Wednesday, 25 December 2024

अयोध्याकाण्ड

सीय आइ मुनिबर पग लागी। उचित असीस रही मन मागी।। गुरुपतिनिहि मुनितियन्ह समेता। मिली पेमु कहि जाइ न जेता।।_अर्थ_सीताजी आकर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी के चरणों लगीं और उन्होंने मनमांगी उचित आशीष पायीं। फिर मुनियों की स्त्रियों सहित गुरुपत्नी अरुंधतिजी से मिलीं। उनका जितना प्रेम था, वह कहा नहीं जाता।

बंदि बंदि पग सिय सबही के। आसिरबचन लहे प्रिय जी के।। सासु सकल जब सीयं निहारीं। मूंदे नयन सहमि सुकुमारी।।_अर्थ_सीताजी ने सभी के चरणों को अलग_अलग वन्दना करके अपने हृदय को प्रिय ( अनुकूल ) लगनेवाले आशीर्वाद पाये। जब सुकुमारी सीताजी ने सब सासुओं को देखा, तब उन्होंने सहमकर अपनी आंखें बन्द कर लीं।

परीं बधिक बस मनहुं मरालीं। काह कीन्ह करतार कुचाली।। तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा। सो सब सहिअ जो दैव सहावा।।_अर्थ_( सासुओं की बुरी दशा देखकर ) उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो राजहंसिनियां बधिक के वश में पड़ गयी हों। ( मन में सोचने लगीं कि ) कुचाली विधाता ने क्या कर डाला ? उन्होंने भी सीताजी को देखकर बड़ा दु:ख पाया। ( सोचा ) जो कुछ दैव सहावें, वो सब सहना ही पड़ता है।

जनक सुता तब उर धरि धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा‌। मिलि सकल सासुन्ह सिय जाई। तेहि अवसर करुणा महि छाई।।_अर्थ_ तब जानकी जी हृदय में धीरज धरकर, नील कमल समान नेत्रों में जल भरकर, सब सासुओं से जाकर मिलीं। उस समय पृथ्वी कर करुणा ( करुण_रस ) छा गयी।

लागी लागी पग सबनि सिय भेंटति अति अनुराग। हृदय असीसहिं पेम बस रहइअहउ भरी सोहाग।_अर्थ_ सीताजी सबके पैरों लग_लगकर प्रेम से मिले रही हैं, और सब सासुओं प्रेमवश हृदय से आशीर्वाद दे रही हैं कि तुम सुहाग से भरी रहो ( सदा सौभाग्यवती रहो ) ।

बिकल सनेह सीय सब रानीं। बैठन सबहिं कहेउ गुर ग्यानीं।। कहि जग मायिक मुनिनाथा। कहे कछउक परमार्थ गाथा।।_अर्थ_ सीताजी और सब रानियां स्नेह के मारे व्याकुल हैं। तब ग्यानी गुरु ने सबको बैठ जाने के लिये कहा। फिर मुनिनाथ बसिष्ठजी ने जगत् की गति को मायिक कहकर ( अर्थात् जगत् माया का है, इसमें कुछ भी नित्य नहीं है, ऐसा कहकर ) कुछ परमार्थ की कथाएं ( बातें ) कहीं।

नृप कर सुरपुर गवनु सुनावा। सुनि रघुनाथ दुसह  दुखु पावा।। मरन हेतु निज नेहरु बिचारी। भए अति बिकल धीर धुर धारी।।_अर्थ_तदनन्तर वशिष्ठजी ने राजा दशरथ जी के स्वर्ग गमन की बात सुनायी, जिसे सुनकर रघुनाथजी ने दु:सह दु:ख पाया।  और अपने प्रति उनके स्नेह को उनके मरने का कारण विचारकर धईरधउरन्धर श्रीरामचन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल हो गये।

कुलिस कठोर सुनत कटु बानी। बिलपत लखन सीता सब रानी।। सोक बिकल अति सकल समाजू। मानहु राजु अकाजेउ राजू।।_अर्थ_ वज्र के समान कड़वी बाणी सुनकर लक्ष्मणजी, सीताजी और सब रानियां विलाप करने लगीं। सारा समाज शोक से अत्यंत व्याकुल हो गया। मानो राजा आज ही मरे हों।

मुनिबर बहुरि राम समझाए। सहित समाज सुसरित नहाए।। ब्रतु निरंबु तेहि दिन प्रभु कीन्हा। मुनिहुं कहे जल काहु न लीन्हा।।_अर्थ_फिर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने श्रीराम को समझाया। तब उन्होंने समाजसहित श्रेष्ठ मन्दाकिनीजी में स्नान किया। उस दिन प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने निर्जल व्रत किया। मुनि वशिष्ठजी के कहने पर भी किसी ने जल ग्रहण नहीं किया।

भोरु भएं रघुनंदनहिं जो मुनि आयसु दीन्ह। श्रद्धा भगति समेत प्रभु सो सब सादरु कीन्ह।।_अर्थ_दूसरे दिन सवेरा होने पर मुनि वशिष्ठजी ने श्रीरघुनाथजी को जो_जो आज्ञा दी वह सब कार्य प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने श्रद्धा_भक्तिसहित आदर के साथ किया।

करि पितु क्रिया बेद जिस बरनी। भए पुनीत पातक तम तरनी।। जासु नाम पावक अघ तूला।_अर्थ_वेदों में जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार पिता की क्रिया करके, पापरुपी अन्धकार के नष्ट करनेवाले शुद्धरूप श्रीरामचन्द्रजी शुद्ध हुए ! जिनका नाम पापरुपी रूई के ( तुरंत जला डालने के ) लिये अग्नि है; और जिनका स्मरण मात्र समस्त शुभ मंगलों का मूल है।

सुद्ध सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सुरसरि जस।। सुद्ध भए दुइ बासर बीते। बोले गुर सन राम पिरीते।।_अर्थ_वे ( नित्य शुद्ध_बुध ) भगवान् श्रीरामजी शुद्ध हुए। साधुओं की ऐसी सम्मति है कि उनका शुद्ध होना वैसे ही है जैसा तीर्थों के आवाह्न से गंगाजी शुद्ध होती हैं। ( गंगाजी तो स्वभाव से ही शुद्ध हैं, उनमें जिन तीर्थों का आवाहन किया जाता है उल्टे वे ही गंगाजी के संपर्क में आने से शुद्ध हो जाते हैं। इसी प्रकार सच्चिदानन्द रूप श्रीराम तो नित्य शुद्ध हैं, उनके संपर्क से कर्म ही शुद।ध हो गये।) जब शुद्ध हुए दो दिन बीत गये तब श्रीरामचन्द्रजी प्रीति के साथ गुजजी से बोले_)

नाथ लोग सब निपट दुखारी। कंद मूल फल अंबु अहारी।। सानुज भरतु सचिव सब माता। देखि मोहि पल जिमि जुग जाता।।_अर्थ_हे नाथ ! सब लोग यहां अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं। कन्द, मूल, फल और जल का ही आहार करते हैं। भाई भरत  को, मंत्रियों को और सब माताओं को देखकर मुझे एक_एक पल युग के समान बीत रहा है।

सब समेत पुर धारिअ पाऊ। आपु यहां अमरावती राऊ।। बहुत कहुं सब किअउं ढ़िठाई।
उचित होइ तस करिअ गोसाईं।।_अर्थ_अत:सबके साथ आप अयोध्यावासी को पधारिये ( लौट जाइये )। आप यहां हैं और राजा  अमरावती ( स्वर्ग)_मे़ हैं ( अयोध्यापुरी सूनी है) ! मैंने बहुत कह डाला, यह सब बड़ी ढ़िठाई की है। है गोसाईं ! जैसा उचित हो वैसा ही कीजिये।

धर्म सेतु करुनायतन कस न कहहु अस राम। लोग दुखित दिन दुइ दरस देखि लहहुं विश्राम।।_अर्थ_( वशिष्ठजी ने कहा_) हे राम ! तुम धर्म के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा क्यों न कहो ? लोग दु:खी हैं। दो दिन तुम्हारा दर्शन कर शान्ति लाभ कर लें।

राम बचन सुनि सभय समाजू। जनु जलनिधि महुं बिकल जहाजू।। सुनि गुर गिरा सुमंगल मूला। भयउ मनहुं मारुत अनुकूला।।_अर्थ_श्रीरामजी के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समुद्र में जहाज डगमगा गया हो। परन्तु जब उन्होंने गुरु वशिष्ठजी की श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनी तो उस जहाज के लिये मानो हवा अनुकूल हो गयी हो।

पावन पयं तिहुं काल नहाहीं।  जो बिलोकि अघ ओघ नसाहीं।। मंगल मूरति लोचन भरि भरि। निरखहिं हर्षित दण्डित करि करि।।_अर्थ_सब लोग पवित्र पयस्वनि नदी में ( अथवा पयस्वनि नदी के पवित्र जल में ) तीनों समय ( सबेरे, दोपहर और सायंकाल ) स्नान करते हैं, जिसके दर्शन से ही पापों के समूह नष्ट हो जाते हैं और मंगलमूर्ति श्रीरामचन्द्रजी को दण्डवत् प्रणाम कर_करके उन्हें नेत्र भर_भरकर देखते हैं।

राम सैल बन देखने जाहीं। जहं सुख सकल सकल दुख नाहीं।। झरना झरहिं सउधआसम बारी। त्रिबिधि तापहर त्रिबिधि बयारी।।_अर्थ_ सब श्रीरामचन्द्रजी के पर्वत ( कामदगिरि ) और वन को देखने जाते हैं, जहां सभी सुख हैं और सभी दु:खों का अभाव है। झरने अमृत के समान जल झरते हैं और तीन प्रकार की ( शीतल, मंद, सुगंध ) हवा तीनों प्रकार के ( आध्यात्मिक, अधिभौतिक, आधिदैविक ) तापों को हर लेती है।

बिटप बेलि तृन अगनित जाती। फल प्रसून पल्लव बहुत भांति।। सुंदर सिला सुखद तरु छाहीं। जाइ बरनि बन छबि केहि पाहीं।।_अर्थ_असंख्य जाति के वृक्ष, लताएं और तृण हैं, तथा बहुत तरह के फल, फूल और पत्ते हैं। सुन्दर शिलाएं हैं। वृक्षों की छाया सुख देनेवाली है। वन की शोभा किस्से वर्णन की जा सकती है ? सरनि सरोरुह जल बिहग कूजत गुंजित भृंग। बैर बिगत बिहरत बिपिन मृग बिहंग बहु रंग।।_अर्थ_तालाबों में कमल खिल रहे हैं, जल के पक्षी कूजत रहे हैं, भौंरे गुंजार कर रहे हैं और बहुत रंगों के पक्षी और पशु वन में वऐररहइत होकर विहार कर रहे हैं।


Tuesday, 3 December 2024

अयोध्याकाण्ड

मिलि सपेम रिपुसूदनहि केवटु भेंटेउ राम। भूरि भायं भेंटे भरत लछिमन करत प्रणाम।।_अर्थ_फिर श्रीरामजी प्रेम के साथ शत्रुध्न से मिलकर तब केवट ( निषादराज) से मिले। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बड़े प्रेम से मिले।

भेंटेउ भरत ललकि लघु भाई। बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई‌‌।_अर्थ_ तब लक्ष्मणजी ललककर ( बड़ी उमंग के साथ ) छोटे भाई शत्रुध्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को हृदय से लगा लिया। फिर भरत_शत्रुध्न दोनों भाइयों ने ( उपस्थित) मुनियों को प्रणाम किया और इच्छित आशीर्वाद पाकर वे आनन्दित हुए।

सानुज भरत उमगि अनुरागा। धरि सिर सिय पद पदुम परागा।। पुनि पुनि करत प्रनामु उठाए। सिर कर कमल परसि बैठाए।।_अर्थ_छोटे भाई शत्रुध्न सहित भरतजी प्रेम में उमंगकर सीताजी के चरणकमलों की रज सिर पर धारण कर बार_बार प्रणाम करने लगे। सीताजी ने उन्हें उठाकर उनके सिर को अपने करकमल से स्पर्श 
कर ( सिर पर हाथ फेरकर ) उन दोनों को बैठाया

सीयं असीस दीन्ह मन माहीं। मगन सनेहं देह सुधि नाहीं।। सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भे निसोच उर अपडर बीता।।_अर्थ_सीताजी ने मन_ही_मन आशीर्वाद दिया; क्योंकि वे स्नेह में मग्न हैं, उन्हें देह की सुध_बुध नहीं है। सीताजी को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर भरतजी सोचरहित हो गये और उनके मन का कल्पित भय जाता रहा।

कोउ किछु कहइ न कोउ किछु पूंछा। प्रेम भरा मन निज गति छूंछा।।तेहि अवसर केवटु धीरज धरि। जोरी पानि बिनवत प्रनामु करि।।_अर्थ_उस समय न तो कोई कुछ कहता है और न कोई कुछ पूछता है। मन प्रेम से परिपूर्ण है, वह अपनी गति से खाली है ( अथवा संकल्प_विकल्प और चआंचल्य से शून्य है )। उस अवसर पर केवट ( निषादराज ) धीरज धर और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनती करने लगा_

नाथ साथ मुनिनाथ के मातु सकल पुर लोग। सेवक सेनप सचिव सब आए बिकल बियोग।।_अर्थ_हे नाथ ! मुनिनाथ वशिष्ठ जी के साथ सब माताएं, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मंत्री_आपके वियोग से व्याकुल होकर आये हैं।

सील सिंधु सुनि गुर आगवनू । सिय समीप राखे रिपुदवनू।। चले सवेग राम तेहि काला। धीर धर्म धुर दीनदयाला।।_अर्थ_ गुरु का आगमन सुनकर 
सील सिंधु श्रीरामचन्द्रजी ने सीता के पास शत्रुध्न को रख दिया और वे परम वीर, धर्मधुरंधर दीनदयालु श्रीरामचन्द्रजी उसी समय वेग के साथ चल पड़े।

गुरहिं देखि सादर अनुरागे। दंड प्रणाम करने प्रभु लागे।। मुनिबर धाई लिए उर लाई। प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई।।_अर्थ_ गुरुजी के दर्शन करके लकक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजी प्रेम में भर गये और दण्डवत् प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी ने दौड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रेम में उमंगकर वे दोनों भाइयों से मिले।

प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरी तें दण्ड प्रनामू।। रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुफ्त सनेह समेटा।।_अर्थ_फिर प्रेम से पुलकित होकर केवट ( निषादराज )_ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को दण्ड प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबरदस्ती हृदय से लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो।

रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला।। एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं । बड़ बसइष्ठ सम को जग माहीं।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी की भक्ति सुन्दर मंगलों का मूल है, इस प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाश से फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे_जगत् में इसके समान सर्वथा नीच कोई नहीं और वशिष्ठजी के समान बड़ा कौन है ?


जेहिं लखि लखनहुं तें अधिक मिले मुदित मुनाराउ। सो सीतापति भजन को प्रगट प्रताप प्रभाउ।।_अर्थ_जिस_( निषाद ) को देखकर मुनिराज वशिष्ठजी लक्ष्मणजी से भी अधिक उससे आनन्दित होकर मिले। यह सब सीतापति श्रीरामचन्द्रजी के भजन का प्रत्यक्ष प्रताप और प्रभाव है।

आरत लोग राम सबु जाना। करुनाकर सुजान भगवाना।। जो जेहिं भायं रहा अभिलाषी। तेहि तेहि को तसि तसि रुख राखी।।_अर्थ_ दया की खान, सुजान भगवान् श्रीरामजी ने सब लोगों को दु:खी ( मिलने के लिये व्याकुल ) जाना। तब जो जिस भाव से मिलने का अभिलाषी था, उस उस का उस उस प्रकार से रुख रखते हुए ( उसकी रुचि के अनुसार )

सानुज मिलि पल महुं सब काहू। कीन्ह दूरि दुख दारुने दाहू।। यह बड़ि बात राम कै नाहीं। जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं।।_अर्थ_उन्होंने लक्ष्मणजी सहित पलभर में सब किसी से मिलकर उनके दु:ख और कठिन संताप को दूर कर दिया। श्रीरामचन्द्रजी के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है। जैसे करोड़ों घड़ों में एक ही सूर्य की ( पृथक्_पृथक् ) छाया ( प्रतिबिम्ब ) एक साथ ही दिखती है।

मिलि केवटहि उमगि अनुरागा। पुरजन सकल सराहहिं भागा।। देखीं राम दुखित महतारी। जनु सुबेलि अवलि हिम माहीं।।_अर्थ_समस्त पुरवासी प्रेम में उमंगकर केवट से मिलकर ( उसके भाग्य )की सराहना करते हैं। श्रीरामचन्द्रजी ने सब माताओं को दु:खी देखा। मानो सुंदर लताओं की पंक्तियों को पाला मार गया हो।

प्रथम राम भेंटी कैकेई। सरल सुभायं भगति मति भेईं।। पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी। काल कर्मी बिधि सिर धरि जोरी।।_अर्थ_ सबसे पहले रामजी कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उसकी बुद्धि को तर कर दिया। फिर चरणों में गिरकर काल, कर्म और विधाता के सिर दोष मढ़कर, श्रीरामजी ने उनको शान्त्वना दी।

भेंटी रघुबर मातु सब करि प्रबोधु परितोषु। अंब ईस आधीन जगु काहु न देइअ दोषु।।_अर्थ_फिर श्रीरघुनाथजी सब माताओं से मिले। उन्होंने सबको समझा_बुझाकर संतोष कराया कि हे माता ! जगत् ईश्वर के अधीन है। किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए।

