार सजे हुए मतवाले हाथी, जिन्हें देखकर दिशाओं के हाथी भी लजा जाते हैं, गाड़ियों में भर_भरकर सोना, वस्त्र और रत्न ( जवाहिरात ) और भैंस, गाय तथा नाना प्रकार की चीजें दी।





दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि। जो अवलोकत लोकपति लोक संपदा थोरि।।_अर्थ_[ इस प्रकार]  जनकजी ने फिर से अपरिमित दहेज दिया, जो कहा नहीं जा सकता और जिसे देखकर लोकपालों के लोकों की संपदा भी थोड़ी जान पड़ती थी।





सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई। चलिहिं बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानी।।_अर्थ_इस प्रकार सब समान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी को भेज दिया। बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो गयीं, मानो थोड़े जल में मछलियाँ छटपटा रही हों।





पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देइ असीस सिखावनु देहीं।। होएहु संतत पियहि पियारी। चिरु अहिवात असीस हमारी।।_अर्थ_वे बार बार सीताजी को गोद कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं_ तुम सदा अपने पति की प्यारी होओ, तुम्हारा सोहाग अचल हो; हमारी यही आशिष है।





सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू।। अति सनेह बस सखी सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।_अर्थ_सास, ससुर और गुरु की सेवा करना। पति का रुख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना। सयानी सखियाँ अत्यन्त स्नेह के वश कोमल वाणी से स्त्रियों के धर्म सिखलाती हैं।





सादर सकल कुअँरि समुझाई। रानिन्ह बार बार उर लाईं।। बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।।_अर्थ_आदर के साथ सब पत्रियों को [ स्त्रियों के धर्म ] समझाकर रानियों ने बार_बार उन्हें हृदय से लगाया। माताएँ फिर फिर भेंटती और कहती हैं कि ब्रह्मा ने स्त्री जाति को क्यों रचा।





तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानुकुल केतु। चले जनक मंदिर मुदित बिदा करावन हेतु।।_अर्थ_उसी समय सूर्यवंश के पताकास्वरूप श्रीरामचन्द्रजी भाइयों सहित प्रसन्न होकर विदा कराने के लिये जनकजी के महल को चले।





चारिउ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए।। कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू।।_अर्थ_स्वभाव से ही सुन्दर चारों भाइयों को देखने के लिये नगर के स्त्री पुरुष दौड़े। कोई कहता है_ आज ये जाना चाहते हैं। विदेह ने विदाई का सब सामान तैयार कर लिया है।





लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी।। को जानै केहि सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी।।_अर्थ_राजा के चारों पुत्र,  इन प्यारे मेहमानों के [ मनोहर रूप को ] नेत्र भरकर देख लो। हे सयानी ! कौन जाने, किस पुण्य से बिधाता ने इन्हें यहाँ लाकर हमारे नेत्रों का अतिथि बनाया है।





मरनशीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा।। पाव नारकी हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसें।।_अर्थ_मरनेवाला जिस तरह अमृत पा जाय, जन्म का भूखा कल्पवृक्ष पा जाय और नरक में रहनेवाला ( या नरक के योग्य ) जीव जैसे भगवान् के परमपद को प्राप्त हो जाय, हमारे लिये इनके दर्शन वैसे ही हैं।





निरखि राम शोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू।। एहि बिधि सबहिं नयन फलु देता। गए कुअँर सब राजनिकेता।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी की शोभा को निरखकर हृदय में धर लो। अपने मन को साँप और इनकी मूर्ति को मणि बना लो। इस प्रकार सबको नेत्रों का फल देते हुए सब राजकुमार राजमहल में गये।





रूप सिंधु सब बंधु लखि हरषि उठा रनिवासु। करहिं निछावरि आरती महा मुदित मन सासु।।_अर्थ_रूप के समुद्र सब भाइयो को देखकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। सासुएँ महान् प्रसन्न मन से निछावर और आरती करती हैं।





देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेम बिबस पुनि पुनि पद लागीं।। रही न लाज प्रीति उर छाईं। सहज सनेहु बरनि किमि जाई।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्जी की छबि देखकर वे प्रेम में अत्यन्त मग्न हो गयीं और प्रेम के वश होकर बार_बार चरणों लगीं। हृदय में प्रीति छा गयी, इससे लज्जा नहीं रह गयी। उनके स्वाभाविक स्नेह का वर्णन किस तरह किया जा सकता है।





भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए।।  बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी।।_अर्थ_ उन्होंने भाइयोंसहित श्रीरामजी को उबटन करके स्नान कराया और बड़े प्रेम से षटरस भोजन कराया। सुअवसर जानकर श्रीराचन्द्रजी शील, स्नेह और संकोचभरी बाणी बोले_





राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए।। मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू।।_अर्थ_महाराज अयोध्यापुरी को चलना चाहते हैं, उन्होंने हमें विदा होने के लिये यहाँ भेजा है। हे माता ! प्रसन्न मन से आज्ञा दीजिये और हमें अपना बालक जानकर सदा स्नेह बनाये रखियेगा।





सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू।। हृदयँ लगाइ कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौंपि बिनती अति कीन्ही।।_अर्थ_इन वचनों को सुनते ही रनिवास उदास हो गया। सासुएँ प्रेमवश बोल नहीं सकतीं। उन्होंवे सब कुमारियों को हृदय से लगा लिया और उनके पतियों को सौंपकर बहुत विनती की।





करि बिनय सीय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै। बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै।। परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।। तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किंकरी करि मानिबी।।_अर्थ_विनती करके उन्होंने सीताजी को श्रीरामचन्द्रजी को समर्पित किया और हाथ जोड़कर बार_बार कहा_ हे तात् !  हे सुजान ! मैं बलि जाती हूँ, तुमको सबकी गति ( हाल ) मालूम है। परिवार को, पुरवासियों को, मुझको  और राजा को सीता प्राणों के समान प्रिय है, ऐसा जानियेगा। हे तुलसी के स्वामी ! इसके सील और स्नेह को देखकर इसे अपनी दासी करके मानियेगा।






तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय। जन गुन गाहक राम दोष दलन करुणायतन।।_अर्थ_तुम पूर्णकाम हो, सुजानशिरोमणि हो और भावप्रिय हो ( तुम्हें प्रेम प्यारा है )। हे राम ! तुम भक्तों के गुणों को ग्रहण करनेवाले, दोषों को नाश करनेवाले और दया के धाम हो।





अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पंक जनु गिरा समानी।। सुनि सनेह सानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी।।_अर्थ_ऐसा कहकर रानी चरणों को पकड़कर [ चुप ] रह गयीं। मानो उनकी वाणी प्रेमरुपी दलदल में समा गयी हों। स्नेह से सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ने सास का बहुत प्रकार से सम्मान किया।





राम विदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रणाम बहोरि बहोरि।। पाइ असीस बहुरि सिर नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई।।_अर्थ_तब श्रीरामचन्द्रजी ने हाथ जोड़कर विदा माँगते हुए बार_बार प्रणाम किया। आशीर्वाद पाकर और फिर सिर नवाकर भाइयोंसहित श्रीरघुनाथजी चले।





मंजु मधुर मूरति उर आनी। भईं सनेह सिथिल सब रानी।। पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारीं। बार बार भेंटहिं महतारी।।_अर्थ_ श्रीरामजी की सुन्दर मधुर मूर्ति को हृदय में लाकर सब रानियाँ स्नेह से शिथिल हो गयीं। फिर धीरज धारण कर कुमारियों को बुलाकर माताएँ बारंबार उन्हें ( गले लगाकर ) भेंटने लगीं।





पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढ़ी परस्पर प्रीति न थोरी।। पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई।।_अर्थ_पुत्रियों को पहुँचाती हैं, फिर लौटकर मिलती हैं। परस्पर में कुछ थोड़ी प्रीति नहीं बढ़ी ( अर्थात् बहुत प्रीति बढ़ी )। बार_बार मिलती हुई माताओं को सखियों ने अलग कर दिया। जैसे हाल की ब्यायी हुई गाय को कोई उसके बालक बछड़े [ या बछिया ] से अलग कर दे।





प्रेम बिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु। मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवास।।_अर्थ_सब स्त्री_पुरुष और सखियोंसहित सारा रनिवास प्रेम के विशेष वश हो रहा है। [ ऐसा लगता है ] मानो जनकपुर में करुणा और विरह ने डेरा डाल दिया है।





सुक सारिका जानकीं ज्याए। कनक पिंजनन्हि राखि पठाए।। ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ  न केही।।_अर्थ_ जानकीजी ने जिन तोता और मैना को पाल_पोसकर बड़ा किया था और सोने के पिंजड़ों में रखकर पढ़ाया था। उनके ऐसे वचनों को सुनकर धीरज किसको नहीं त्याग देगा ( अर्थात् सबका धैर्य जाता रहा )।





भए बिकल खग मृग एहि भाँती। मनुज दसा कैसे कहि जाती।। बंधु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए।।_अर्थ_जब पक्षी और पशु तक इस तरह विकल हो गये, तब मनुष्यों की दशा कैसे कही जा सकती। तब भाइसहित जनकजी वहाँ आये। प्रेम से उमड़कर उनके नेत्रों में [ प्रेमाश्रुओं का ] जल भर आया।






सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी।। लीन्ह रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की।।_अर्थ_वे परम वैराग्यवान् कहलाते थे; पर सीताजी को देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजा ने जानकीजी को हृदय से लगा लिया। [ प्रेम के प्रभाव से ] ज्ञान की महान् मर्यादा मिट गयी ( ज्ञान का बाँध टूट गया )।





समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने।। बारहिं बार सुता उर लाईं। सजि सुन्दर पालकीं मगाईं।।__अर्थ_सब बुद्धमान मंत्री उन्हें समझाते हैं। तब राजा ने विषाद करने का समय न जानकर विचार किया। बारंबार पुत्रियों को हृदय से लगाकर सुन्दर सजी हुई पालकियाँ मँगवायी।





प्रेम बिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस। कुअँरि चढ़ाईं पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस।।_अर्थ_ सारा परिवार प्रेम  विवस है। राजा ने सुन्दर मुहूर्त जानकर सिद्धिसहित गणेशजी का स्मरण करके कन्याओं को पालकियों पर चढ़ाया।






बहुबिधि भूप सुता समुझाईं। नारिधरमु कुल रीति सिखाई।। दासीं दास दिये बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे।।_अर्थ_राजा ने पुत्रियों को बहुत प्रकार से समझाया और उन्हें स्त्रियों का धर्म और कुल की रीति सिखायीं। बहुत से दास_दासी दिये, जो सीताजी के प्रिय और विश्वासपात्र सेवक थे।





सीय चलत व्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मंगल रासी।। भुसूर सचिव समेत समाजा। संग चले पहुँचावन राजा।।_अर्थ_सीताजी के चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गये। मंगल की राशि शुभ शकुन हो रहे हैं। ब्राह्मण और मंत्रियों के समाजसहित राजा जनकजी उन्हें पहुँचाने के लिये साथ चले।





समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे।। दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे।।_अर्थ_समय देखकर बाजे बजने लगे। बरातियों ने रथ, हाथी और घोड़े सजाये। दशरथजी ने सब ब्राह्मणों को बुला लिया और उन्हें दान और सम्मान से परिपूर्ण कर दिया।





चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा।। सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मंगलमूल सगुन भए नाना।।_अर्थ_उनके चरणकमलों की धूलि सिर पर धरकर और आशिष पाकर राजा आनंदित हुए और गणेशजी का स्मरण करके उन्होंने प्रस्थान किया। मंगलों के मूल अनेकों शकुन हुए।