गुर तिय पद बंदे दुहु भाईं। सहित बिप्रतिय जे संग आईं।। गंग गौरी सम सब सनमानीं। देहिं असीसा मुदित मृदु बानी।।_अर्थ_फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मण की स्त्रियों के सहित_जो भरतजी के साथ आयीं थीं, गुरुजी की पत्नी अरुंधति के चरणों की वन्दना की और उन सबका गंगाजी तथा गौरीजी के समान सम्मान किया। वे सब आनंदित होकर कोमल वाणी से आशीर्वाद देने लगीं।


गहि पद लगे सुमित्रा अंका। जनु भेंटी संपति अति रंका।। पुनि जननी चरननइ दोउ भ्राता। परे पेम व्याकुल सब गाता।।_अर्थ_तब दोनों भाई पैर पकड़कर सुमित्राजी की गोद में जा चिपटे। मानो किसी अत्यंत दरिद्र से संपत्ति की भेंट हो गयी हो। फिर दोनों भाई माता कौसल्याजी के चरणों में गिर पड़े। प्रेम के मारे उनके सारे अंग शिथिल हैं।






Friday, 15 November 2024

अयोध्याकाण्ड

राम बास बन संपति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाई सुराजा।। सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू। बिपिन सुहावन पावन देसू।।_ अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के निवास से वन की संपत्ति ऐसे सुशोभित है मानो अच्छे राजा को पाकर प्रजा सुखी हो। सुहावना वन ही पवित्र देश है। विवेक उसका राजा है और वैराग्य मंत्री हैं।

भट जम नियम सैल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुंदर रानी।। सकल अंग सम्पन्न सुराऊ। राम चरन आश्रित चित चाऊ।।_अर्थ_यम ( अहिंसा,, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ) तथा नियम ( शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणिधान) योद्दा हैं। पर्वत राजधानी है, शान्ति तथा सुबुद्धि दो सुन्दर पवित्र रानियां हैं। वह श्रेष्ठ राजा राज्य के सब अंगों से पूर्ण है और श्रीरामचन्द्रजी के चरणों के आश्रित रहने से उसके चित्त में चाव ) आनन्द या उत्साह है।
( स्वामी, अमात्य, सुहृद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना _ राज्य के सात अंग हैं । )

जीति मोह महिपाल दल सहित बिबेक भुआलु।
करत अकंटक राजु पुरं सुख संपदा सुकालु।।_अर्थ_मोहरूपी राजा को सेनासहित जीतकर विवेक रूपी राजा निष्कंटक राज कर रहा है। उसके नगर में सुख, संपति और सुकाल वर्तमान हैं।

बन प्रदेस मुनि बास घनेरे। जनु पुर नगर गाउं गन खेरे।। बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना। प्रजा समाजु न जाइ बखाना।।_अर्थ_ वनरूपई प्रान्तों में जो बहुत _से मुनियों के निवास_स्थान हैं वहीं मानो शहरों, नगरों, गांवों और खेड़ों का समूह है। बहुत _से विचित्र पक्षी और अनेकों पशु ही मानो प्रथाओं का समाज है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

खगहा करि हरि बाघ बराहा। देखि महिष बऋष साजि सराहा।। बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा। जहं तहं मनहुं सेन चतुरंगा।।_अर्थ_ गैंडा, हाथी, सिंह, बाघ, सूअर,भैंस और बैलों को देखकर राजा के साज को सराहते ही बनता है। ये सब आपस का वैर छोड़कर जहां _तहां एक साथ विचरते हैं। यही मानो चतुरंगिणी सेना है।

झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं। मनहुं निसान बिबिध बिधि बाजहिं।। चक चकोर चातक सुक पिक गन। कूजत मंजु मराल मुदित मन।।_अर्थ_पानी के झरने झड़ रहे हैं और मत्त हाथी चिग्घाड़ रहे हैं। वे ही मानो वहां अनेक प्रकार के नगाड़े बज रहे हैं। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता तथा कोयलों के समूह और सुंदर हंस प्रसन्न मन से कूजत रहे हैं।

आलिगन गावत नाचत मोरा। जनु सुराज मंगल चहुं ओरा।। बेलि बिटप तृन सफल सफूला। सब समाजु मुद मंगल मूला।।_अर्थ_भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं और मोर नाच रहे हैं। मानो उस अच्छे राज्य में चारों ओर मंगल हो रहा है। बेल, वृक्ष, तृण सब फल और फूलों से युक्त हैं। सारा समाज आनंद और मंगल का मूल बन रहा है।

राम सैल सोभा निरखि भरत हृदयं अति पेमु। तापस फल जनु पाई जिमि सुखी सिराने नेमु।।_अर्थ_श्रीरामजी के पर्वत की शोभा देखकर भरतजी के हृदय में अत्यंत प्रेम हुआ। जैसे तपस्वी नियम का समाप्ति होने पर तपस्या का फल पाकर खुश होता है।

तब केवट ऊंचे चढ़ि धाई। कहेउ भरत सन भुजा उठाई।। नाथ देखिअहिं बिटप बिहाला। पाकरि जंबु रसाल तमाला।।_अर्थ_ तब केवट दौड़कर ऊपर चढ़ गया और भुजा उठाकर भरतजी से कहने लगा_हे नाथ ! ये जो पाकर, जामुन, आम और तमिल के विशाल वृक्ष दिखाई देते हैं,।

जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा। मंजु बिसार देखि मनु मोहा।। नील सघन पल्लव फल लाला। अबिरल छांह सुखद सब काला।।_अर्थ_जिन श्रेष्ठ वृक्षों के बीच में एक सुन्दर विशाल वट का वृक्ष सुशोभित है, जिसको देखकर सब मोहित हो जाता है, उसके पत्ते नीले और सघन हैं और उसमें लाल फल लगे हैं। उसकी घनी छाया सब ऋतुओं को सुख देनेवाली है।

मनहु तिमिर अरुनमय रासी। बिरचि बिधि संकेलि सुषमा सी।। ए तरु सरित समीप गोसाईं। रघुबर परनकुटी जहं छाई।।_अर्थ_मानो ब्रह्माजी ने परम शोभा को एकत्र करके अन्धकार और लालिमामयी राशि_सी रच दी है। हे गोसाईं ! ये वृक्ष नदी के समीप है जहां श्रीराम की पर्णकुटी छाई है।

तुलसी तरुवर बिबिध सुहाए। कहुं कहुं सियं कहुं लखन लगाए।। बट छायां वेदिका बनाई। सिय निज पानि सरोज सुहाई।।_अर्थ_वहां तुलसी जी के बहुत _से सुन्दर वृक्ष सुशोभित हैं, जो कहीं_कहीं सीताजी और कहीं लक्ष्मणजी ने लगाये हैं। इसी बड़ की छाया में सीताजी ने अपने कर कमलों से सुन्दर वेदी बनायी है।

जहां बैठि मुनिगण सहित नित सिय रामु सुजान। सुनहिं कथा इतिहास सब आगम निगम पुरान।।_अर्थ_जहां सुजान श्रीसीतारामजी मुनियों के वृंद समेत बैठकर नित्य  शास्त्र, वेद और पुराणों के सब कथा इतिहास सुनते हैं।

सखा बचन सुनि बिटप निहारी। उमगें भरत बिलोचन बारी।। करत प्रणाम चले दोउ भाई। कहत प्रीति सारद सकुचाई।।_अर्थ_सखा के वचन सुनकर वृक्षों को देखकर भरतजी के नेत्रों में जल उमड़ गया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले। उनके प्रेम का वर्णन करने में सरस्वती जी भी सकुचाती है।

हरषहिं निरखि राम पद अंका। मानहु पारसु पायउ रंका।। रज सिर धरि हियं नयनन्हि लावहिं। रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के चरण चिन्ह देखकर भरतजी के नेत्रों में जल उमड़ आया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले।

देखि भरत गति अकथ अतीवा। प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा।। सबहिं सनेह बिबस मग भूला। कहि सउपंथ सुर बरिसहिं फूला।।_अर्थ_भरतजी की अत्यन्त अनिवर्चनीय दशा देखकर वन के पशु, पक्षी और जड़ ( वृक्षादि ) जीव प्रेम में मग्न हो गये। प्रेम के विशेष वश होने से सखा निषादराज को भी रास्ता भूल गया। तब देवता सुन्दर रास्ता बतलाकर फूल बरसाने लगे।

निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे।। होता न भूतल भाई भरत को। अचरज सचर चर अचर करत को।।_अर्थ_भरत के प्रेम की इस स्थिति को देखकर सिद।ध और साधक लोग भी अनुराग से भर गये और उनके स्वाभाविक प्रेम की प्रशंसा करने लगे कि इस पृथ्वीतल पर भरत का जन्म ( अथवा प्रेम ) न होता, तो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कौन करता ?

पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गंभीर। मति प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।।_अर्थ_प्रेम अमृत है, बिरह मन्दरआचल पर्वत है, भरतजी गहरे समुद्र हैं। कृपा के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी ने देवता और साधुओं के हित के लिये स्वयं ( इस भरत रूपी गहरे समुद्र को अपने विरहरूपी मन्दराचल से ) मथकर यह प्रेमरूपी अमृत प्रकट किया है।

सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा।। भरत दीख प्रभु आश्रम पावन। सकल सुमंगल सदनु सुहावन।।_अर्थ _सखा निषादराज सहित इस मनोहर जोड़ी को इस सघन वन की आड़ के कारण ढनलक्ष्मणजी नहीं देख पाये। भरतजी ने प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के समस्त सुमंगला के धाम और सुन्दर पवित्र आश्रम को देखा।

करत प्रबेस मिटे दुख दावा। जनु जोगीं परमारथु पावा।। देखें भरत लखन प्रभु आगे। पूछें बचन कहत अनुरागे।।_अर्थ_आश्रम में प्रवेश करते ही भरतजी का दु:ख और दाह ( जलन ) मिट गया, मानो जोगी को परमार्थ ( परम तत्व ) की प्राप्ति हो गयी। भरतजी ने देखा कि लक्ष्मणजी प्रभु के आगे खड़े हैं और पूछे हुए वचन प्रेमपूर्वक कह रहे हैं ( पूछी हुई बात का प्रेमपूर्वक उत्तर दे रहे हैं )।

सीस जटा कटि मुनि पट बांधे। तूने कसें कर सर्च धनु कांधे।। बेदी पर मुनि साधु समाजू। सीय सहित राज्य रघुराजू।।_अर्थ_ सिर पर जटा है। कमर में मुनियों का ( वल्कल ) वस्त्र बांधें हैं और उसी में तरकस कसे हैं। हाथ में बाण तथा कंधे पर धनुष है। वेदी पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा है और सीताजी सहित श्रीरघुनाथजी विराजमान हैं।

बलकल बसन जटिल तनु स्यामा। जनु मुनिवेष कीन्ह रति कामा।। कर कमलनि धनु सायकु फेरत। जिय की जरनि भरत हंसी हेरत।।_अर्थ_श्रीरामजी के वलकल वस्त्र हैं, जटा धारण किये हैं, श्याम शरीर है। ( सीतारामजी ऐसे लगते हैं ) मानो रति और कामदेव ने मुनि का वेश धारण किया हो। श्रीरामजी अपने कर_कमलों से धनुष _बाण फेर रहे हैं, और हंसकर देखते ही जी का जलन हर लेते हैं ( अर्थात् जिसकी ओर भी एकबार हंसकर देख लेते हैं, उसी को परम आनन्द और शान्ति मिल जाती है। )

लसत मंजु मुनि मंडली मध्य सीय रघुचन्दु। ग्यान
सभां जनु तनु धरें गति सच्चिदानंदु।।_अर्थ_सुन्दर मुनि मंडली के बीच में सीताजी और रघुकुलचंद श्रीरामचन्द्रजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो ज्ञान की सभा में साक्षात् भक्ति और सच्चिदानंद शरीर धारण करके विराजमान हैं।

सानुज सखा समेत मगन मन। बिसरे हरष सोक सुख दुख गन।। पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं। भूतल परे लकुट की नाईं।।_अर्थ_ छोटे भाई शत्रुध्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन ( प्रेम में ) मग्न हो रहा है। हर्ष_शोक, सुख_दुख आदि सब भूल गये हैं। 'हे नाथ ! रक्षा कीजिये, हे गोसाईं ! रक्षा कीजिये, ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े।

बचन सप्रेम लखन पहिचाने। करत प्रनामु भरत जियं जाने।। बंधु सनेह सरस एहि ओरा। उत साहिब सेवा बस जोरा।।_अर्थ_प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मणजी ने पहचान लिया और मन में जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। ( वे श्रीरामजी की ओर मुंह किये हुए खड़े थे, भरतजी पीठ_पीछे थे; इससे उन्होंने देखा नहीं।) अब इस ओर तो भाई भरतजी का सरस प्रेम और उधर स्वामी श्रीरामचन्द्रजी की सेवा की प्रबल परवशता।

मिलि न जाई नहिं गुदरत बनई। सुकबि लखन मन की गति भनई।। रहे राखि सेवा पर भालू चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू।।_अर्थ_न तो ( क्षणभर के लिये भी सेवा से पृथक् होकर ) मिलते ही बनता है और न ( प्रेमवश ) छोड़ते ( उपेक्षा करते ) ही। कोई श्रेष्ठ कवि ही लक्ष्मणजी के चित्त की इस गति ( दुविधा)_का वर्णन कर सकता है। वे सेवा पर भार रखकर रह गये ( सेवा को ही विशेष महत्वपूर्ण समझकर उसी में लगे रहे ) मानो चढ़ी हुई पतंग को खिलाड़ी ( पतंग उड़ानेवाला ) खींच रहा हो।

कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनामु करत रघुनाथा।। उठे राम सुनि प्रेम अधीरा। कहुं पट कहुं निषंग धनु तीरा।। लक्ष्मणजी ने प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा_हे रघुनाथजी! भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही श्रीरघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण ।

बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान। भरत राम की मिलनि लखि बिसरू सबहिं अपान।।_अर्थ_ कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी ने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया। भरतजी और श्रीरामजी के मिलने की रीति को देखकर सबको अपनी सुध भूल गयी।

मिलनि प्रीति किमी जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी।। परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अस्मिता बिसराई।।_अर्थ_ मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाय ? वह तो कबिकुल के लिये कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई ( भरतजी और श्रीरामजी) मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को भुलाकर परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं।

कहहु सुपेम प्रगट को करई। केहि छाया कबि मति अनुसरई।। कबिहि अरथ आखर बलु सांचा। अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा।।_अर्थ_कहिये, उस श्रेष्ठ प्रेम को कौन प्रगट करें ? कवि की बुद्धि किसकी छाया का अनुसरण करें ? कवि को तो अक्षर और अर्थ का ही सच्चा बल है। नट ताल की गति के अनुसार ही नाचता है।

अगम सनेह भरत रघुबर को।  जहं न जाइ मनु बिधि हरि हर को।। सो मैं कुमति कहुं केहि भांती। बाज सुराग कि गांडर तांती।।_अर्थ_भरतजी और श्रीरघुनाथजी का प्रेम अगम्य है, जहां ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का भी मन नहीं जा सकता। उस प्रेम को मैं कुबुद्धि किस प्रकार कहूं ! भला गांडर की तांत से भी कहीं सुन्दर राग बज सकता है ? ( तालाबों और झीलों में एक तरह की घास होती है, उसे गांडर कहते हैं।

मिलनि बिलोके भरत रघुबर की। सुरगन सभय धकधकी धरकी।। समुझाए सुरगुरु जग जागे। बरषि प्रसून प्रसंसन लागे।।_अर्थ_भरतजी और श्रीरामजी के मिलने का ढ़ंग देखकर देवता भयभीत हो गये, उनकी धुकधुकी धड़कने लगी। देवगुरु बृहस्पतिजी ने समझाया, तब कहीं वे मूर्ख चेते और फूल बरसाकर प्रशंसा करने लगे।

Thursday, 10 October 2024

अयोध्याकाण्ड

एतना कहत नीति रस भूला। रन रस बिटपु पुलक मिस भूला।। प्रभु पद बंदि सीस रज राखी। बोले सत्य सहज बलु भाषी।।_अर्थ_इतना कहते ही लक्ष्मणजी नीतिरस भूल गये और युद्धरसरूपी वृक्ष के बहाने से फूल उठा ( अर्थात् नीति की बात कहते_कहते उनके शरीर में वीर_रस छा गया )। वे प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के चरणों की वन्दना करके, चरण_रज को सिर पर रखकर सच्चा और स्वाभाविक बल कहते हुए बोले।

अनुचित नाथ न मानब मोरा। भरत हमहि उपचार न थोड़ा।। कहं लगि सहिअ रहिअ मनु मारें। नाथ साथ धनु हाथ हमारे।।_अर्थ_ हे नाथ ! मेरा कहना अनुचित न मानियेगा। भरत ने  हमें कम नहीं प्रचारा है ( हमारे साथ कम छेड़छाड़ नहीं की है )। आखिर कहां तक सहा जाय और मन मारे रहा जाय, जब स्वामि हमारे साथ हैं और धनुष हमारे हाथ में है।

छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुज जगु जान।
लातहुं मारे चढ़ति सिर नीच को धूरि समान।।_अर्थ_ क्षत्रिय जाति, रघुकुल में जन्म और फिर मैं रामजी ( आप )_का अनुगामी ( सेवक ) हूं, यह जगत् जानता है। ( फिर भला कैसे सहा जाय ? ) धूल के समान नीच कौन है, परन्तु वह भी लात मारकर सिर ही चढ़ती ।

उठि कर जोरी रजायसु मागा। मनहुं बीर रस सोवत जागा।। बांधि जटा सिर कसि कटि माथा।
साजि सरासनु सायक हाथा।।_अर्थ_ यों कहकर लक्ष्मणजी ने उठकर, हाथ जोड़कर आज्ञा मांगी। मानो वीररस सोते से जाग उठा हो। सिर पर जटा बांधकर कमर में तरकस कस लिया और धनुष को सजकर तथा बाण हाथ हाथ में लेकर कहा _।

आजु राम सेवक जसु लेऊं। भरतहिं समर सिखावन देऊं।। राम निरादर कर फल पाई। सोवहु समर सेज दोउ भाई।।_अर्थ_ आज मैं श्रीराम ( आप )_का सेवक होने का यश लूं और भरत को संग्राम में शिक्षा दूं। श्रीरामचन्द्रजी ( आप )_के निरादर का फल पाकर दोनों भाई ( भरत_शत्रुध्न ) रणशैय्या पर सोवें।

आइ बना भल सकल समाजू। प्रगट करउं रिस पाछिल आजू।। जिमि करि निकर दलइ मृगराजू
। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू।।_अर्थ_अच्छा हुआ जो सारा समाज आकर एकत्र हो गया। आज मैं पिछला सब क्रोध प्रकट करूंगा। जैसे सिंह हाथियों के झुंड को कुचल डालता है और बाज जैसे लिए को लपेट में ले लेता है।

तैसेहिं भरतहिं सेन समेता। सानुज निद्रा निपातउं खेता।। जौं सहाय कर संकरु आई। तौं मारउं रन राम दोहाई।।_अर्थ_वैसे ही भरत को सेनासमेत और छोटे भाई सहित तिरस्कार करके मैदान में पछाड़ूंगा। यदि शंकरजी भी आकर उनकी सहायता करें, तो भी, मुझे रामजी की सौगन्ध है, मैं उन्हें युद्ध में ( अवश्य) मार डालूंगा ( छोड़ूंगा नहीं)।

अतिसरोष माखे लखनु लखि सुनि साथ प्रवान। सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान।।_अर्थ_ लक्ष्मणजी को अत्यन्त क्रोध से तमतमाया हुआ देखकर और उनकी प्रामाणिक ( सत्य ) सौगन्ध सुनकर सबलोग भयभीत हो जाते हैं और लोकपाल घबराकर भागना चाहते हैं।

जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहुबलु बिपुल बखानी।। तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा। को कहा सका को जाननिहारा।_अर्थ_सारा जगत् भय में डूब गया। तब लक्ष्मणजी के अपार बाहुबल की प्रशंसा करती हुई आकाशवाणी हुई _ हे तात ! तुम्हारे प्रताप और प्रभाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है ?

अनुचित उचित काजु किछु होऊ। समुझि करिअ भल कह सब कोऊ।। सहसा करि पाछे पछिताहीं। कहहिं बेद बुध तें बुध नाहीं।।_अर्थ_परन्तु कोई भी काम हो, उसे अनुचित, उचित खूब समझ_बूझकर किया जाय तो सब कोई अच्छा कहते हैं। वेद और विद्वान कहते हैं कि जो बिना बिचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान नहीं हैं।

सुनि सुर बचन लखन सकुचाने। राम सीयं सादर सनमाने।। कहीं तात तुम्ह नीति सुहाई। सब तें कठिन राजमदु भाई।।_अर्थ_ देववाणी सुनकर लक्ष्मणजी सकुचा गये। श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी ने उनका आदर के साथ सम्मान किया ( और कहा_ ) हे तात ! तुमने बड़ी सुन्दर नीति कही। हे भाई ! राज्य का मद सबसे कठिन मद है।

जौं न होत जग जनम भरत को। सकल धर्म धुर  धरनि धरत को।। कबि कुल अगम भरत गुन गाथा। को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा।।_अर्थ_यदि जगत् में भरत का जन्म न होता, तो पृथ्वी पर संपूर्ण धर्मों की धूरी कौन धारण करता ? हे रघुनाथजी ! कविकुल के लिये अगम ( उनकी कल्पना से अतीत ) भरतजी के गुणों की कथा आपके सिवा और कौन जान सकता है ?

लखन राम सिय सुनि सुर बानी। अति सुख लहेउ न जाइ बखानी।। कहां भरत सब सहित सहाए। मंदाकिनी पुनीत नहाए।।_अर्थ_लक्ष्मणजी, श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी ने देवताओं की वाणी सुनकर अत्यंत सुख पाया, जो वर्णन नहीं किया जा सकता। यहां भरतजी ने सारे समाज के साथ मंदाकिनी में स्नान किया। 


सरित समीप राखि सब लोगा। मागि मातु गुर सचिव नियोगा।। चले भरत जहं सीय रघुराई। साथ निषादनाथु लघु भाई।।_ अर्थ_ फिर सबको नदी के समीप ठहराकर तथा माता, गुरु और मंत्री की आज्ञा मांगकर निषादराज और शत्रुघ्न को साथ लेकर भरतजी वहां ठहराये जहां श्रीसीताजी और रघुनाथजी थे।

समुझि मातु करतब सकुचाहीं। करत कुतरक कोटि मन माहीं।। राम लखन सिय सुनि मम नाऊं। उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊं।।_अर्थ_ भरतजी अपनी माता कैकेयी की करनी को समझकर ( याद करके ) सकुचाते हैं और मन में करोड़ों ( अनेकों ) कुतर्क करते हैं ( सोचते हैं _) श्रीराम, लक्ष्मण और सीताजी मेरा नाम सुनकर स्थान छोड़कर कहीं दूसरी जगह न उठकर चले जायं।

मातु मते महुं मानि मोहि जो कछु करहिं सो थोर। अघ अवगुन छमि आदरहिं समुझि अपनी ओर।।_अर्थ_ मुझे माता के मत में मानकर वे जो कुछ भी करें सो थोड़ा है, पर वे अपनी ओर समझकर ( अपने विरद और संबंध को देखकर) मेरे पापों और अवगुणों को क्षमा करके मेरा आदर ही करेंगे।

जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी। जौं सनमानहिं सेवक मानी।। मोरें सरन रामहिं कि पनही। राम सुस्वामि दोसु सब जनहीं।।_अर्थ_चाहे मलिन मन जानकर मुझे त्याग दें, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें ( कुछ भी करें ); मेरे तो श्रीरामचन्द्रजी की जूतियां ही शरण हैं। श्रीरामचन्द्रजी तो अच्छे स्वामी हैं, दोष तो सब दास का ही है।

जग जस भाजन चातक मीना। नेम पेम निज निपुन नवीना।। अस मग गुनत चले मग जाता। सकुच सनेहु सिथिल सब गाता।।_अर्थ_ जगत् में यश के पात्र तो चातक और मछली ही हैं, जो अपने नेम और प्रेम को सदा नया बनाने में निपुण हैं। ऐसा मन में सोचते हुए भरतजी मार्ग में चले जाते हैं। उनके सब अंग प्रेम और संकोच से शिथिल हो रहे हैं।

फेरति मनहुं मातु कृत खोरी। चलत भगति बल धीरज धोरी।। जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ। तब पथ परत उताइल पाउ।।_अर्थ_माता की की हुई बुराई मानो उन्हें लौटाती है, पर धीरज की धूरी को धारण करनेवाले भरतजी भक्ति के बल से चले जाते हैं। जब श्रीरघुनाथजी के स्वभाव को समझते ( स्मरण करते ) हैं तब मार्ग में  उनके पैर जल्दी_जल्दी पड़ने लगते हैं।

भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहं जल अलि गति जैसी।। देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।_अर्थ_उस समय भरत की दशा कैसी है ? जैसी जल के प्रवाह जल के भौंरे की गति होती है। भरतजी का संकोच और प्रेम देखकर उस समय निषाद विदेह हो गया ( देह की सुध_बुध भूल गया )।

लगे होन मंगल सगुन सुनि गुनि कहत निषादु। मिटिहि सोच होइहि हरषु पुनि परिनाम बिषादु।।
_अर्थ_मंगल शकुन होने लगे। उन्हें सुनकर और विचारकर निषाद कहने लगा_सोच मिटेगा, हर्ष होगा, पर फिर अन्त में दु:ख होगा।

सेवक बचन सत्य सब जाने। आश्रम निकट जाइ निअराने।। भरत दीख बन सैल समाजू। मुदित छुधित जनु पाई सुनाजू।।_अर्थ_भरतजी ने सेवक ( गुह )_के सब वचन सत्य जाने और वे आश्रम के समीप जा पहुंचे। वहां के वन और पर्वतों के समूह को देखा तो भरतजी इतने आनंदित हुए मानो कोई भूखा अच्छा अन्न पा गया हो।

ईति भीति जनु प्रजा दुखारी। त्रिबिधि ताप पीड़ित ग्रह मारी।। जाइ सुराज सुदेस सुखारी होहिं भरत गति तेहि अनुहारी।।_अर्थ_जैसे ईति के भय से दुखी हुई तीनों ( अध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक ) तापो तथा क्रूर ग्रहों तथा क्रूर ग्रहों और महामारियों से पीड़ित प्रजा उत्तम देश और उत्तम राज्य में जाकर सुखी हो जाय, भरतजी की गति ( दशा ) ठीक उसी प्रकार की हो रही है।
( अधिक जल बरसना, न बरसना, चूहों का उत्पात, टिड्डियां, तोते और दूसरे राजा की चढ़ाई_खेतों में बाधा देनेवाले छः उपद्रवों को 'ईति' कहते हैं। )

Sunday, 15 September 2024

अयोध्याकाण्ड

तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ। राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ।।_अर्थ_ उस दिन वहीं ठहरकर दूसरे दिन प्रात:काल ही श्रीरघुनाथजी का स्मरण करके चले। साथ के सब लोगों को भरतजी के समान ही श्रीरामजी के दर्शन की लालसा ( लगी हुई ) है।

मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू।। भरतहिं सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं राम मिटइ दुख दाहू।।_अर्थ_सबको मंगवसूचक शकुन हो रहे हैं। सुख देनेवाले ( पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बायें ) नेत्र और भुजाएं फड़क रही हैं। समाजसहित भरतजी को उत्साह हो रहा है कि श्रीरामचन्द्रजी मिलेंगे और दु:ख का दाह मिट जायगा।

करत मनोरथ जस जियं जाके। जाहिं सनेह सुरां सब छाके।। सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बि बल बचन पेम बस बोलहिं।।_अर्थ_जिसके जी में जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है। सब स्नेह रूपी मदिरा से छके ( प्रेम में मतवाले हुए) चले जा रहे हैं। अंग शिथिल हैं, रास्ते में पैर डगमगा रहे हैं और प्रेमवश विह्वल बचन बोल रहे हैं।

रामसखा तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा।। जासु समीप स्थित पर तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा।।_अर्थ_रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वत शिरोमणि कामदगिरि दिखलाया, जिसके निकट ही पयस्वनइ नदी के तट पर सीता समेत दोनों भाई निवास करते हैं।

देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकी जीवन रामा।। प्रेम मगन अस राजसमाजू।  जनु फिरि अवध चले रघुराजू।।_अर्थ_सबलोग उस पर्वत को देखकर ' जानकी_जीवन श्रीरामचन्द्रजी की जय हो।' ऐसा कहकर दण्डवत् प्रणाम करते हैं। राज-समाज प्रेम में ऐसा मग्न है मानो श्रीरघुनाथजी अयोध्या लौट चले हों।

भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु। कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु।।_अर्थ_भरतजी का उस समय जैसा प्रेम था, वैसा शेषजी भी नहीं कह सकते। कवि के लिये तो वह वैसा ही अगम है जैसा अहंता और ममता से मलिन मनुष्यों के लिये ब्रह्मानंद।

सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढ़रकें।। जलु जलु देखि बसे निसि  बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें।।_अर्थ_सब लोग श्रीरामचन्द्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक ( दिनभरमें ) दो ही कोस चल पाये और जल_स्थल का सुपास देखकर रात को वहीं ( बिना खाये पाये ही ) रह गये। रात बीतने पर श्रीरघुनाथजी के प्रेमी भरतजी ने आगे गमन किया।

उहां राम रजनी अवसेषा। जागे सीयं सपन अस देखा।। सहित समाज भरत जनु आये। नाथ वियोग ताप तन ताए।।_अर्थ_उधर श्रीरामचन्द्रजी रात शेष रहते ही जागे। रात को सीताजी ने ऐसा स्वप्न देखा ( जिसे वे श्रीरामजी को सुनाने लगीं )  मानो समाजसहित भरतजी यहां आये हैं। प्रभु के वियोग की अग्नि से उनका शरीर संतप्त किया।

सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी।। सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन।।_अर्थ_सभी लोग मन में उदास, दीन और दु:खी हैं। सासुओं को दूसरी ही सूरत में देखा। सीताजी का स्वप्न सुनकर श्रीरामचन्द्रजी के नेत्रों में जल भर आया और सबको सोच से छुड़ा देनेवाले प्रभु स्वयं ( लीलासे ) सोच के वश हो गये।

लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाल सुनाइहि कोई। अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजा पुरारि साधु सनमाने।। _अर्थ _( और बोले ) लक्ष्मण ! यह स्वप्न अच्छा नहीं है। कोई भीषण कुसमाचार ( बहुत ही बुरी खबर ) सुनावेगा।  ऐसा कहकर उन्होंने भाई सहित स्नान किया और त्रिपुरारि महादेवजी का पूजन करके साधुओं का सम्मान किया।

सनमानि सुर मुनिवृंद बैठे उतर दिसि देखत भए। नभ धूलि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए।। तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे। सब समाचार किरात कओलन्हइ आइ तेहि अवसर कहे।।_अर्थ_ देवताओं का सम्मान ( पूजन ) और मुनियों की वन्दना करके श्रीरामचन्द्रजी बैठ गये और उत्तर दिशा की ओर देखने लगे। आकाश में धूल छा रही है; बहुत _से पशु और पक्षी व्याकुल होकर भागे हुए प्रभु के आश्रम को आ रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी यह देखकर उठे और सोचने लगे कि क्या कारण है ? वे चित्त में आश्चर्य युक्त हो गये। इसी समय कोल_भीलों ने आकर सब समाचार कहे।

सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर। सर्द सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल।।_अर्थ_ तुलसीदासजी कहते हैं कि सुन्दर मंगल वचन सुनते ही श्रीरामजी के मन में बड़ा आनन्द हुआ। शरीर में पुलकावली छा गयी, और शरद ऋतु
के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गये।

बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू।। एक आइ अस कहा बहोरी। सेना संग चतुरंग न थोरी।।_अर्थ_ सीतापति श्रीरामचन्द्रजी 
पुनः सोच के वश हो गये कि भरत के आने का क्या कारण है? फिर एक ने आकर कहा कि उनके साथ में बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना भी है।

सो सुनि रामहिं भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू।। भरत सुभाऊ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावती नाहीं।।_अर्थ_यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी को अत्यंत सोच हुआ। इधर तो पिता का वचन और इधर भाई भरतजी का संकोच ! भरतजी के स्वभाव को मन में समझकर तो प्रभु श्रीरामचन्द्रजी चित
त को ठहराने के लिये कोई स्थान ही नहीं पाते हैं।

समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुं साधु सयाने।। लखन लखेउ प्रभु हृदय खभारु। कहत समय सब नीति बिचारू।।_अर्थ_ तब यह जानकर समाधान हो गया कि भरत साधु और सयाने हैं और मेरे कहने में ( आज्ञाकारी ) हैं। लक्ष्मणजी ने देखा कि प्रभु श्रीरामजी के हृदय में चिंता है तो वे समय के अनुसार अपना नीतियुक्त विचार कहने लगे_

बिनु पूछें कछु कहुं गोसाईं। सेवकों समान ढ़ईठ ढ़िठाई।। तुम्ह सर्बज्ञ सिरोमनि स्वामी। अपनी समुझि कहुं अनुगामी।।_अर्थ_ हे स्वामी ! आपके बिना ही पूछे मैं कुछ कहता हूं; सेवक समय पर ढ़िठाई करने से ढ़ीठ नहीं समझा जाता है ( अर्थात् जब आप पूछें तब मैं कहूं, ऐसा अवसर नहीं है; इसलिये मेरा यह कहना ढ़िठाई नहीं होगा ) । हे स्वामी ! आप सर्वज्ञ ओं में शिरोमणि हैं ( सब जानते ही हैं )। मैं सेवक तो अपनी समझ की बात कहता हूं।

नाथ सुहृदं सुचि सरल चित सील सनेह निधान। सब पर प्रीति प्रतीति जियं जानिअ आपु समान।।_अर्थ_ हे नाथ ! आप परम सुहृद ( बिना ही कारण परम हित करनेवाले), सरलहृदय तथा शील और स्नेह के भण्डार हैं, आपका सभी पर प्रेम और विश्वास है, और अपने हृदय में सबको अपने ही समान जानते हैं।

बिषई जीव पाइ प्रभु ताई। मूढ़ मोहबस होहिं जनाई।। भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जग जाना।।_अर्थ_ परन्तु मूढ़ विषयी जीव प्रभुता पाकर मओहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। भरत नईतइपरआयण, साधु और चतुर हैं तथा प्रभु ( आप )_के चरणों में उनका प्रेम है, इस बात को सारा जगत् जानता है।

तेऊ आज राम पद पाई। चले धर्म मरजाद  मेटाई।। कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी।।_अर्थ_वे भरतजी आज श्रीरामजी ( आप )_का  पद ( सिंहासन या अधिकार) पाकर धर्म की मर्यादा को मिटाकर चले हैं। कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि रामजी ( आप ) वनवास में अकेले असहाय हैं,।।

करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू।। कोटि प्रकार कलपि कुटिलाईं। आए दल बटोरि दोउ भाई।।_अर्थ_ अपने मन में बुरा विचार करके, समाज जोड़कर राज्य को निष्कंटक करने के लिये यहां आये हैं। करोड़ों ( अनेकों ) प्रकार की कुटिलताएं रचकर सेना बटोरकर दोनों भाई आये हैं।