सुर प्रसून बरसहिं हरषि करहिं अपछरा गान।। चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान।।_अर्थ_देवता हर्षित होकर फूल बरसा रहे हैं और अप्सराएँ गान कर रही हैं। अवधपति दशरथजी नगाड़े बजाकर अयोध्यापुरी को चले।





नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे।। भूषन बसन बाजि गज दीन्हे।।_अर्थ_राजा दशरथजी ने विनती करके प्रतिष्ठित जनों को लौटाया और आदर के साथ सब मंगनों को बुलाया। उनको गहने_कपड़े, घोडे_हाथी और प्रेम से पुष्ट करके सबको संपन्न अर्थात् बलयुक्त कर दिया।





बार-बार बिरिदावली भाषी। फिरे सकल रामहिं उर राखी।। बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनक प्रेम बस फिरै न चहहीं।।-अर्थ-वे बारंबार विरुदावली ‌‌बखानकर और श्रीरामचन्द्रजी को हृदय में रखकर लौटे। कोसलाधीस दशरथजी बार-बार लौटने को कहते हैं, परन्तु जनकजी प्रेमवश लौटना नहीं चाहते।





पुनि कह भूपति बचने सुहाए। फिरिय महीप दूरि बड़ि आए।। राउ बहोरि उतरि भए काढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन साढ़े।।-अर्थ-दशरथजी ने फिर सुहावने वचन कहे-हे राजन् ! बहुत दूर आ गये, अब लौटिये। फिर राजा दशरथ जी रथ  से उतरकर खड़े हो गये उनके नेत्रों में प्रेम का प्रवाह बढ़ गया।






‌तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधा तनु बोरी।। करौं कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्ह बड़ाई।।_अर्थ_तब जनकजी हाथ जोड़कर मानो स्नेह रूपी अमृत में डुबोकर बचन बोले_मैं किस तरह बनाकर ( किन शब्दों में ) विनती करूं। हे महाराज ! आपने मुझे बड़ाई दी है।





कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भांति। मिलनि परस्पर बिनय अति प्रीति न हृदय समाति।।-अर्थ-अयोध्यानाथ दशरथ जी ने अपने स्वजन समधी का सब प्रकार से सम्मान किया। उनके आपस के मिलने में अत्यन्त विनय थी और इतनी प्रीति थी जो हृदय में समाती न थी।





मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहिं सन पावा।। सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता।।-अर्थ-जनकजी ने मुनिमंडली को सिर नवाया और सभी से आशीर्वाद पाया। फिर आदर के साथ वे रूप, शील और गुणों के निधान सब भाइयों---अपने दामादों से मिले।





जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन
 प्रेम जनु जाए।। राम करौं केहि भांति प्रशंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा।।-अर्थ-और सुन्दर कमल के समान हाथों को जोड़कर ऐसे वचन बोले जो मानो प्रेम से ही जन्मे हों। हे रामजी ! मैं किस प्रकार आपकी प्रशंसा करूं ! आप मुनियों और महादेवजी के मनरूपी मानसरोवर के हंस हैं। 





करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मधु त्यागी।। ब्यापकु ब्रह्म अलखु अबिनासी। चिदानन्दु निरगुन गुन रासी।।_अर्थ_जोगी लोग जिनके लिये क्रोध, मोह, ममता और मद को त्यागकर योग-साधन करते हैं, जो सर्वव्यापक ब्रह्म अव्यक्त, अविनाशी, चिदानन्द, निर्गुण और गुणों की राशी हैं,।।




मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सहहिं सकल अनुमानी।। महिमा निगमु नेति कहि कहई।। जो तिहुं काल एकरस रहई।।_अर्थ_जिनको मनसहित वाणी नहीं जानती और सब जिनका अनुमान ही करते हैं, कोई तर्क नहीं  कर सकते; जिनकी महिमा को वेद ,’नेति’  कहकर वर्णन करता है और जो ( सच्चिदानन्द ) तीनों कालों में एकरस ( सर्वथा निर्विकार ) रहते हैं।