जौं जियं होति न कपट कुचाली। केहि सोहाती रथ बाजि गजाली।। भरतहिं दोसु देखि को जाएं। जग बौराइ राजु पद पाएं।।_अर्थ_यदि इनके हृदय में कपट कुचाल न होती तो रथ, घोड़े, हाथियों की कतार ( ऐसे समय ) किसे सुहाती ? परन्तु भरत को ही व्यर्थ कौन दोष दे ? राजपद पा जाने पर सारा जगत् ही पागल ( मतवाला ) हो जाता है।

ससि गुर तिय गामी नहुष चढ़ेउ भूमि सुर जान। लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान।।_अर्थ_चन्द्रमा गुरुपत्नीगामी हुआ, राजा नहुष ब्राह्मणों की पालकी पर चढ़ा। और राजा वेन के समान नीच तो कोई नहीं होगा, जो लोक और वेद दोनों से विमुख हो गया।

सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू।। भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ।।_अर्थ _ सहस्त्रबाहु, देवराज इन्द्र और त्रिशंकू आदि किसको राजमद ने कलंक नहीं दिया ? भरत ने यह उपाय उचित ही किया है। क्योंकि शत्रु और ऋण को कभी जरा भी शेष नहीं रखना चाहिये।

एक कीन्ह नहिं भरत भलाई। निदरे राम जानि असहाई।। समुझि परहि सोच आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी।।_अर्थ_हां, एक बात भरत ने अच्छी नहीं की, जो रामजी ( आप )_को  असहाय जानकर उनका निरादर किया ! पर आज संग्राम में श्रीरामजी ( आप )_का क्रोधपूर्ण मुख देखकर यह बात भी उनकी समझ में विशेष रूप से आ जायगी ( अर्थात् इस निरादर का फल वे भी अच्छी तरह पा जायेंगे )।

Friday, 23 August 2024

अयोध्याकाण्ड

जमुन तीर तेहि दिन करि बासू। भयउ समय समय सबहिं सुपासू।। रातिहिं घाट घाट की तर्जनी। आईं अगनित जात न बरनी।।_अर्थ_उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके लिये ( खान_पान आदि की ) सुन्दर व्यवस्था हुई। ( निषादराज का संकेत पाकर )  रात_ही_रात में घाट_घाट की अगनित नावें वहां आ गयीं, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

प्रात पार भए एकहिं खेवां।  तोषे रामसखा की सेवां।। चले नहाई नदिहि सिर नाई। साथ निषादनाथ दोउ भाई।।_अर्थ_सवेरे एक ही खेले में सब लोग पार हो गये और श्रीरामचन्द्रजी के सखा निषादराज की इस सेवा से संतुष्ट हुए। फिर स्नान करके नदी को सिर नवाकर निषादराज ज्ञके साथ दोनों भाई चले।

आगें मुनिवर बाहन आछें। राज-समाज जाइ सब पाछें।। तेहि पाछें दोउ बंधु पयआदएं। भूषन बसन बेष सुठि सादें।।_अर्थ_ आगे अच्छी_अच्छी सवारियों पर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राज-समाज जा रहा है। उसके पीछे दोनों भाई सादे भूषण_वस्त्र और वेष से पैदल चल रहे हैं।

सेवक सुहृद सचिवसुत साथा। सुमिरत लखनउ सीय रघुनाथा।। जहं जहं राम बास बिश्रामा। तहं तहं करहिं सप्रेम प्रनामा।।_अर्थ_ सेवक, मित्र और मंत्री के पुत्र उनके साथ हैं। लक्ष्मण, सीताजी और श्रीरघुनाथजी का स्मरण करते जा रहे हैं। जहां_जहां श्रीरघुनाथजी ने निवास और विश्राम किया था, वहां_वहां वे प्रेम सहित प्रणाम करते हैं।

मगवासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ। देखि सरूप सनेह सब मुदित जनमफल पाइ।।_अर्थ_मार्ग में रहनेवाले स्त्री _पुरुष यह सुनकर और घर का काम_काज छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और उनके रूप ( सौंदर्य ) और प्रेम को देखकर वे सब जन्म लेने का फल पाकर आनन्दित होते हैं।

कहहिं सप्रेम एक एक पाहीं। रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं।। बय बपु बरन रूप सोइ आली।
सीलु सनेहु सरिस सम चाली।।_अर्थ_गांवों की स्त्रियां एक दूसरी से प्रेमपूर्वक कहती हैं_सखी ! ये राम लक्ष्मण हैं कि नहीं? हे सखी ! उनकी अवस्था, शरीर और रंग_रूप तो वही है। सील, स्नेह उन्हीं के सदृश है और चाल भी उन्हीं के समान है।

बेषु न सो सखि सीय न संगा। आगें अपनी चली चतुरंगा।। नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा। सखि संदेहु होइ एहिं भेदा।।_अर्थ_परन्तु हे सखी ! इनका न तो वह वेष ( वल्कलवस्त्रधारी मुनिवेष ) है, न सीताजी ही संग है। और इनके आगे चतुरंगिणी सेना चली जा रही है। फिर इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं, इनके मन में खेद है। है सखी ! इसी भेद के कारण संदेह होता है।

जासु तरक तियगन मन मानी। कहहिं सकल तेहि सम न सयानी। तेहि सराहि बानी फुरि पूजी।_अर्थ_उसका तर्क ( युक्ति ) अन्य स्त्रियों के मन भाया। सब कहती हैं कि इसके समान सयानी। उसकी सराहना करके और  'तेरी वाणी सत्य है' इस प्रकार उसका सम्मान करके दूसरी स्त्री मीठे वचन बोली।

कहि सपेम सब कथा प्रसंगू। जेहिं बिधि राम राज रस भंगू।। भरतहिं बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी।।_अर्थ_ श्रीरामजी के राजतिलक का आनंद जिस प्रकार से भंग हुआ था वह सब कथा प्रसंग प्रेमपूर्वक कहकर फिर वह भाग्यवती स्त्री भरतजी के शील, स्नेह और स्वभाव की सराहना करने लगी।

चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु। जात मनावन रघुबरहिं भरत सरिस को आजु।।_अर्थ_( वह बोली_) देखो, ये भरतजी पिता के दिये हुए राज्य को त्यागकर पैदल चलते और फलाहार करते हुए श्रीरामजी को मनाने के लिये जा रहे हैं। इनके समान आज कौन है ?

भायप  भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।। जो किछु कहब थोर सखि सोई। राम बंधु अस काहे न होई।।_अर्थ_भरतजी का भाईपना, भक्ति  और इनके आचरण कहने और सुनने से दु:ख और दोषों को हरनेवाले हैं। हे सखी ! उनके संबंध में जो कुछ भी कहा जाय, वह थोड़ा है। श्रीरामचन्द्रजी के भाई ऐसे क्यों न हों !। 

हम सब सानुज भरतहिं देखें। भइन्ह धन्य जुबतीं जन देखें।। सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं। कैकइ जननी जोगु सुत नाहीं।।_,अर्थ_छोटे भाई शत्रुध्न सहित भरतजी को देखकर हम सब भी आज धन्य ( बड़भागिनि ) स्त्रियों की गिनती में आ गयीं। इस, प्रकार भरतजी के गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर स्त्रियां पछतायीं हैं और कहती हैं _ यह पुत्र कैकेयी_जैसी माता के योग्य नहीं हैं।

कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन।  बिधि सब कीन्ह हमहि जो दाहिन।। कहं हम लोक बेद बिधि हीनी। लघु तिय कुल करतूति मलीनी।।_अर्थ
_कोई कहती है_ इसमें रानी का भी दोष नहीं है यह सब विधाता ने ही किया है जो हमारे अनुकूल है। कहां तो हम लोक और वेद दोनों की विधि ( मर्यादा)_से हीन, कुल और करतूत दोनों से मलिन तुच्छ स्त्रियां, ।

बसहिं कुदेस कुगांव कुबामा। कहं यह दरसु पुन्य परिनामा।। अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा।। जनु मरुभूमि कल्पतरु जामा।।_अर्थ_ जो बुरे देश ( जंगली प्रान्त) और बुरे गांव में बसती हैं और ( स्त्रियों में भी ) नीच स्त्रियां हैं। और कहां यह महान् पुण्यों का परिणामस्वरूप इनका दर्शन। ऐसा ही आनंद और आश्चर्य गांव_गांव में हो रहा है। मानो मरुभूमि में कल्पवृक्ष उग गया हो।

भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु। जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु।।_अर्थ_ भरतजी का स्वरूप देखते ही रास्ते में रहनेवाले लोगों के भाग्य खुल गये। मानो दैवयोग से सिंहल द्वीप के बसनेवालों को तीर्थराज प्रयाग सुलभ हो गया हो।

निज गुन सहित राम गुन गाथा। सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा। तीरथ मुनि आश्रम सुखधामा। निरखि निमज्जहिं करहिं प्रणामा।।_अर्थ_( इस प्रकार) अपने गुणों सहित श्रीरामचन्द्रजी के गुणों की कथा सुनते और श्रीरघुनाथजी को स्मरण करते हुए भरतजी चले जा रहे हैं। वे तीर्थ देखकर स्नान एवं मुनियों के आश्रम तथा देवताओं के मंदिर देखकर प्रणाम करते हैं।

मनहीं मन माहीं बरु एहू। सीय राम पद पदुम सनेहू।। मिलहिं किरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी।।_अर्थ_और मन_ही_मन यह वरदान मांगते हैं कि श्रीसीतारामजी के चरणकमलों में प्रेम हो। मार।ग में भील, कोल आदि बनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी और विरक्त मिलते हैं।

करि प्रनामु पूंछहिं जेहि तेही। केहि बन लखन रामु बैदेही। ते प्रभु समाचार सब कहहीं। भरतहिं देखि जन्म फलु लहहीं।।_अर्थ_उनमें से जिस तिस से प्रणाम करके पूछते हैं कि लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और जानकी जी किस वन में हैं ? वे प्रभु के सब समाचार कहते हैं और भरतजी को देखकर जन्म का फल पाते हैं।

जे जन कहहिं कुसल हम देखे। ते प्रिय राम लखन सम लेखे।। एहि बिधि बूझते सबहिं सुबानी। सुनत राम बन बनबास कहानी।।_अर्थ_जो लोग कहते हैं कि हमने उनको कुशलपूर्वक देखा है, उनको ये श्रीराम _लक्मण के समान ही प्यारे मानते हैं। इस प्रकार सबसे सुन्दर वाणी से पूछते और श्रीरामजी के वनवास की कहानी सुनते जाते हैं।

Saturday, 3 August 2024

अयोध्याकाण्ड

संपति चकई भरतु चक मुनि आयसु खेरवार। तेहि निसि आश्रम पिंजरा राखे भा भिनुसार।।_अर्थ_ संपति ( भोग_विलास की सामग्री ) चकली है और भरतजी चकवा हैं और मुनि की आज्ञा खेल है, जिसने उस रात को आश्रम रूपी पिंजरे में रखे जाने पर भी चकली चकवे का रात को संयोग नहीं होता, वैसे ही भरद्वाजजी की आज्ञा से रातभर भोगसामग्रियों के साथ रहने पर भी भरतजी ने मन से भी उनका स्पर्श तक नहीं किया।

कीन्ह निमज्जनु तीरथराजा। नाइ मुनिहि सिर सहित समाजा।। रिषि आयसु असीस सिर राखी। करि दण्डवत बिनय बहुत भाषी।।_अर्थ_( प्रात:काल ) भरतजी ने तीर्थराज में स्नान किया और समाज सहित मुनि को सिर नवाकर रिषि की आज्ञा तथा आशीर्वाद को सिर चढ़ाकर दण्डवत् करके बहुत विनती की।

पथ गति कुशल साथ सब लीन्हें। चले चित्रकूटहिं चित्र दीन्हें।। रामसखा कर दीन्हें लागू। चलत देह धरि जनु अनुरागू।।_अर्थ_ तदनन्तर राते की पहचान रखनेवाले लोगों ( कुशल पथ-प्रदर्शकों )_के साथ सब लोगों के लिये हुए भरतजी चित्रकूट में चित्त लगाये चले। भरतजी रामसखा गुह के हाथ में हाथ दिये हुए ऐसे जा रहे हैं मानो साक्षात् प्रेम ही शरीर धारण किये हुए हों।

नहिं पद त्रान सीस नहिं छाया। प्रेमु नेमु ब्रतु धरमु अमाया।। लखन राम सिय पंथ कहानी। पूंछत सखहि कहते मृदु बानी।।_अर्थ_न तो उनके पैरों में जूते हैं और न सिर पर छाया है। उनका प्रेम, निरम, व्रत और धर्म निष्कपट ( सच्चा ) है। वे सखा निषादराज से लक्ष्मणजी, श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी के रास्ते की बातें पूछते हैं, और वह कोमल वाणी से कहता है।

राम बास थल बिटप बिलोके। उर अनुराग रहते नहिं रोकें।। देखि दसा सुर बरिसहिं फूला। भइ मृदु मंगल मूला।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के ठहरने की जगहों और वृक्षों को देखकर उनके हृदय में प्रेम रोकें नहीं रुकता। भरतजी की यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। पृथ्वी कोमल हो गयी और मार्ग मंगल का मूल हो गया।

किएं जाहिं छाया जलद सुखद बहि बर बात। तस मग भयउ न राम कहं जस भा भरतहिं जात।।_अर्थ_बादल छाया किये जा रहे हैं, सुख देने वाली सुन्दर हवा बह रही है। भरतजी के जाते समय मार्ग जैसा सुखदायक हुआ, वैसा श्रीरामचन्द्रजी को भी नहीं हुआ था।

जड़ चेतन जग जीव घनेरे। जे चिते प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।। ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू।।_अर्थ_रास्ते में असंख्य जड़_चेतन जीव थे। उनमें से जिनको प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने देखा, अथवा जिन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को देखा वे सब ( उसी समय ) परम पद के अधिकारी हो गये। परंतु अब भरतजी के दर्शन से तो उनका भव ( जन्म _मरण )_रूपी रोग मिटा ही दिया। ( श्रीरामदर्शन से तो वे परमपद के अधिकारी ही हुए थे, परन्तु भरत_दर्शन से उन्हें परमपद प्राप्त हो गया।

यह बड़ी बात भरत कइ नाहीं। सुमिरत जिनहिं राम मन माहीं।। बालक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ।।_अर्थ_भरतजी के लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है, जिन्हें श्रीरामजी स्वयं अपने मन में स्मरण करते रहते हैं। जगत् में जो भी मनुष्य एक बार 'राम' कह लेते हैं, वे भी तरने_तारनेवाले हो जाते हैं।

भरत राम प्रिय पुनि लघु भ्राता। कस न होइ मग मंगल दाता।। सिद्ध साधु मुनिबर अस कहहीं। भरतहि निरखि हरषु हियं लहहीं।।_अर्थ_फिर भरतजी तो श्रीरामचन्द्रजी के प्यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे। तब भला उनके लिये मार्ग मंगल ( सुख )_दायक कैसे न हो ? सिद्ध साधु और श्रेष्ठ मुनि ऐसा कह रहे हैं और भरतजी को देखकर हृदय‌ में हर्षलाभ करते हैं।

देखि प्रभाउ सुरेसहि सोचू। जगु भल भलेहि पोच कहुं पोचू।।  गुर सन कहेउ करिअ प्रभु सोई। रामहिं भरतहिं भेंट न होई।।_अर्थ_भरतजी के ( इस प्रेम के ) प्रभाव को देखकर देवराज इन्द्र को सोच हो गया ( कि कहीं इनके प्रेम वश श्रीरामजी  लौट न जायें और हमारा बना बनाया काम बिगड़ जाय )। संसार भले के लिये भला और बुरे के लिये बुरा है ( मनुष्य जैसा आप होता है जगत् उसे वैसा ही दिखता है )। उसने गुरु बृहस्पतिजी से कहा_प्रभो ! वही उपाय कीजिये जिससे श्रीरामचन्द्रजी और भरतजी की भेंट ही न हो।

रामु संकोची प्रेम बस भरत सपेम पयोधि। बनी बात बेगरन चहति करिअ जतन छलु सोधि।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी संकोची और प्रेम के वश हैं और भरतजी प्रेम के समुद्र हैं। बनी बनायी बात बिगड़ना चाहती है, इसलिये कुछ छल ढ़ूंढ़कर इसका उपाय कीजिये।

बचन सुनि सुरगुरु मुस्काने। सहसनयन बिनु लोचन जाने।। मायापति सेवक सन माया। करि तो उलटि परइ सुरराया।।_अर्थ_इन्द्र के वचन सुनते ही देवगुरु बृहस्पति जी मुस्कराये। उन्होंने हजार नेत्रों वाले इन्द्र को ( ज्ञानरूपी ) नेत्रों से रहित ( मूर्ख ) समझा और कहा_हे देवराज ! माया के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी के सेवक के साथ कोई माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पड़ती है।

तब किछु कीन्ह राम रुख जानी। अब कुचालु करि होइहिं हानी।। सुनु सुरेस रघुनाथ सुभाऊ। निज अपराध रिसाहिं न काऊ।।_अर्थ_ उस समय ( पिछली बार ) तो श्रीरामचन्द्रजी का रुख जानकर कुछ किया था। परन्तु इस बार कुचाल करने से हानि ही होगी। हे देवराज ! श्रीरघुनाथजी का स्वभाव सुनो, वे अपने प्रति किये हुए अपराध से कभी रुष्ट नहीं होते।

जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई।। लोकहुं बेद बिदित इतिहासा। यह महिमा जानहिं दुर्बासा।।_अर्थ_ पर जो कोई उनके भक्त का अपराध करता है, वह श्रीराम की क्रोधाग्नि में जल जाता है। लोक और वेद दोनों में इतिहास ( कथा ) प्रसिद्ध है। इस महिमा को दुर्वासाजी जानते हैं।

भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम राम जप जेहिं।।_अर्थ_सारा जगत् श्रीराम को जपता है, वे श्रीरामजी जिनको जपते हैं उन भरतजी के समान श्रीरामचन्द्रजी का प्रेमी कौन होगा ?

मनहुं न आनिअ अमरपति रघुबर भरत अकाजुपं  अजसु लोक परलोक दुख दिन दिन सोक समाजु।।_अर्थ_ हे देवराज ! रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी के भक्त का काम बिगाड़ने की बात मन में भी न लाइये। ऐसा करने से लोक में अपयश और परलोक में दु:ख होगा और शोक का सामान दिनों-दिन बढ़ता ही चला जायगा।

सुनु सुरेस उपदेसु हमारा। रामहिं सेवकों परम पिआरा।। मानता सुखु सेवक सेवकाईं। सेवक बैर बैरु अधिकाई।।_अर्थ_हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो। श्रीरामजी को अपना सेवक परम प्रिय है। वे अपने सेवक की सेवा से सुख मानते हैं और सेवक के साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते हैं।

यद्यपि हम नहिं राग न रोषू। गहहइं न पाप पूनु गुन दोषू।। कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करि सो तस फल चाखा।।_अर्थ_यद्यपि वे समय हैं_ उनमें न राग है, न रोष है। और न वे किसी का पाप_ पुण्य और गुण दोष ही ग्रहण करते हैं। उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है।

तदपि करहिं सम बिषम बिहारा। भगत अभगत हृदय अनुसारा।। अगुन अलेप अमान एकरस। रामु सगुन भए भगत पेम बस।।_अर्थ_ यद्यपि वे भक्त और अभक्त के हृदय के अनुसार समय और विषम व्यवहार करते हैं ( भक्त को प्रेम से गले लगा लेते हैं और अभक्त को मारकर तार देते हैं )। गुणरहित, निर्देश, मानरहित और सदा एकरस भगवान् श्रीराम भक्त के प्रेम वश ही सगुण हुए हैं।

राम सदा सेवक रुचि राखी। बेद पुरान साधु सुर साखी।। अस जियं जानि तजहु कुटिलाईं। क नहीं मनरहु भरत पद प्रीति सुहाई।।_अर्थ_श्रीरामजी सदा अपने सेवकों ( भक्तों )_की रुचि रखते आये हैं।ह४" वेद_पुराण, साधु और देवता इसके साक्षी हैं। ऐसा हृदय में जानकर कुटिलता छोड़ दो और भरतजी के चरणों में सुन्दर प्रीति करो ।

राम भगत परहित निरत पर दुख दुखी दयाल। भगत सिरोमनि भरत तें जनि डरपहु सुरपाल।।_अर्थ_हे देवराज इन्द्र ! श्रीरामचन्द्रजी के भक्त सदा दूसरों के हित में लगे रहते हैं, वे दूसरों के दु:ख से दु:खी और दयालु होते हैं। फिर, भरतजी तो भक्तों के शिरोमणि हैं, उनसे बिलकुल न डरो।


सत्यसंध प्रभु सुर हितकारी। भरत राम आयसु अनुसारी।। स्वार्थ बिबस बिकल तुम्ह हओहू। भरतु दोसु नहिं राउर मोहू।।_अर्थ_ प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सत्यप्रतइज्ञ और देवताओं के हित करनेवाले हैं। और भरतजी श्रीरामजी की आज्ञानुसार चलनेवाले हैं। तुम व्यर्थ ही स्वार्थ के विशेष वश होकर व्याकुल हो रहे हो। इसमें भरतजी का कोई दोष नहीं, तुम्हारा ही मोह है।

सुनि सुरपति सुरगुर बर बानी। भा प्रमोदु मन मिटा गलानी।। बरषि प्रसून हरसित सुरराऊ। लगे सराहन भरत सुभाऊ।।_अर्थ_देवगुरु बृहस्पतिजी की श्रेष्ठ बाणी सुनकर इन्द्र के मन में बड़ा आनन्द हुआ और उनकी चिन्ता मिट गयी। तब हर्षित होकर देवराज फूल बरसाकर भरतजी के स्वभाव की सराहना करने लगे।

एहि बिधि भरत चले मग जाहिं। दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं।। जबहिं राम कहि लेहिं उसासा। उमगत पेमु मनहुं चहुं पासा।।_अर्थ_इस प्रकार भरतजी मार्ग में चले जा रहे हैं। उनकी ( प्रेममयी ) दशा देखकर मुनि और सिद्धलोग भी सिहाते हैं। भरतजी जब भी 'राम' कहकर लम्बी सांस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है।

द्रवहिं बचन सुनि कुलिस पसाना। पुरजन पेमु न जाइ बखाना।। बीच बास करि जमुनहिं आए। निरखि नीरु लोचन जल जाए।।_अर्थ_ उनके ( प्रेम और दीनता से पूर्ण ) वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं। अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास ( मुकाम ) करके भरतजी यमुना के तट पर आए। यमुनाजी का जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया।

रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज। होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक समाज।।_,अर्थ_श्रीरघुनाथजी के  ( श्याम ) रंग का सुन्दर जल देखकर सारे समाज सहित भरतजी ( प्रेम विह्वल होकर ) श्रीरामजी के विरहरूपी समुद्र में डूबते_डूबते विवेकरूपी जहाज पर चढ़ गये ( अर्थात् यमुनाजी का श्यामवर्ण जल देखकर  सबलोग श्यामवर्ण भगवान् के प्रेम में विह्वल हो गये और उन्हें न पाकर वइरहव्यथआ से पीड़ित हो गये; तब भरतजी को यह ध्यान आया कि जल्दी चलकर उनके साक्षात् दर्शन करेंगे, इस विवेक से वे फिर उत्साहित हो गये।


Monday, 8 July 2024

अयोध्याकाण्ड

पूरन राम सुपेम पियूषा। गुर अवमान दोष नहीं दूषा।। रामभगत अब अमिअ अघाहूं। कीन्हेहु सुलभ सुधा बसुधाहूं।।_अर्थ_यह चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर प्रेमरूपी अमृत से पूर्ण है। यह गुरु के अपमान रूपी दोष से दूषित नहीं है। तुमने इस यश रूपी चन्द्रमा की सृष्टि करके पृथ्वी पर भी अमृत को सुलभ कर दिया। अब श्रीरामजी के भक्त इस अमृत से तृप्त हो लें।




भूप भगीरथ सुरसरि आनी। सुमिरत सकल सुमंगल खानी।। दसरथ गुन गन बरनि न जाहिं। अधिकु कहा जेहिं समय कोई नाहीं।।_अर्थ_ राजा भगीरथ गंगाजी को लिये, जिन ( गंगाजी )_ का स्मरण ही संपूर्ण सुन्दर मंगलों की खान है। दशरथ जी के गुण समूहों का वर्णन तो नहीं किया जा सकता; अधिक क्या, जिनकी बराबरी का जगत् में कोई नहीं है।





जासु सनेह सकोच बस राम प्रगट भए आइ। जे हर हिय नयननइ कबहुं निरखे नहीं अघाइ।।_अर्थ_जिसके प्रेम और संकोच ( शील ) के वश में होकर स्वयं ( सच्चिदानंद घन ) भगवान् श्रीराम आकर प्रकट हुए जिन्हें श्रीमहादेवजी अपने हृदय के नेत्रों से कभी अघाकर नहीं देख पाये ( अर्थात् जिनका स्वरूप हृदय में देखते_देखते शिवजी कभी तृप्त नहीं हुए )।






कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा। जहं बस राम प्रेम मृगरूपा।। तात ग्लानि करहु जियं जाएं। डरहु दरिद्रहि पारसु पाएं।।_अर्थ_( परन्तु उनसे भी बढ़कर ) तुमने कीर्तिरूपी अनुपम चन्द्रमा को उत्पन्न किया जिसमें श्रीराम प्रेम ही हिरण के ( चिह्न ) के रूप में बसता है । हे तात ! तुम व्यर्थ ही हृदय में ग्लानि कर रहे हो। पारस पाकर भी तुम दरिद्रता से डर रहे हो।






सुनहु भरत हम झूठ न कहहिं। उदासीन तापस बन रहही।। सब साधन कर सुफल सुहावा। लखन रामु सिय दरसनु पावा।।_अर्थ_हे भरत ! सुनो, हम झूठ नहीं कहते। हम उदासीन हैं ( किसी का पक्ष नहीं करते), तपस्वी हैं ( किसी की मुंह देखी नहीं कहते ) और वन में रहते हैं ( किसी से कुछ प्रयोजन नहीं रखते )। सब कामों का उत्तम फल हमें लक्ष्मण जी, श्रीरामजी और सीताजी का दर्शन प्राप्त हुआ।





तेहि फल कर फल दरसु तुम्हारा। सहित प्रयाग सुभाग हमारा।। भरतु धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ। कहि अस प्रेम मगन मुनि भयऊ।।_अर्थ_( सीता लक्ष्मण सहित श्रीराम दर्शनरूप ) उस महान फल का परम फल यह तुम्हारा दर्शन है। प्रयागराज समेत हमारा बड़ा भाग्य है‌ । हे भरत ! तुम धन्य हो, तुमने अपने यश से जगत् को जीत लिया है। ऐसा कहकर मुनि प्रेम में मग्न हो गये।






सुनि मुनि बचन सभासद हरषे। साधु सराहि सुमन सुर बरसे।। धन्य धन्य धुनि गगन पयागा। सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा।।_अर्थ_भरद्वाज मुनि के वचन सुनकर सभाषद् हर्षित हो गये। 'साधु_साधु' कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाये। आकाश में और प्रयागराज में 'धन्य_धन्य की ध्वनि सुन_सुनकर भरतजी प्रेम में मग्न हो रहे हैं।





पुलक गात हियं राम सीय सजल सरोरुह नैन। करि प्रनामु मुनि मंडलिहिं बोले गदगद बैन।।_अर्थ_भरतजी का शरीर पुलकित है, हृदय में श्रीसीतारामजी हैं और कमल के समान नेत्र ( प्रेमाश्रु के ) जल से भरे हैं। वे मुनियों की मंडली को प्रणाम करके गदगद वचन बोले _





मुनि समाजु अरु तीरथराजू। सांचिहुं साथ अघाइ अकाजू।। एहिं थल जौं किछु कहिअ बनाई। एहि समय अधिक न अघ अधमाई।।_अर्थ_मुनियों का समाज है और फिर तीरथराज है। यहां सच्ची सौगन्ध खाने से भी भरपूर हानि होती है। इस स्थान में यदि कुछ बनाकर के कहा जाय, तो इसके समान बड़ा पाप और नीचता न होगी।





तुम्ह सर्बग्य कहुं सतिभाऊ। उर अंतरजामी रघुराऊ।। मोहि न मातु करतब कर सोचू। नहिं दुखी जियं जगु जानिहिं पोचू।।_अर्थ_मैं सच्चे भाव से कहता हूं। आप सर्वज्ञ हैं, और श्रीरघुनाथजी हृदय के भीतर के जाननेवाले हैं ( मैं कुछ भी असत्य कहूंगा तो आपसे और उनसे छिपा नहीं रह सकता )। मुझे माता कैकेयी की करनी का कुछ भी सोच नहीं है। और न मेरे मन में इस बात का दु:ख है कि जगत् मुझे नीचे समझेगा।





नाहिन डर बिगरिहि परलोकू। पितहु मरन कर मोहि न सोकू।। सुकृत सुजस भरि भुअन सुहाए। लछिमन राम सरिस सुत पाए।।_अर्थ_ न यही डर है कि मेरा परलोक बिगड़ जायेगा और न पिताजी के मरने का ही मुझे शोक है। क्योंकि उनका सुन्दर पुण्य और यश विश्वभर में सुशोभित है। उन्होंने श्रीराम लक्ष्मण सरीखे पुत्र पाये।






राम बिरह तजि तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन प्रसंगू।। राम लखन सिय बिनु पग पनहीं। करि मुनि बेस फिरहिं बन बनहीं।।_अर्थ_ फिर जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजी के बिरह में अपने क्षणभंगुर शरीर को त्याग दिया, ऐसे राजा के लिये सोच करने का कौन प्रसंग है ? ( सोच इसी बात का है कि ) श्रीरामजी, लक्ष्मण जी और सीताजी पैरों में बिना जूती के मुनियों के वेश बनाये वन_वन में फिरते हैं।






अजिन बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात। बसि तरु तर नित सहित हिम आतप बरषा बात।।_अर्थ_वे बल्कि वस्त्र पहनते हैं, फलों भोजन करते हैं, पृथ्वी पर कुश और पत्ते बिछाकर सोते हैं और वृक्षों के नीचे निवास करके नित्य सर्दी, वर्षा और हवा सहते हैं।







एहि दुख दाहें दहइ दिन छाती। भूख न बाहर नीद न राती।। एहि कुरोगशकर औषध नाहीं। सोधेउं सकल विश्व मन माहीं।।_अर्थ_इसी दु:ख के जलन से निरंतर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न दिन में भूख लगती है, न रात को नींद आती है। मैंने मन_ही_मन समस्त विश्व को खोज डाला, पर इस कुरोग की औषध कहीं नहीं है।






मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेहि हमार हित कीन्ह बंसूला।। करि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू।। गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रू।।_अर्थ_ माता का कुमत ( बुरा विचार) पापों का मूल बढ़ई है। उसने हमारे हित का बसूला बनाया। उससे कलह रुपी कुकाठ का कुयंत्र बनाया और चौदह वर्ष की अवधि रूपी कठिन कुमंत्र पढ़कर उस यन्त्र को गाड़ दिया। ( यहां माता का कुविचार बढ़ई है, भरत को राज्य वसूला है, राम का वनवास कुमंत्र है और चौदह वर्ष की अवधि कुमंत्र है।






मोहि लगि यह कुठाटु तेहिं ठाटा। घालेसि सब जगु बारहबाटा।। मिटा कुजोगु राम फिरि आएं। बसि अवध नहिं आन उपाएं।।_अर्थ_मेरे लिये उसने यह सारा कुठाटु ( बुरा साज ) रचा और सारे जगत् को बारहबाटा ( छिन्न_भिन्न ) करके नष्ट कर डाला। यह कुयोग श्रीरामचन्द्रजी के लौट आने पर ही मिट सकता है और तभी अयोध्या बस सकती है, दूसरे किसी उपाय से नहीं।






भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई। सबहिं कीह बहुत भांति बड़ाई।। तात करहु जनि सोच बिसेषी। सब दुखु मिटिहि राम पग देखी।।_अर्थ_ भरतजी के वचन सुनकर मुनि ने सुख पाया और सभी ने उसकी बहुत प्रकार से बड़ाई की। (मुनि ने कहा_) हे तात ! अधिक सोच मत करो। श्रीरामचन्द्रजी के चरणों का दर्शन करते ही सारा दु:ख मिट जायगा।







करि प्रबोधु मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय हओहउ। कंद मूल फल फूल हम देहिं देहु करि छोहु।।_अर्थ_ इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी ने उनका समाधान करके कहा_अब आप लोग हमारे प्रेम-प्रिय अतिथि बनिये और कृपा करके कंद_मूल, फल_फूल जो कुछ हम दें, स्वीकार कीजिये।








सुनि मुनि बचन भरत हियं सोचू। भयउ सुअवसर कठिन संकोचू।। जानि गरुइ गुर गिरा बहोरी। चरन बंदि बोले कर जोरी।।_अर्थ_मुनि के वचन सुनकर भरतजी के हृदय में सोच हुआ कि यह बेमौके बड़ा बेढ़ब संकोच आ पड़ा। फिर गुरुजनों की वाणी को महत्वपूर्ण ( आदरणीय ) समझकर, चरणों की वन्दना कर हाथ जोड़कर बोले_








सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धर्म यही नाथ हमारा।। भरत बचन मुनिबर मन भाए। सुचि सेवक सिष निकट बोलाए।।_अर्थ_हे नाथ ! आपकी आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धर्म है। भरतजी के ये वचन मुनिश्रेष्ठ के मन को अच्छे लगे। उन्होंने विश्वासपात्र सेवकों और शिष्यों को पास बुलाया 








चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई। कन्द मूल फल आनहु जाई।। भलेहिं नाथ कहि तिन्ह सिर नाए। प्रमुदित निज निज काज सिधाए।।_अर्थ_( और कहा कि ) भरत की पहुनई करनी चाहिये। जाकर कन्द, मूल और फल लाओ। उन्होंने ' हे नाथ ! बहुत अच्छा ! कहकर सिर नवाया और तब बड़े आनन्दित होकर अपने _अपने काम को चल दिये।








मुनिहि सोच पाहुन बड़ नेता। तिस पूजा चाहिए जस देवता।। सुनि रिधि सिधि अनिमादिक आईं । आयसु होइ सो करहिं गोसाईं।।_अर्थ_ मुनि को चिंता हुई कि हमने बहुत बड़े मेहमान को न्योता है। अब जैसा देवता हैं वैसी ही उसकी पूजा भी होनी चाहिये। यह सुनकर रिद्धियां और अणिमादि सिद्धियां आ गयीं ( और बोलीं _) हे गोसाईं ! जो आपकी आज्ञा हो सो हम करें। 







राम बिरह व्याकुल भरतु सानुज सहित समाज। पहुनाई करि हरहु श्रम कहा मुदित मुनिराज।।अर्थ_मुनिराज ने प्रसन्न होकर कहा_छोटे भाई शत्रुध्न और समाज सहित भरतजी श्रीरामचन्द्रजी के विरह में व्याकुल हैं। इनकी पहुनाई ( आतिथ्य_सत्कार ) करके इनके श्रम को दूर करो।