नयन बिषय मो कहुं भयउ हो समस्त सुख मूल। सबइ राहु जग जीव कहीं भएं ईसु अनुकूल।।_अर्थ_वे ही समस्त सुखों के मूल ( आप ) मेरे नेत्रों के विषय हुए। ईश्वर के अनुकूल होने पर जगत् में जीव को लाभ_ही_लाभ है।





सबहि भांति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई।। होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कल्प कोटिक हरि लेखा।।_अर्थ_आपने मुझे सभी प्रकार से बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना लिया। यदि दस हजार सरस्वती और शेष हों और करोड़ों कल्पों तक गणना करते रहें।




मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहिए न सिराहिं सुनहु रघुनाथा।। मैं कछु कहउं एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु स्नेह सुठि थोरे।।_अर्थ_तो भी हे रघुनाथजी ! सुनिये, मेरे सौभाग्य और आपके गुणों की कथा कहकर समाप्त नहीं की जा सकती। मैं जो कुछ कह रहा हूं, वह अपने  इस एक ही बल पर कि आप अत्यन्त थोड़े प्रेम से प्रसन्न हो जाते हैं।





बार बार मागउं कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें।। सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे।।_अर्थ_मैं हाथ जोड़कर बार_बार हाथ जोड़कर यह मांगता हूं कि मेरा मन भूलकर भी आपके चरणों को न छोड़े। जनकजी के श्रेष्ठ बचनों को सुनकर, जो मानो प्रेम से पुष्ट किये हुए थे, पूर्णकाम श्रीरामचन्द्रजी संतुष्ट हुए।





करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ करि जाने।। बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेम मुनि आसिष दीन्ही।_अर्थ_ उन्होंने सुन्दर विनती करके पिता दशरथ जी, गुरु विश्वामित्र जी और कुलगुरु वशिष्ठ जी के समान जानकर ससुर जनकजी का सम्मान किया। फिर जनकजी ने भरतजी से विनती की और प्रेम के साथ मिलकर फिर उन्हें आशीर्वाद दिया।




मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्ह असीस महीस। भए परसपर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस।।_अर्थ_फिर राजा ने लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी से मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया। वे परस्पर प्रेम के वश होकर बार_बार आपस में सिर नवाने लगे।





बार-बार करि बिनती बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई।। जनक गहे कौसिक पद जाई।चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई।।_अर्थ_जनकजी की बार_बार विनती और बड़ाई करके श्रीरघुनाथजी सब भाईयों के साथ चले। जनक जी ने जाकर विश्वामित्रजी के चरण पकड़ लिये और उनके चरणों की रज को सिर और नेत्र में लगाया।





सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें।। जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहिं।।_अर्थ_(उन्होंने कहा_ ) हे मुनीश्वर ! सुनिये, आपके सुन्दर दर्शन से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, मेरे मन में विश्वास है। जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते हैं; परन्तु ( असंभव समझकर ) जिसका  मनोरथ करते हुए सकुचाते हैं।





जो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी।। कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई।।_अर्थ_हे स्वामी ! वहीं सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया; सारी सिद्धियां आपके दर्शनों की अनुगामिनी अर्थात् पीछे-पीछे चलने वाली है। इस प्रकार बार_बार विनती की और सिर नवाकर तथा उनसे आशीर्वाद पाकर राजा जनक लौटे।





चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई।। रामहिं निरखि ग्राम नर नारी। पाई नयन बलु होहिं सुखारी।।_अर्थ_डंका बजाकर बरात चली। छोटे_बड़े सभी समुदाय प्रसन्न हैं ( रास्ते के ) गांवों के स्त्री_पुरुष श्रीरामचन्द्र जी को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं।





बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत। अवध समीप पुनीत दिन पहुंची आई जनेत।।_अर्थ_बीच बीच में सुन्दर मुकाम करती हुई तथा मार्ग के लोगों को सुख देती हुई वह बरात पवित्र दिन में अयोध्यापुरी के समीप आ गई।




होन निसान पनव बर बाजे। भेरि संख धुनि हय गय गाजे।। झांझि बिरव डिंडिमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई।।_नगाड़ों पर चोटें पड़ने लगीं; सुन्दर ढ़ोल बजने लगे। भेरी और शंख की बड़ी आवाज हो रही है; हाथी घोड़े गरज रहे हैं।
विशेष शब्द करने वाली झांझें, सुहावनी डालियां तथा रसीले राग से शहनाइयां बज रही हैं।





पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता।। निज निज सुंदर सदन संवारे। हाट बाट चौहट पुर द्वारे।।_अर्थ_बरात को आती हुई सुनकर नगरवासी प्रसन्न हो गये। सबके शरीरों पर पुलकावली छा गयी। सबने अपने-अपने सुन्दर घरों, बाजारों, गलियों, चौराहों और नगर के द्वारों को सजाया।





गलीं  सकल अरगजां सिंचाई। जहं तहं चौके चारु पुराईं।। बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना।।_अर्थ_सारी गलियां अरगजे से सिंचायी गयीं, जहां_तहां सुन्दर चौक पुराने गये। तोरणों, ध्वजा_पताकाओं और मण्डपों से बाजार ऐसा सजा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।





सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला।। लगे सुभग तरु परसत धरनीं। मनिमय आलबाल कल करनी।।_अर्थ_फलसहित सुपारी, केला, आम, मौलसिरी, कदम्ब और तमाल के वृक्ष लगाये गये। वे लगे हुए सुन्दर वृक्ष ( फलों के भार से ) पृथ्वी को छू रहे हैं। उनके मणियों के ताले बड़ी सुन्दर कारीगरी से बनाये गये हैं।





बिबिध भांति मंगल कलश गृह गृह रचे संवारि। सुर ब्रह्मादि बिसाहिन सब रघुबर पुरी निहारि।।_अर्थ_अनेक प्रकार के मंगल_कलश घर_घर सजाकर बनाये गये हैं। श्रीरघुनाथजी की पुरी ( अयोध्या ) को देखकर ब्रह्मा आदि सब देवता सिहाते है।





भूप भवन तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा।। मंगल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई।।_अर्थ_उस समय राजमहल ( अत्यन्त ) शोभित हो रहा था। उसकी रचना देखकर कामदेव का भी मन मोहित हो जाता था। शकुन, मनोहरता, ऋद्धि_सिद्धि, सुख, सुहावनी सम्पत्ति।





तनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ गृह छाए।। देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही।।_अर्थ_और सब प्रकार के उत्साह ( आनन्द ) मानो सहज सुन्दर शरीर धर_धरकर दशरथ जी के घर में छा गये हैं। श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी के दर्शनों के लिये भला कहिये, किसे लालसा न होगी।





जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि।। सकल सुमंगल बजें आरती। गावहिं तनु बहु बेस भारती।।_अर्थ_सुहागिनी स्त्रियां झुंड_की_झुंड मिलकर चलीं, जो अपनी छबि से कामदेव की स्त्री रति का भी निरादर कर रही हैं। सभी सुन्दर मंगलमय द्रव्य एवं आरती सजाये हुए गा रही हों।





भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई।। कौसल्यादि राम महतारी। प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं।।_ अर्थ_राजमहल में ( आनन्द के मारे ) शोर मच रहा है। उस समय का और सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता कौशल्याजी आदि श्रीरामचन्द्रजी की सब माताएं प्रेम के विशेष वश होने से शरीर की सुध भूल गयीं।





दिए दान  बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारि। प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाई पदारथ चारि।।_अर्थ_गणेशजी और त्रिपुरारि शिवजी का पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणों को बहुत_सा दान दिया। वे ऐसी परम प्रसन्न हुईं मानो अत्यन्त दरिद्र चारों पदार्थ पाए गया हो।





मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता।। राम दरस हित अति अनुरागीं। परिजन साजु सजन सब लागीं।।_अर्थ_सुख और महान् आनंद से विवश होने के कारण सब माताओं के शरीर शिथिल हो गये हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं। श्रीरामचन्द्रजी के दर्शनों के लिये वे अत्यन्त अनुराग में भरकर परछन का सामान सजाने लगीं।





बिबिध बिधान बाजने बाजे। मंगल मुदित सुमित्रां साजे।। हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला।।_अर्थ_अनेकों प्रकार के बाजे बजते थे। सुमित्राजी ने आनन्दपूर्वक मंगल साज सजाये। हल्दी, दूब, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी आदि मंगल वस्तुएं।





अच्छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा।। तुम्हें पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन तनु नीर बनाए।।_अर्थ_तथा अक्षत ( चावल ), अंखुए, गोरोचन, लावा और तुलसी की सुन्दर मंजरियां सुशोभित हैं। नाना रंगों से चित्रित किये हुए सहज सुहावने सुवर्ण के कलश ऐसे मालूम होते हैं, मानो कामदेव के पक्षियों ने घोंसले बनाते हों।





सगुन सुगंध न जाहीं बखानी। मंगल सकल सजहिं सब रानी।। रचीं आरतीं बहुत बिधाना। मुदित करहिं कल मंगल गाना।।_अर्थ_शकुन की सुगंधित वस्तुएं बखानी नहीं जा सकतीं। सब रानियां संपूर्ण मंगल साज सज रही हैं। बहुत प्रकार की आरती बनाकर वे आनंदित हुईं सुन्दर मंगलगान कर रही हैं।




कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएं मात। चलीं मुदित परिछनि करन पुलक प्रफुल्लित गाता।।_अर्थ_सोने के थालों को मांगलिक वस्तुओं से भरकर अपने कमल के समान ( कोमल ) हाथों में लिये हुए माताएं आनन्दित होकर परछन करने चलीं। उनके शरीर पुलकावली से छा गये हैं।





धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु तनु ठयऊ।। सुरतरु सुमन माल सुर बरसहिं। मनहुं बलाक अवलि मनु करषहिं।।_अर्थ_धूप के धुएं से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़_घुमड़कर  छा गये हों। देवता कल्पवृक्ष के फूलों की मालाएं बरसा रहे हैं। वे ऐसी लगती जहै मानो बगुलों की पांति मन को ( अपनी ओर ) खींच रही हो।





मंजुल मनिमय बंदनिवारे। मनहुं पाकरिपु चाप संवारे।। प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि।।_अर्थ_सुंदर मणियों से बने बंदनवार ऐसे मालूम होते हैं मानो इन्द्रधनुष सजाये हों। अटारियों पर सुन्दर और चपल स्त्रियां प्रकट होती है और छिप जाती हैं ( आती_जाती हैं ); वे ऐसी जान पड़ती हैं मानो बिजलियां चमक रही हों।





दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा।। सुर सुगंध सुचि बरसहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी।।_अर्थ_नगाडों की ध्वनि मानो बादलों की घोर गर्जना है। याचकगण पपीहे, मेढ़क और मोर हैं। देवता पवित्र सुगन्ध रूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेती के समान नगर के सब स्त्री_पुरुष सुखी हो रहे हैं।





समउ जानि गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रवेस रघुकुलमनि कीन्हां।। सुमिरि संभु गिरिजा गनराजा। मुदित  महीपति सहित समाजा।।_अर्थ_( प्रवेश का समय जानकर गुरु वशिष्ठजी ने आज्ञा दी। तब रघुकुलमणि महाराज दशरथजी ने  शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजी का स्मरण करके समाजसहित आनंदित होकर नगर में प्रवेश किया।