रिधि सिधि सिर धरि मुनिबर बानी। बड़भागिनि आपुहिं अनुमानी।। कहहिं परसपर सिधि समुदाई। अतुलित अतिथि राम लघु भाई।।_अर्थ_ रिद्धि_सिद्धि ने मुनिराज की आज्ञा को सिर पर चढ़ाकर अपने को बड़भागिनि समझा। सब सिद्धियां आपस में कहने लगीं _श्रीरामचन्द्रजी के छोटे भाई भरत ऐसे अतिथि हैं, जिनकी तुलना में कोई नहीं आ सकता।







मुनि पद बंदि करिअ सोइ आजू। होइ सुखी सब राज समाजू।। अस कहि रचेउ रुचिर गृह नाना। जेहि बिलोकि बिलखाहिं बिमाना।।_अर्थ_अत: मुनि के चरणों की वन्दना करके आज वही करना चाहिये जिससे सारा राज समाज सुखी हो। ऐसा कहकर उन्होंने बहुत _से सुन्दर घर बनाये, जिन्हें देखकर विमान भी विलखते हैं ( लजा जाते हैं )।






भोग विभूति भूरि भरि राखे। देखत जइन्हहइं अमर अभिलाषे।। दासी दास साजु सब लीन्हें। जोगवत रहहीं मनहि मनु दीन्हें।।_अर्थ_ उन घरों में बहुत _से भोग ( इन्द्रियों के विषय ) और ऐश्वर्य ( ठाट_बाट ) का सामान भरकर रख दिया, जिन्हें देखकर देवता भी ललचा गये। दासी_दास सब प्रकार की सामग्री लिये हुए मन लगाकर उनके मनों को देखते रहते हैं ( अर्थात् उनके मन की रुचि के अनुसार करते रहते हैं।





सब समाजु सजा सिधि पल माहीं। जे सुख सुरपुर सपनेहुं नाहीं।। प्रथमहिं बास दिए सब केही। सुंदर सुखद जथा रुचि जेहि।।_अर्थ_जो सुख के समान स्वर्ग में भी स्वप्न में भी नहीं है ऐसे सब सामान सिद्धियों ने पलभर में सज दिये। पहले तो उन्होंने सब किसी को, जिसकी जैसी रुचि थी वैसे ही, सुन्दर सुखदायक निवासस्थान दिये।






बहुरि सपरिजन भरत कहुं रिषि अस आयसु दीन्ह। बिधि बिसमय दायकु बिमल मुनिबर तपबल कीन्ह।।_अर्थ_और फिर कुटुम्बीसहित भरतजी को दिये, क्योंकि ऋषि भरद्वाजजी ने ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी। ( भरतजी चाहते थे कि उनके सब संगियों को आराम मिले, इसलिये उनके मन की बात जानकर मुनि ने पहले ही उन लोगों का स्थान देकर पीछे सपरिवार भरतजी को स्थान देने के लिये आज्ञा दी थी )। मुनि ने तपोबल से ब्रह्मा को भी चकित कर देनेवाला वैभव रच दिया।







मुनि प्रभाउ जब भरत बिलोका। सब लघु लगे लोकपति लोका।। सुखु समाज नहिं जाइ बखानी। देखत बिरति बिसारहि ज्ञानी।।_अर्थ_जब भरतजी ने मुनि के प्रभाव को देखा तो उसके सामने उन्हें ( इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि सभी लोकपालों के लोक तुच्छ जान पड़े। सुख की सामग्री का वर्णन नहीं हो सकता जिसे देखकर ज्ञानी लोग भी वैराग्य भूल जाते हैं।






आसन सयन सुबसन बिताना। बन बालिका बिहग मृग नाना।। सुरभि फूल फल अमिअ समाना। बिमल जलासय बिबिध बिधाना।।_अर्थ_आसन, सेज, सुन्दर वस्त्र, चंदोवे, वन, बगीचे, भांति भांति के पक्षी और पशु, सुगन्धित फूल और अमृत के समान स्वादिष्ट फल, अनेकों प्रकार के ( तालाब, कुएं, बावली आदि ) निर्मल जलाशय, _









असन पान सुचि अमिअ अभी से। देखि लोग सकुचात जमी से।। सुर सुरभी सुरतरु सबहिं कें।
लखि अभिलाषु सुरेष सची कें।।_अर्थ_ तथा अमृत के भी अमृत सरीखे पवित्र खान_पान के पदार्थ थे, जिन्हें देखकर सबलोग संयमी पुरुषों ( विरक्त मुनियों )_की भांति सकुचा रहे हैं। सभी के डेरों में ( मनोवांछित वस्तु देनेवाले ) कामधेनु और कल्पवृक्ष हैं, जिन्हें देखकर इन्द्र और इन्द्राक्षी को भी अभिलाषा होती है ( उनका भी मन ललचा जाता है ) ।





रितु बसंत बह त्रिबिध बयारी। सब कहं सुलभ पदारथ चारी।। स्त्रक चंदन बनितादिक भोगा। देखि हर्ष बिसमयबस लोगा।।_अर्थ_बसंत ऋतु है। शीतल, मन्द, सुगन्ध तीन प्रकार की हवा बह रही है। सभी को ( धर्म, अर्थ काम और मोक्ष ) चारों पदार्थ सुलभ हैं। माला, चंदन स्त्री आदि भोगों को देखकर सब लोग हर्ष और विषाद के वश हो रहे हैं। ( हर्ष तो भोग सामग्रियों को और मुनि के तप प्रभाव को देखकर होता है और विषाद इस बात से होता है कि श्रीराम के वियोग में नियम व्रत से रहनेवाले हमलोग भोग_विलास में क्यों आ फंसे; कहीं इनमें आसक्त होकर हमारा मन नियम व्रतों को न त्याग दे।


Thursday, 6 June 2024

अयोध्याकाण्ड

भरत तीसरे पहर कहं कीन्ह प्रबेसु प्रयाग। कहत राम सिया राम सिया उमगि उमगि अनुराग।।_अर्थ_प्रेम में उमंग_उमंगकर सीताराम_सीताराम कहते हुए भरतजी ने तीसरे पहर प्रयाग में प्रवेश किया।

झलका झलकत पायन्ह कैसें। पंकज कोस ओस कन जैसें।। भरत पयादेहिं आए आजू। भयउ दुखित सुनि सकल समाजू।।_अर्थ_उनके चरणों में छाले कैसे चमकते हैं, जैसे कमल की कली पर ओस की बूंदें चमकती हैं। भरतजी आज पैदल ही चलकर आये हैं, यह समाचार सुनकर सारा समाज दु:खी हो गया।

खबरि लीन्ह सब लोग नहाए। कीन्ह प्रनामु त्रिबेनिहिं आए।। सबिधि सितासित नीर नहाने। दिए दान महिसुर सनमाने ।।_अर्थ_जब भरतजी ने यह पता पा लिया कि सब लोग स्नान कर चुके, तब त्रिवेणी पर आकर उन्होंने प्रणाम किया। फिर विधिपूर्वक ( गंगा_यमुना के ) श्वेत और श्याम जल में स्नान किया और दान देकर ब्राह्मणों का सम्मान किया।

देखत स्यामल धवल हिलोरे। पुलकित सरीरा भरत कर जोरे।। सकल कामप्रद तीरथराऊ। बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।_अर्थ_ श्याम और सफेद ( यमुनाजी और गंगाजी की ) लहरों को देखकर भरतजी का शरीर पुलकित हो उठा और उन्होंने हाथ जोड़कर कहा_हे तीर्थराज ! आप समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं। आपका प्रभाव वेदों में प्रसिद्ध और संसार में प्रकट है।

मागउं भीख त्यागि निज धरमू। आरती काह न करि कुकरमू।। अस जियं जानि सुजान सुदानी। सफल करहिं जग जाचक बानी।।_अर्थ_मैं अपना धर्म ( न मांगने का क्षत्रिय धर्म ) त्यागकर आपसे भीख मांगता हूं । आर्य मनुष्य कौन_कौन सा कुकर्म नहीं करता ? ऐसा हृदय में जानकर सुजान उत्तम दानी जगत् में मांगनेवाले की वाणी को सफल किया करते हैं ( अर्थात् वह जो मांगता है, सो दे देते हैं ) ।


अर्थ न धरम न काम रुचि गति न चहउं निरबान। जन्म जन्म रति राम पद यह बरदानु न आन।।_अर्थ_ मुझे न तो अर्थ की रुचि ( इच्छा ) है, न धर्म की, न काम की और न मैं मोक्ष ही चाहता हूं। जन्म_जन्म में मेरा श्रीरामजी के चरणों में प्रेम हो, बस, यही वरदान मांगता हूं, दूसरा कुछ नहीं।


जानहु रामु कुटिल करि मोही। लोग कहउ गुर साहिब द्रोही।। सीता राम चरन रति मोरें। अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।।_अर्थ_स्वयं श्रीरामचन्द्रजी भी भले ही मुझे कुटिल समझे और लोग मुझे गुरुद्रोही या स्वामिद्रोही भले ही कहें; पर श्रीसीतारामजी के चरणों में मेरा प्रेम आपकी कृपा से दिन दिन बढ़ता ही रहे।


जलदु जनम भरि सुरति बिसारउ। जाचत जलु पबि पाहन डारउ।। चातकु रटना घटें घटि जाई। बढ़ें प्रेमु बसब भांति भलाई।।_अर्थ_मेघ जन्म भरचातक की सुधि भुला दे और जल मांगने पर वह चाहे वज्र और पत्थर ( ओले ) ही गिरावे, पर चातक की रटना घटने से तो उसकी बात ही घट जायगी ( प्रतिष्ठा ही नष्ट हो जायगी )। उसकी तो प्रेम बढ़ने में ही सब तरह से भलाई है।


कनकहिं बान चढ़ई जिमि दाहें। तिमि प्रियतम पद नेम निबाहे।। भरत बचन सुनि माझ त्रिबेनी। भी मृदु बानी सुमंगल देनी।।_अर्थ_ जैसे तपाने पर सोने से आब ( चमक ) आ जाती है, वैसे ही प्रियतम के चरणों में प्रेम का नियम निबाहने से प्रेमी सेवक का गौरव बढ़ जाता है। भरतजी के वचन सुनकर बीच त्रिवेणी में से सुन्दर मंगल देनेवाली कोमल वाणी हुई।


तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू। राम चरन अनुराग अगाधू।। बादि गलानि करहु मन माहीं। तुम्ह सम रामहिं कोउ प्रिय नाहीं।।_अर्थ_ हे तात भरत ! तुम सब प्रकार से साधू हो। श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में तुम्हारा अथाह प्रेम है। तुम व्यर्थ ही मन में ग्लानि कर रहे हो। श्रीरामचन्द्रजी को तुम्हारे समान प्रिय कोई नहीं है।


तनु पुलकेउ हियं हरषु सुनि बेनि बचन अनुकूल। भरत धन्य कहि धन्य सुर हरषित बरिसहिं फूल।।_अर्थ_त्रिवेणीजी के अनुकूल वचन सुनकर भरतजी का शरीर पुलकित हो गया, हृदय में हर्ष छा गया। भरतजी धन्य हैं, धन्य हैं, कहकर देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगें।


प्रमुदित तीरथराज निवासी। बऐखआनस बटु गृही उदासी।। कहहिं परस्पर मिली दस पांचा। भरतु सनेहु सील सुठि सांचा।।_अर्थ_तीर्थराज प्रयाग में रहनेवाले वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और उदासीन ( संन्यासी) सब बहुत ही आनंदित हैं और दस पांच मिलकर आपस में कहते हैं कि भरतजी का प्रेम और शील पवित्र और सच्चा है।


सुनत राम गुन ग्राम सुहाए। भरद्वाज मुनि बर पहिं आए।। दंड प्रनामु करते मुनि देखें। मूर्तिमंत भाग्य निज लेखे।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर गुण समूहों को सुनते हुए वे मउनइश्रएष्ठ भरद्वाजजी के पास आये। मुनि ने भरतजी को दण्डवत् प्रणाम करते देखा और उन्हें अपना मूर्तिमान सौभाग्य समझा।


धाई उठाई लाइ उर लीन्हे। दीन्ह असीसा कृतार्थ कीन्हे।। आसनु दीन्ह नाइ सिर बैठे। चाहत सकुच गृहं जनु भजि पैठे।।_अर्थ_उन्होंने दौड़कर भरतजी को हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कृतार्थ किया। मुनि ने उन्हें आसन दिया। वे सिर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर संकोच के घर में घुस जाना चाहते हैं।


मुनि पूछब कछु यह बड़ सोचूं सोचू। बोले रिषि लखि सीलु संकोचू।। सुनहु भरत हम सब सुधि पाई। बिधि करतब पर किछु न बसाई।।_अर्थ_उनके मन में यह बड़ा सोच है कि मुनि कुछ पूछेंगे ( तो मैं क्या उत्तर दूंगा ) । भरतजी के शील और संकोच को देखकर ऋषि बोले _भरत ! सुनो, हम सब खबर पा चुके हैं। विधाता के कर्तव्य पर कुछ वश नहीं चलता।


तुम्ह ग्लानि जियं जानि करहु समुझि मातु करतूति।। तात कैकेइहि दोसु नहिं गई गिरा मति धूति।।_अर्थ_माता की करतूत को समझकर ( याद करके ) तुम हृदय में ग्लानि मत करो। हे तात ! कैकेयी का कोई दोष नहीं है, उसकी बुद्धि तो सरस्वती बिगाड़ गयी थी।


यहउ कहत भल कहि न कोऊ। लोकु बेदु बुध संमत दोऊ।। तात तुम्हार बिमल जासु गाई। पाइहि लोकउ बेदु बड़ाई।।_अर्थ_यह कहते भी कोई भला न कहेगा, क्योंकि लोक और बेद दोनों ही विद्वानों को मान्य है। किन्तु हे तात ! तुम्हारा निर्मल यश गाकर तो लोक और वेद दोनों बड़ाई पावेंगे।



लोक बेद संमत सब कहई। जेहिं पितु देइ राज सो लहई।। राउ सत्यव्रत तुम्हहिं बोलाई। देखत राज सुखु धरम बड़ाई।।_अर्थ_यह लोक और वेद दोनों का मान्य है और सब यही कहते हैं कि पिता जिसको राज्य दे वही पाता है। राजा सत्यव्रती थे; तुमको बुलाकर राज्य देते, तो सुख मिलता, धर्म रहता और बड़ाई होती।


राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सुनि सकल विश्व भई सूला।। सो भावी बस रानी अयानी। करि कुचल अंतहुं पछितानी।।_अर्थ_सारे अनर्थ की जड़ तो श्रीरामचन्द्रजी का वन गमन है, जिसे सुनकर समस्त संसार को पीड़ा हुई। वह श्रीराम का वन गमन भी भावीवश हुआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अन्त में पछतायी।



तहंउं तुम्हार  अलप अपराधू। कहो सो अधम अयान असाधू।। करतेहु राजु तो तुम्हहिं न दोषू।
रामहिं होता सुनत संतोषू।।_अर्थ_उसमें भी तुम्हारा कोई तनिक सा भी अपराध कहे, तो वह अधम, अज्ञानी और असाधु है। यदि तुम राज्य करते तो भी तुम्हें दोष न होता। सुनकर श्रीरामचन्द्रजी को संतोष ही होता।


अब अति कीन्हेहु भरत भल तुम्हहिं उचित मत एहु। सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु।।_अर्थ_हे भरत ! अब तो तुमने बहुत ही अच्छा किया; यही मत तुम्हारे लिये उचित था। श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम होना ही संसार में समस्त मंगलों का मूल है।


सो तुम्हार धनु जीवन प्राना। भूरि भाग को तुम्हहिं समाना।। यह तुम्हार आचरजु न ताता। दशरथ सुअन राम प्रिय भ्राता।।_अर्थ_ सो वह ( श्रीरामचन्द्रजी के चरणों का प्रेम) तो तुम्हारा धन, जीवन और प्राण ही है; तुम्हारे समान बड़भागी कौन है? हे तात ! तुम्हारे लिये यह आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि तुम दशरथ जी के पुत्र और श्रीरामचन्द्रजी के प्यारे भाई हो।


सुनहु भरत रघुबर मन माहीं। प्रेम पात्र तुम्ह सम कोउ नाहीं।। लखन राम सईतहइं अति प्रीती। निसि सब तुम्हहिं सराहत बीती।।_अर्थ_हे भरत ! श्रीरामचन्द्रजी के मन में तुम्हारे समान प्रेमपात्र दूसरा कोई नहीं है। लक्ष्मण जी, श्रीरामजी और सीताजी तीनों को सारी रात उस दिन अत्यन्त प्रेम के साथ तुम्हारी सराहना करते हुए बीती।


जाना मरमु नहात प्रयागा। मगन होहिं तुम्हरे अनुरागा।। तुम्ह पर अस सनेहु रघुबर कें। सुख जीवन जग जस जड़ नर कें।।_अर्थ_प्रयागराज में जब वे स्नान कर रहे थे, उस समय मैंने उनका यह मर्म जाना। वे तुम्हारे प्रेम में मगन हो रहे थे। तुमपर श्रीरामचन्द्रजी का ऐसा ही ( अगाध ) स्नेह है जैसा मूर्ख ( विषयासक्त ) मनुष्य का संसार में सुखमय जीवन होता है।


यह न अधिक रघुबीर बड़ाई। प्रान्त कुटुंब पाल रघुराई।। तुम्ह तौ भरत मोर मत एहू। धरें देह जनु राम सनेहू।।_अर्थ_यह श्रीरघुनाथजी की बहुत बड़ाई नहीं है। क्योंकि श्रीरघुनाथजी तो शरणागत के कुटुम्बभर के पालनेवाले हैं। हैं भरत ! मेरा यह मत है कि तुम तो मानो शरीरधारी श्रीरामजी के प्रेम ही हो।