होहिं सगुन बरसहिं सुमन सुर दुंदुभि बजाइ। बिबुध बंधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ।।_अर्थ_शकुन हो रहे हैं, देवता दुंदुभि बजा_बजाकर फूल बरसा रहे हैं। देवताओं की स्त्रियां आनंदित होकर सुन्दर मंगलगीत गा_गाकर  नाच रही हैं।





मागध सूत बंदि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर।। जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी।।_अर्थ_मागध, सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकों के उजागर ( सबको प्रकाश देनेवाले, परम प्रकाश स्वरूप ) श्रीरामचन्द्रजी का यश गा रहे हैं। जयध्वनि तथा निर्मल श्रेष्ठ वाणी सुन्दर मंगल से सनी हुई दसों दिशाओं में सुनायी पड़ रही है।





बिपुल बाजने साजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे।। बने बराति बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं।।_अर्थ_बहुत से बाजे बजने लगे। आकाश में देवता और नगर में लोग सब प्रेम में मगन हैं। बराती ऐसे बने_ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता। परम आनंदित हैं, सुख उनके मन में समाता ही नहीं है।





पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहिं भए सुखारे।। करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा।।_अर्थ_तब अयोध्यावासियों ने राजा को जोहार ( वन्दना )की। श्रीरामचन्द्रजी को देखते ही वे सुखी हो गये। सब मणियां और वस्त्र निछावर कर रहे हैं। नेत्रों में ( प्रेमाश्रुओं का ) जल भरा है और शरीर पुलकित हो रहा है।





आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखहिं कुअंर बर चारी।। सिबिका सुभग ओहार उतारी। दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी।।_अर्थ_नगर की स्त्रियां आनंदित होकर आरती कर रही है और सुन्दर चारों कुमारों को देखकर हर्षित हो रही हैं। पालकियों के सुन्दर पर्दे हटा_हटाकर वे दुलहिनों को देखकर सुखी होती हैं।





एहि बिधि सबही देते सुखु आए राजदुआर। मुदित मातु परिछन करहिं बधुन्ह समेत कुमार।।_अर्थ_इस प्रकार सबको सुख देते हुए राजद्वार पर आये। माताएं आनन्दित होकर बहुओं सहित कुमारों का परछन कर रही हैं।





करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा।। भूषण मनि पट नाना जाती। करहिं निछावरि अगनित भांती।।_अर्थ_वे बार_बार आरती कर रही है। उस प्रेम और महान् आनंद को कौन कह सकता है ! अनेकों प्रकार के आभूषण, रत्न और वस्त्र तथा अगनित प्रकार की अन्य वस्तुएं निछावर कर रही है।





बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानन्द मगन महतारी।। पुनि पुनि सीय राम छबि देखी। मुदित सफल जग जीवन देखी।।_अर्थ_बहुओंसहित चारों पुत्रों को देखकर माताएं परमानन्द में मगन हो गयीं। सीताजी और श्रीरामजी की छबि को बार_बार देखकर वे जगत् में अपने जीवन को सफल मानकर आनंदित हो रही हैं।





सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं नित सुकृति सराही।। बरसहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा।।_अर्थ_सखियां सीताजी के मुख को बार बार देखकर अपने पुत्रों की सराहना करते हुए गान कर रही हैं। देवता क्षण_क्षण में फूल बरसाते, नाचते गाते तथा अपनी_अपनी सेवा_ समर्पण करते हैं।





देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढ़ंढ़ोरीं।। देत न बनहिं निपट लघु लागीं। एकटक रहीं रूप अनुरागीं।।_अर्थ_चारों मनोहर जोड़ियों को देखकर सरस्वती ने सारी उपमाओं को खोज डाला; पर कोई उपमा देते नहीं बनी, क्योंकि उन्हें सभी बिलकुल तुच्छ जान पड़ीं। तब हारकर वे भी श्रीरामजी के रूप में अनुरक्त होकर एकटक देखती रह गयीं।