तुम्ह कहं भरत कलंक यह हम सब कहां उपदेसु। राम भगति रस सिद्धि हित भा यह समउ गनेसु।।
_अर्थ_ हे भरत ! तुम्हारे लिये ( तुम्हारी समझ में ) यह कलंक है, पर हम सबके लिये तो उपदेश है। श्रीरामभक्तिरूपी रस की सिद्धि के लिये यह समय गणेश ( बड़ा शुभ) हुआ है।


नव बिनु बिमल तात जासु तोरा। रघुबर किंकर कुमुद चकोरा।। उदित सदा अंथइहइं कबहूं ना। घटिहिं न जग नभ दिन दिन दूना।।_ अर्थ_हे तात ! तुम्हारा यश निर्मल नवीन चन्द्रमा है और श्रीरामचन्द्रजी के दास कुमुद और चकोर हैं ( वह चन्द्रमा तो प्रतिदिन अस्त होता और घटता है, जिससे कुमुद और चकोर को दु:ख होता है ); परन्तु यह तुम्हारा यश रूपी चन्द्रमा सदा उदय रहेगा; कभी अस्त होगा ही नहीं। जगत् रूपी आकाश में यह घटेगा नहीं, वरन दिन दिन दूना होगा।



कोक तिलोक प्रीति अति करिही। प्रभु प्रताप रबी छबिहि न हरिही।। निसि दिन सुखद सदा सब काहू। ग्रसिहि न कैकेइ करतबु राहू।।_अर्थ_ त्रैलोक रूपी चकवा इस यश रूपी चन्द्रमा पर अत्यन्त प्रेम करेगा और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का प्रताप रूपी सूर्य इस छबि का हरण नहीं करेगा। यह चन्द्रमा रात_दिन सब किसी को सुख देनेवाला होगा। कैकेयी का कुकर्मरूपी राहू इसे ग्रास नहीं करेगा।









Friday, 10 May 2024

अयोध्याकाण्ड

तें अब फिरत बिपिन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी।। धिग कैकई अमंगल मूला। भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला।।_अर्थ_वही श्रीरामचन्द्रजी अब जंगलों में पैदल फिरते हैं और कन्द_मूल तथा फल_फूलों का भोजन करते हैं।अमंगल की मूल कैकेई को धिक्कार है, जो अपने प्राण प्रियतम पति से भी प्रतिकूल हो गयी।




मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी। सबु उत्पात भयउ जेहि लागी।। कुल कलंकु करि सृजेउ बिधातां। साईंदोह मोहि कीन्ह कुमाता।।_अर्थ_ मुझे पापों के समुद्र और अभागे को धिक्कार है, धिक्कार है जिसके कारण ये सब उत्पात हुए। विधाता ने मुझे कुल का कलंक बनाकर पैदा किया और कुमाता ने मुझे स्वामिद्रोही बना दिया।





सुनि सप्रेम समुझाव निषादू। नाथ करिअ कत बांदा बिषादू।। राम तुम्हारे प्रिय तुम प्रिय रामहिं। यह निरजोसु दोषु बिधि बामहिं।।_अर्थ_यह सुनकर निषादराज प्रेम पूर्वक समझाने लगा_ हे नाथ आप व्यर्थ विषाद किसलिए करते हैं ? श्रीरामचन्द्रजी आपको प्यारे हैं और आप श्रीरामचन्द्रजी को प्यारे हैं । यही निचोड़ ( निश्चित) सिद्धांत है, दोष तो प्रतिकूल विधाता का है।






बिधि बाम की करनी कठिन जेहि मातु किन्हीं बावरी। तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी।। तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहते हैं सौंहें किएं। परिनाम मंगल जानि अपने आने धीरज हिएं।।_अर्थ_प्रतिकूल विधाता की करनी बड़ी कठोर है, जिसने माता कैकेई को बावली बना दिया ( उसकी मति फेर दी )। उस रात श्रीरामचन्द्रजी बार_बार आदरपूर्वक आपकी बड़ी सराहना करते थे। तुलसीदास जी कहते हैं _( निषादराज कहता है कि_) श्रीरामचन्द्रजी को आपके समान अतिसय प्रिय और कोई नहीं है, मैं सौगंध खाकर कहता हूं। परिणाम में मंगल होगा, यह जानकर आप अपने हृदय में धैर्य धारण कीजिये।






अंतरजामी रामु सकुच स्नेह कृपायतन। चलिए करिअ विश्रामु यह विचार दृढ़ आनि मन।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी अन्तर्यामी तथा संकोच, प्रेम और कृपा के धाम हैं, यह विचारकर और मन में दृढ़ता लाकर चलिये और विश्राम कीजिये।





सखा बचन सुनि उर धरि धीरा। बास चले सुमिरत रघुबीरा।। यह सुधि पाई नगर नर नारी। चले बिलोकन आरत भारी।।_अर्थ_सखा के वचन सुनकर हृदय में धीरज धरकर श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करते हुए भरतजी डेरे को चले। नगर के सारे स्त्री_पुरुष यह ( श्रीरामजी के ठहरने के स्थान का ) समाचार पाकर बड़े आतुर होकर उस स्थान को देखने चले।






परदखिना करि करहिं प्रनामा। देहिं कैकेइहि खोरि निकामा।। भरि भरि बारि बिलोचन लेहीं। बाम बिधातहिं दूषन देहिं।।_अर्थ_वे उस स्थान की परिक्रमा करके प्रणाम करते हैं और कैकेई को बहुत दोष देते हैं। नेत्रों में जल भर_भर लेते हैं और प्रतिकूल विधाता को दूषण देते हैं।







एक सराहहिं भरत सनेहू। कोउ कह नऋपतइ निबाहेउ नेहू।। निंदहिं आपु सराहि निषादहिं। को कहा सका बिमोह बिषादहिं।।_अर्थ_कोई भरतजी के स्नेह की सराहना करते हैं और कोई कहते हैं कि राजा ने अपना प्रेम खूब निबाहा। सब अपनी निंदा करके निषाद की प्रशंसा करते हैं। उस समय के विमोह और विषाद को कौन कह सकता है ?

एहि बिधि राति लोग सबु जागा। भा भिनुसार गुदारा लागा।। गुरहिं सुनावं चढ़ाइ सुहाईं। नहीं नाव सब मातु चढ़ाईं।।_अर्थ_इस प्रकार रातभर सबलोग जागते रहे। सवेरा होते ही खेवा लगा। सुंदर नाव पर गुरुजी को चढ़ाकर फिर नयी नाव पर सब माताओं को चढ़ाया।






दंड चारि महुं भा सबु पारा। उतरि भरत तब सबहिं संभारा।।_अर्थ_चार घड़ी में सब गंगाजी के पार उतर गये। तब भरतजी ने उतरकर सबको संभाला।






प्रतिक्रिया करि मातु पद बंदि गुरहिं सिर नाइ। आगें किए निषाद गन दीन्हेउ कटकउ चलाइ।।_अर्थ_ प्रातःकाल की क्रियाओं को करके माता के चरणों की वन्दना कर और गुरुजी को सिर नवाकर भरतजी ने निषाद गणों को ( रास्ता दिखलाने के लिये ) आगे कर लिया और सेना चला दी।






किअउ निषादनाथ अगुआईं। मातु पालकीं सकल चलाईं।। साथ बोलाई भाई लघु दीन्हा। बिप्रन्ह सहित गवनु गुर कीन्हा।।_अर्थ_निषादराज को आगे करके पीछे सब माताओं की पालकियां चलायीं। छोटे भाई शत्रुध्नजी को बुलाकर उनके साथ कर दिया। फिर ब्राह्मणों सहित गुरुजी ने गमन किया।






आपु सुरसरि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय रामू।। गवने भरत पयादेहिं पाए। कोतल संग जाहिं डोरिआए।।_अर्थ_तदनन्तर आप ( भरतजी )_ने गंगाजी को प्रणाम किया और लक्ष्मण सहित श्रीसीतारामजी का स्मरण किया। भरतजी पैदल ही चले। उनके साथ कोतल ( बिना सवार के ) घोड़े बागडोर से बंधे चले जा रहे हैं।






कहहिं सुसेवक बारहिं बारा। होइअ नाथ अश्व असवारा।। रामु पयादेहिं पायं सिधाए। हम कहां रथ गज बाजि बनाए।।_अर्थ_उत्तम सेवक बार_बार कहते हैं कि हे नाथ ! आप घोड़े पर सवार हो लीजिए। ( भरतजी जवाब देते हैं कि ) श्रीरामचन्द्रजी तो पैदल ही गये और हमारे लिये रथ, हाथी और घोड़े बनाये गये हैं।






सिर भर जाउं उचित अस मोरा। सब तें सेवक धर्म कठोरा।। देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी।।_अर्थ_मुझे उचित तो ऐसा है कि मैं सिर के बल चलकर जाऊं। सेवक का धर्म सबसे कठिन होता है। भरतजी की दशा देखकर और कोमल वाणी सुनकर सब सेवकगण ग्लानि के मारे गले जा रहे हैं।

Wednesday, 24 April 2024

अयोध्याकाण्ड


देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरी भरत लघु भाई।। कहि निषाद निज नाम सुबानीं।
सादर सकल जोहारीं रानी।।_अर्थ_ निषादराज की प्रीति को देखकर और सुन्दर विनय सुनकर फिर भरतजी के छोटे भाई शत्रुध्नजी उससे मिले। फिर निषाद ने अपना नाम ले_लेकर सुन्दर ( नम्र और मधुर ) वाणी से सब रानियों को आदरपूर्वक जोहार की।





जानि लखन सम देहिं असीसा। जिअहु सुखी सय लाख बरीसा।। निरखि निषादु नगर नर नारी। भए सुखी जनु लखनु निहारी।।_अर्थ_रानियां उसे लक्ष्मण जी के समान समझकर आशीर्वाद देती हैं कि तुम सौ लाख वर्षों तक सुखपूर्वक जिओ। नगर के स्त्री-पुरुष निषाद को देखकर ऐसे सुखी हुए मानो लक्ष्मण जी को देख रहे हों। 






कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू। भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू।। सुनि निषादु निज भाग बड़ाई। प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई।।_अर्थ_ सब कहते हैं कि जीवन का लाभ तो इसी ने पाया है, जिसे कल्याणस्वरूप श्रीरामचन्द्रजी ने भुजाओं में बांधकर गले लगाया है। निषाद अपने भाग्य की बड़ाई सुनकर मन में परम आनन्दित हो सबको अपने साथ लिवा ले चला।





सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ। घर तरु तरह सर बाग बन बांस बनाएन्हि जाइ।।_अर्थ_उसने अपने सब सेवकों को इशारे से कहा दिया। वे स्वामि का रुख पाकर चले और उन्होंने घरों में, वृक्षों के नीचे, तालाबों पर तथा बगीचों और जंगलों में ठहरने के लिये स्थान बना दिये।







सृंगबेरपुर भरत दीख जब। भे स्नेहन सब अंग सिथिल तब।। सोहत दिएं निषादहि लागू। जनु तनु धरें बिनय अनुरागू।।_अर्थ_भरतजी ने जब श्रृंगवेरपुर को देखा, तब उनके सब अंग प्रेम के कारण शिथिल हो गये। वे निषाद को लागू दिये ( अर्थात् उसके कंधे पर हाथ रखकर चलते हुए ) ऐसे शोभा दे रहे हैं, मानो विनय और प्रेम शरीर धारण किये हुए हों।







एहि बिधि भरत सेन सबु संगा। देखि जाइ जग पावनी गंगा।। रामघाट कहं कीन्ह प्रनामू। भा मनु मगन मिले जनु रामू।।_अर्थ_इस प्रकार भरतजी ने सब सेना को साथ में लिये हुए जगत् को पवित्र करनेवाली गंगाजी के दर्शन किये। श्रीराम घाट को ( जहां श्रीरामजी ने स्नान संध्या कि थी ) प्रणाम किया। उनका मन इतना आनन्द मग्न हो गया, मानो उन्हें स्वयं श्रीरामजी मिल गये हों।







करहिं प्रनाम नगर नर नारी। मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी।। करि मज्जनु मागहीं कर जोरी। रामचन्द्र पद प्रीति न थोरी।।_अर्थ_नगर के नर_नारी प्रणाम कर रहे हैं और गंगाजी के ब्रह्मरूप जल को देख_देखकर आनन्दित हो रहे हैं। गंगाजी में स्नान कर हाथ जोड़कर सब यही वर मांगते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में हमारा प्रेम कम न हो ( अर्थात् बहुत अधिक हो )।








भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू। सकल सुखद सेवक सुरधेनू।। जोरी पानी भर मागउं एहू। संजय राम पद कमल सनेहू।।_अर्थ_भरतजी ने कहा_हे गंगे ! आपकी रज सबको सुख देनेवाली तथा सेवक के लिये तो कामधेनु ही है। मैं हाथ जोड़कर यही वरदान मांगता हूं कि श्रीसीतारामजी के चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो।






एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाई। मातु नहानईं जानि सब डेरा चले लवाइ।।_अर्थ_ इस प्रकार भरतजी स्नान कर और गुरुजी की आज्ञा पाकर तथा यह जानकर कि सब माताएं स्नान कर चुकी हैं, डेरा उठा ले चले।







जहं तहं लोगन्ह डेरा कीन्हां। भरतु सोंध सबहिं कर लीन्हा।। सुर सेवा करि आयसु पाई। राम मातु पहिं गए दोउ भाई।।_अर्थ_लोगों ने जहां_तहां डेरा डाल दिया। भरतजी ने सभी का पता लगाया ( कि सब लोग आराम से टिक गये हैं या नहीं)। फिर देव पूजन करके आज्ञा पाकर दोनों भाई श्रीरामचन्द्रजी की माता कौसल्याजी के पास गये।







चरन चांपि कहि कहि मृदु बानी। जननीं सकल भरत सनमानी।। भाइहिं सौंपि मातु सेवकाई। आपी निषादहिं लीन्ह बोलाई।।_अर्थ_चरण दबाकर और कोमल वचन कह-कहकर भरतजी ने सब माताओं का सत्कार किया। फिर भाई शत्रुध्न को माताओं की सेवा सौंपकर आपने निषाद को बुला लिया।







चले सखा कर सों कर जोरें। सिथिल सरीरु स्नेह न थोरे।। पूंछत सखहि सो ठाउं देखाऊ। नेकु नयन मन जरनि जुराऊ।।_अर्थ_ सखा निषादराज के हाथ_से_हाथ मिलायें हुए भरतजी चले। प्रेम कुछ थोड़ा नहीं है ( अर्थात् बहुत अधिक प्रेम है ), जिससे उनका शरीर शिथिल हो रहा है। भरतजी सखा से पूछते हैं कि मुझे वह स्थान दिखलाओ_और नेत्र और मन की जलन कुछ ठण्डी करो।









जहं सिय राम लखन निसि सोए। कहत भरे जल लोचन कोए। भरत बचन सुनि भयउ विषादू। तुरत तहां लइ गयउ निषादू।।_अर्थ_जहां सीताजी, श्रीरामजी और लक्ष्मण रात को सोये थे। ऐसा कहते ही उनके नेत्रों के कोनों से ( प्रेमाश्रुओं का ) जल भर आया। भरतजी के वचन सुनकर निषाद को बड़ा विषाद हुआ। वह तुरंत ही उन्हें वहां ले गया।







जहं सिंसुपा पुनीत तरह रघुबर किया बिश्रामु। अति सनेह सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु।।_अर्थ_जहां पवित्र अशोक के वृक्ष के नीचे श्रीरामजी ने विश्राम किया था। भरतजी ने वहां अत्यन्त प्रेम से आदरपूर्वक दण्डवत् प्रणाम किया।








कुस सांथरी निहारी सुहाई। कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई।। चरन रेख रज आंखिन्ह लाई। बना न कहते प्रीति अधिकाई।।_अर्थ_ कुशों की सुन्दर सांथरी देखकर उसकी प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया। श्रीरामचन्द्रजी के चरण चिन्हों की रज आंखों में लगायी। ( उस समय के ) प्रेम की अधिकता कहते नहीं बनती।







कनक बिन्दु दुइ चारिक देखे। राखे सीस सिय समय लेखे।। सजल बिलोचन हृदय गलानी। कहत सखा सन बचन सुबानी।।_अर्थ_भरतजी ने दो चार स्वर्ण बिन्दु ( सोने के कण या तारे आदि जो सीताजी के गहने कपड़ों से गिर पड़े थे ) देखें तो उनको सीताजी के समान समझकर सिर पर रख लिया। उनके नेत्र ( प्रेमाश्रु ) जल से भरे हैं और हृदय में ग्लानि भरी है। वे सखा से सुन्दर वाणी में ये वचन बोले_






श्रीहत सिय बिरहं दुति हीना। जथा अवध नर नारी विलीना।। पिता जनक देऊं पटतर केही। करतलु भोगु जोगु जग जेही।।_अर्थ_ये स्वर्ण के कण या तारे भी  सीताजी के विरह से ऐसे श्रीहत ( शोभाहीन) एवं कान्तिहीन हो रहे हैं जैसे ( राम_वियोग में ) अयोध्या के नर_नारी विलीन ( शोक के कारण क्षीण ) हो रहे हैं। जिन सीताजी के पास पिता राजा जनक हैं, इस जगत् में भोग और जोग दोनों जिनकी मुट्ठी में है, उन जनक जी को मैं किसकी उपमा दूं?








ससुर भानुकुल भानु भुआलू। जेहिं सहित अमरावतिपालू।। प्रान नाथु रघुनाथ गोसाईं। जो बड़ होत सो राम बड़ाई।।_अर्थ_सूर्यकुल के सूर्य राजा दशरथ जी जिनके ससुर हैं, जिनको अमरावती के स्वामि इन्द्र भी सिखाते थे ( ईर्ष्यापूर्वक उनके जैसा ऐश्वर्य और प्रताप पाना चाहते थे ); और प्रभु श्रीरघुनाथजी जिनके प्राणनाथ हैं, जो इतने बड़े हैं कि जो कोई भी बड़ा होता है, वह श्रीरामचन्द्रजी की ( दी हुई ) बड़ाई से होता है।






पति देवता सुतीय मनि सीय सांथरी देखि। बिहरत हृदय न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि।।_अर्थ_ उन श्रेष्ठ पतिव्रता स्त्रियों में शिरोमणि सीताजी की साथरी ( कुशशय्या ) देखकर मेरा हृदय हहराकर ( दहलकर ) फट नहीं जाता; हे शंकर ! यह वज्र से भी अधिक कठोर है।







लालन जोगु लखन लघु लोने। भए न भाइ अस अहहिं न होने। पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे। सिय रघुवीरहिं प्रानपियारे।।_अर्थ_मेरे छोटे भाई लक्ष्मण बहुत ही सुन्दर और प्यार करने योग्य हैं। जो लक्ष्मण अवध के लोगों के प्यारे, माता_पिता के दुलारे और श्रीसीतारामजी के प्राण प्यारे हैं।






मृदु मूर्ति सुकुमार सुभाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ।। तें बन सहाहिं बिपति सब भांती। निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती।।_अर्थ_जिनकी कोमल मूर्ति और सुकुमार स्वभाव है, जिनके शरीर में कभी गर्म हवा भी नहीं लगी, वे वन में सब प्रकार की विपत्तियां सह रहे हैं। ( हाय ! ) इस मेरी छाती ने (कठोरता में) करोड़ों वज्रों का भी निरादर कर दिया। ( नहीं तो यह कभी भी फट गयी होती )।







राम जनमि जगु कीन्ह उजागर। रूप सील सुख सब गुन सागर।। पुरजन परिजन गुर पितु माता। राम सुभाउ सबहिं सुखदाता।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी ने जन्म ( अवतार ) लेकर जगत् को प्रकाशित ( परम सुशोभित) कर दिया। वे रूप, शील और समस्त गुणों के समुद्र हैं। पुरवासी, कुटुम्बी, गुरु, माता_पिता सभी को श्रीरामजी का स्वभाव सुख देनेवाला है।






बैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं।। सादर कोटि कोटि सत सेषा। करि न कहीं प्रभु गुन गन लेखा।।_अर्थ_शत्रु भी श्रीरामजी की बड़ाई करते हैं। बोल_चाल, मिलने के ढ़ंग और विनय से वे मन को हर लेते हैं। करोड़ों सरस्वती और अरबों शेषजी भी प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के गुणों की गिनती नहीं कर सकते।







सुख स्वरूप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान। तें सओवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान।।_अर्थ_जो सुख स्वरूप रघुवंशशिरोमणि  श्रीरामचन्द्रजी मंगल और आनंद के भण्डार हैं, वे पृथ्वी पर कुशाल बिछाकर सोते हैं। विधाता की गति बड़ी ही बलवान है।






राम सुना दुख कान न काऊ। जीवन तरु जिमि जोगवइ राउ।। पलक नयन फनी मनि जेहिं भांती। जोगवहिं जननी सकल दिन राती।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने कभी कानों से भी दु:ख का नाम नहीं सुना। महाराज स्वयं जीवन वृक्ष की तरह उनकी सार-संभाल किया करते थे। सब माताएं भी दिन_रात उनकी ऐसी सार संभाल करती थीं, जैसे पलक नेत्रों की और सांप अपनी मणि की करते हैं।

















Sunday, 31 March 2024

अयोध्याकाण्ड

देखि दूरी तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दण्ड प्रनामू।। जानि रामप्रिय दीन्ह असीसा। भरतहिं कहेउ बुझाई मुनीसा।।_अर्थ_निषादराज ने मुनिराज वशिष्ठ जी को देखकर अपना नाम बतलाकर दूर से ही दण्डवत् प्रणाम किया। मुनीश्वर वशिष्ठ जी ने उसको राम का प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया और भरत को समझाकर कहा ( कि यह श्रीरामजी का मित्र है)।







राम सखा सुनि स्यंदन त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।। गाउं जाति गुहं नाउं सुनाई। कीन्ह जोहारी माथ महि लाई।।_अर्थ_यह श्रीरामजी का मित्र है, इतना सुनते ही भरतजी ने रथ त्याग दिया। वे रथ से उतरकर प्रेम में उमंगते हुए चले। निषादराज गुह ने अपना गांव, जाति और नाम सुनाकर पृथ्वी पर माथा टेककर जोहार की।







करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ। मनहुं लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदय समाइ।।_अर्थ_दण्डवत् करते देखकर भरतजी ने उठाकर उसको छाती से लगा लिया। हृदय में प्रेम समाता ही नहीं है, मानो स्वयं लक्ष्मण जी से भेंट हो गयी हो।








भेंटत भरत ताहि अति प्रीती। लोग सहाहिं प्रेम को रीती।। धन्य_धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।_भरतजी गुह को अत्यंत प्रेम से गले लगा रहे हैं। प्रेम की रीति से सब लोग सिंहा रहे हैं ( ईर्ष्यापूर्व प्रशंसा कर रहे हैं ); मंगल की मूल ' धन्य_धन्य' की ध्वनि करके देवता उसकी सराहना करते हुए फूल बरसा रहे हैं।








लोक बेद सब भांतिहिं नीचा। जासु छांह छुइ लेइअ सींचा।। तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलती पुलक परिपूरित गाता।।_अर्थ_( वे कहते हैं _) जो लोक और वेद दोनों में सब प्रकार से नीचा माना जाता है, जिसकी छाया के छू जाने से भी स्नान करना होता है, उसी निषाद से अंकवार भरकर ( हृदय से चिपटाकर ) श्रीरामचन्द्रजी के छोटे भाई भरतजी ( आनंद और प्रेम वश ) शरीर में पुलकावली से परिपूर्ण हो मिल रहे हैं।








राम राम करि जे जमुहाहीं। तिन्हहिं न पाप पुंज समुहाहीं।। यह तौं राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जग पावन कीन्हा।।_अर्थ_ जो लोग राम_राम कहकर जंभाई लेते हैं ( अर्थात् आलस्य से भी जिनके मुंह से राम नाम का उच्चारण हो जाता है), पापों के समूह ( कोई भी पाप ) उनके सामने नहीं आते। फिर इस गुह को तो स्वयं श्रीरामचन्द्रजी ने हृदय से लगा लिया और कुल समेत इसे जगत्पावन ( जगत् को पवित्र करनेवाला बना दिया।







करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरइ ।। उलटा नाम जपत जग जाना। बाल्मीकि में ब्रह्म समाना।।_अर्थ_कर्मनाशा नदी का जल गंगाजी में पड़ जाता है ( मिल जाता है ), तब कहिये, उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता ? जगत् जानता है कि उलटा नाम ( मरा_मरा ) जपते_जपते वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गये।










स्वपच सबर खस जमन जड़ पावंर कोल किरात । रामु कहत पावन परम होत भुवन विख्यात।।_अर्थ_मूर्ख और पामर चाण्डाल, शबर, खस, यवन, कोल और किरात भी रामनाम कहते ही परम पवित्र और त्रिभुवन में विख्यात हो जाते हैं।









नहिं अचिरिजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।। राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं।।_अर्थ _इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग_युगान्तर से यही रीति चली आ रही है। श्रीरघुनाथजी ने किसको बड़ाई नहीं दी ? इस प्रकार देवता रामनाम की महिमा कह रहे हैं और उसे सुन_सुनकर अयोध्या के लोग सुख पा रहे हैं।








रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूंजी कुल सुमंगल खेमा।। देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।_अर्थ_ रामसखा  निषादराज से प्रेम के साथ मिलकर भरतजी ने कुशल, मंगल और क्षेम पूछी। भरतजी का शील और प्रेम देखकर निषाद उस समय विदेह हो गया ( प्रेम मुग्ध होकर देह की सुध भूल गया)।








सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितइ एकटक ठाढ़ा।। धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी।।_अर्थ_उनके मन में संकोच, प्रेम और आनंद इतना बढ़ गया कि वह खड़ा_खड़ा टकटकी लगाये भरतजी के चरणों की वन्दना करके प्रेम के साथ हाथ जोड़कर विनती करने लगा।








कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तइहउं काल कुसल निज लेखी।। अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें।
सहित कोटि कुल मंगल मोरें।।_अर्थ_ हे रहो ! कुशल के मूल आपके चरणकमलों के दर्शन कर मैंने तीनों कालों में अपना कुशल जान लिया। अब आपके परम अनुग्रह से करोड़ों कुलों ( पीढ़ियों ) सहित मेरा मंगल ( कल्याण) हो गया।








समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियं जोइ। जो न भजइ रघुबीर पद जग बिना संचित सोइ।।_अर्थ_मेरी करतूत और कुल को समझकर और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की महिमा को मन में देख ( विचार ) कर ( अर्थात् कहां तो मैं नीच जाति और नीच कर्म करनेवाला जीव, और कहां अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के स्वामि श्रीरामचन्द्रजी ! पर उन्होंने मुझ जैसे नीच को भी अपनी अहैतु की कृपा वश अपना लिया_यह समझकर) जो रघुवीर श्रीरामचन्द्रजी के चरणों का भजन नहीं करता, वह जगत् में विधाता के द्वारा ठगा गया है।






कपटी कायर कुमति कुजाति। लोक बेद बाहेर सब भांती।। राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउ भुवन भूषन तबही तें।।_अर्थ_मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूं और लोक_वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूं। पर जबसे श्रीरामचन्द्रजी ने मुझे अपनाया है, तभी से मैं विश्व का भूषण हो गया।







देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरी भरत लघु भाई।। कहि निषाद निज नाम सुबानीं।
सादर सकल जोहारीं रानी।।_अर्थ_ निषादराज की प्रीति को देखकर और सुन्दर विनय सुनकर फिर भरतजी के छोटे भाई शत्रुध्नजी उससे मिले। फिर निषाद ने अपना नाम ले_लेकर सुन्दर ( नम्र और मधुर ) वाणी से सब रानियों को आदरपूर्वक जोहार की।






Sunday, 17 March 2024

अयोध्याकाण्ड

होहु संजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल
मरै कर ठाटा।। सनमुख लोह भरत सन लेऊं। जिअत न सुरसरि उतरन देऊं।।_अर्थ_सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने का साज सजा लो ( अर्थात् भरत से युद्ध में मरने के लिये तैयार हो जाओ )। मैं भरत से सामने ( मैदान में ) लोहा लूंगा (: मुठभेड़ करूंगा) और जीते_जी उन्हें गंगापार उतरने न दूंगा।





होहु संजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा।। सनमुख लोह भरत सन लेऊं। जिअत न सुरसरि उतरन देऊं।।_अर्थ_सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने के साथ सजा लो ( अर्थात् भरत से युद्ध में लड़ने के लिये तैयार हो जाओ )। मैं भरत से सामने ( मैदान में ) लोहा लूंगा ( मुठभेड़ करूंगा ) और जीते_जी उन्हें गंगापार उतरने न दूंगा।






समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा।। भरत भाई नृपु मैं जन नीचू। बड़ें भाग अहि पाइअ मीचू।।_अर्थ_युद्ध में मरण, फिर गंगाजी का तट, श्रीरामजी का काम और क्षणभंगुर शरीर ( जो चाहे जब नाश हो जाय )। भरत श्रीरामजी के भाई और राजा ( उनके हाथ से मरना ) और मैं नीचे सेवक_बड़े भाग से ऐसी मृत्यु मिलती है।






स्वामि काज करिहउं रन रारी। जब धवलिहउं भुवनु दस चारी।। तजउं प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूं हाथ मुद मोदक मोरें।।_अर्थ_मैं स्वामी के काम के लिये रण मेंश लड़ाई करूंगा और चौदहों लोकों को अपने यश से उज्जवल कर दूंगा। श्रीरघुनाथजी के निमित्त प्राण त्याग दूंगा। मेरे तो दोनों ही हाथों में आनन्द के लड्डू हैं ( अर्थात् जीत गया तो रामसेवक का यश प्राप्त करूंगा और मारा गया तो श्रीरामजी की नित्य सेवा प्राप्त करूंगा )।





साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुं जासु न रेखा।। जायं जिअत जग सो महिभारू। जननी जीवन विटप कुठारू।_अर्थ_साधुऔं के समाज में जिनकी गिनती नहीं और श्रीराम जी के भक्तों में जिसका स्थान नहीं वह जगत् में पृथ्वी का भार होकर व्यर्थ हो जाता है। वह माता के जीवन रूपी वृक्ष के काटने के लिये कुल्हाड़ामात्र है।






बिगत बिषाद निषाद पति सबहिं बढ़ाई उछाहु। सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु।।_अर्थ_(इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी के लिये प्राण समर्पण का निश्चय करके) निषादराज विषाद से रहित हो गया और सबका उत्साह बढ़ाकर तथा श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करके उसने तुरंत ही तरकस, धनुष और कवच मांगा।






चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी।। सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। माथीं बांधि चढ़ाइन्हि धनहीं।_अर्थ_ निषादराज को जोहार कर_करके सब निषाद चले। सभी बड़े शूरवीर हैं और संग्राम में लड़ना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों की जूतियों का स्मरण करके उन्होंने भांजियां ( छोटे_छोटे तरकस ) बांधकर धनुहियों ( छोटे_छोटे धनुषों )_पर प्रत्यंचा चढ़ायीं।







अंगरी पहिरि कूड़ि सिर धरहीं। फरसा बांस सेल समय करहीं।। एक कुशल अति ओड़न खांड़ें। कूदहिं गगन मनहुं छिति छांड़े।।_अर्थ_ कवच पहनकर लोहे का टोप सिर पर रखते हैं और फरसे, भाले तथा बरछों को सीधा कर रहे हैं ( सुधार रहे हैं)। कोई तलवार वार रोकने में अत्यंत ही कुशल हैं। वे ऐसे उमंग में भरे हैं मानो धरती छोड़कर आकाश में कूद ( उछल ) रहे हों।





निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहइ जोहारे जाई।। देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने।।_अर्थ_अपना_अपना साज समाज ( लड़ाई का सामान और दल ) बनाकर उन्होंने जाकर निषादराज गुह को जोहार की। निषादराज ने सुंदर योद्धाओं को देखकर सबको सुयोग्य जाना और नाम ले_लेकय सबका सम्मान किया।






भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि। सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि।।_अर्थ_( उसने कहा_)हे भाइयों ! धोखा न लाना ( अर्थात् मरने से न घबराना), आज मेरा बड़ा भारी काम है। यह सुनकर सब योद्धा बड़े जोश सेके साथ बोल उठे_हे वीर ! अधीर मत हो।






राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे।। जीवत पाउ न पाएं धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनी करहीं।।_अर्थ_हे नाथ ! श्रीरामचन्द्रजी के प्रताप से और आपके बल से हमलोग भरत की सेना को बिना वीर और और बिना घोड़े के ही कर देंगे ( एक_एक वीर और एक_एक घोड़े को मार डालेंगे )। जीते_जी पीछे पांव न रखेंगे। पृथ्वी को रुण्ड_मुण्डमयी कर देंगे ( सिरों और धरों से छा देंगें )।





दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढ़ोलू।। एतना कहते छींक भइ बांए।। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।।_अर्थ_निषादराज ने वीरों का बढ़िया दल देखकर कहा_जुझाऊ ( लड़ाई का ) ढ़ोल बजाओ। इतना कहते ही बायीं ओर छींक हुई। शकुन विचारने वालों ने कहा कि खेत सुन्दर है ( जीत होगी )।





बूढ़ु एक कह सगुन बिचारी। भरतहिं मिलइ न होइहि रारी।। रामहिं भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रह नाहीं।।_अर्थ_एक बूढ़े ने शकुन विचारकर कहा_ भरत से मिलना होगा, उनसे लड़ाई नहीं होगी। भरत श्रीरामचन्द्रजी को मनाने जा रहे हैं। शकुन ऐसा कह रहा है कि विरोध नहीं है।





सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछताहिं बिमूढ़ा।। भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझे। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।।_अर्थ_यह सुनकर निषादराज गुह ने कहा_बूढ़ा ठीक कह रहा है। जल्दी में ( बिना विचारे ) कोई काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं। भरतजी का शील_स्वभाव बिना समझे और बिना जाने युद्ध करने में हित नहीं है।






सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछताहिं बिमूढ़ा।। भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझे। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।।_अर्थ_यह सुनकर निषादराज गुह ने कहा_बूढ़ा ठीक कह रहा है। जल्दी में ( बिना विचारे ) कोई काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं। भरतजी का शील_स्वभाव बिना समझे और बिना जाने युद्ध करने में हित नहीं है।





गहहु घाट भट समिति सब लेउं मिलि जाइ। बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउं आइ।।_अर्थ_अतएव हे वीरों ! तुमलोग इकट्ठे होकर सब घाटों को रोक लो, मैं जाकर भरतजी से मिलकर उनका भेद लेता हूं। उनका भाव मित्र का है या शत्रु का या उदासीन का, यह जानकर तब आकर वैसा ( उसी के अनुसार ) प्रबन्ध करूंगा।






लखि सनेहु सुभायं सुहाएं। बैरु प्रीति नहिं दुरइं दुराएं।। अस कहि भेंट संजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे।।_अर्थ_उनके सुंदर स्वभाव से मैं उनके स्नेह को पहचान लूंगा। वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपते। ऐसा कहकर वह भेंट का सामान सजाने लगा। उसने कंद, मूल, फल, पक्षी और हिरन मंगवाये।








मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने।। मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए।।_अर्थ_कहारलोग पुराने और मोटी पहिना नामक मछलियों के भार भर_भरकर लाये। भेंट का सामान सजाकर मिलने के लिये चले तो मंगलदायक शुभ शकुन मिले।