Monday, 13 November 2023

अयोध्याकाण्ड

नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा। परम बिचित्र बिमान बनावा।। गहि पद भरत मातु सब राखी। रहीं रानी दर्शन अभिलाषी।।_अर्थ_वेदों में बतायी हुई विधि से राजा की देह को स्नान कराया गया और परम बिचित्र विमान बनाया गया। भरतजी ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा ( अर्थात् प्रार्थना करके उनको सती होने से रोक लिया )। वे रानियां भी ( श्रीराम के ) दर्शन की अभिलाषा से रह गयीं।






चंदन अगर भार बहु आए। अमित अनेक सुगंध सुहाए।। सरजू तीर रचि चिता बनाई। जनु सुरपुर सोपान सुहाई।।_अर्थ_चंदन और अगर के तथा और भी अनेकों प्रकार के अपार ( कपूर, गुलगुल, केसर आदि ) सुगंध द्रव्यों के बहुत_से बोझ आये। सरयूजी के तट पर सुंदर चिंता रचकर बनायी गयी, ( जो ऐसी मालुम होती थी ) मानो स्वर्ग की सुंदर सीढ़ी हो।





एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही। बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही।। सोधि स्मृति सब बेद पुराना। कीन्ह भरत दसगात बिधाना।।_अर्थ_इस प्रकार सब दाहक्रिया की गयी और सबने बइधइपूर्वक स्नान करके तिलांजलि दी। फिर वेद, स्मृति और पुराण सबका मत निश्चय करके उसके अनुसार भरतजी ने पिता का दशगात्र_विधान ( दस दिनों के कृत्य ) किया।









जहं जस मुनिवर आयसु दीन्हा। तहं तस सहज भांति सबु कीन्हा।। भए बइसउद्ध दिए सब दाना। धेनु बाजी गज बाहन नाना।।_अर्थ_ मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ जी ने जहां जैसी आज्ञा दी, वहां भरतजी ने वैसा ही हजारों प्रकार से किया। शुद्ध हो जाने पर ( विधिपूर्वक ) सब दान दिये। गऔएं तथा घोड़े, हाथी आदि अनेक प्रकार की सवारियां,





सिंघासन भूषन बसन अन्न धरना धन धाम। दिए भरत रहि भूमइसउर में परिपूर्ण काम।।_अर्थ_सिंहासन, गहने, कपड़े, अन्न, पृथ्वी, धन और मकान भरतजी ने दिए; भूदेव ब्राह्मण दान पाकर परिपूर्ण काम हो गये ( अर्थात् उनकी सारी मनोकामनाएं अच्छी तरह से   पूरी हो गयीं )




पितु हित भरत कीन्ह जस करनी। सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी।। सुदिनु सोधि मुनिवर तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।।_अर्थ_पिता के लिये भरतजी ने जैसी करनी की वह लाखों मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठ जी आए और उन्होंने मंत्रियों तथा सब महाजनों को बुलाया।




बैठे राजसभां सब जाई। पड़े बोलि भरत दोउ भाई।। भरतु बसिष्ठ निकट बैठाले। नीति धरममय बचन उचारे।।_अर्थ_ सब लोग राजसभा में जाकर बैठ गये। तब मुनि ने भरतजी तथा शत्रुघ्नजी दोनों भाइयों को बुलवा भेजा। भरतजी को वसिष्ठ जी ने अपने पास बैठा लिया और नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे।






प्रथम कथा सब मुनिवर बरनी। कैकेई कुटिल कीन्ह जस करनी।। भूप धरमब्रतउ सत्य सराहा। जेहिं तनु परिहरि प्रेम निबाहा।।_अर्थ_पहले तो कैकेयी ने जैसी कुटिल करनी की थी, श्रेष्ठ मुनि ने वह सारी कथा कही। फिर राजा के धर्मव्रत और सत्य की सराहना की, जिन्होंने शरीर त्यागकर प्रेम को निबाहा।





कहत राम गुन सील सुभाऊ। सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ।। बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी। सोक सनेह मगन मुनि ज्ञानी।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के गुण, शील और स्वभाव का वर्णन करते_करते तो मुनिराज के नेत्रों में जल भर आया और वे शरीर से पुलकित हो गये। फिर लक्ष्मण जी और सीताजी के प्रेम की बड़ाई करते हुए ज्ञानी मुनि शोक और स्नेह में मग्न हो गये।





सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ। हानि लाभ जीवनु मरने जस अपजसु बिधि हाथ।।_अर्थ_मुनिनाथ ने बिलखकर ( दु:खी होकर ) कहा_हे भरत ! सुनो, भावी ( होनहार) बड़ी बलवान् है। हानि_लाभ, जीवन_मरण और यश_अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं।






अस बिचारि केही देइअ दोसू। ब्यरथ काहि पर कीजिए रोसू।। तात बिचारी करहु मन माहीं। सोचु जोगु दशरथ नृप नाही।।_अर्थ_ऐसा विचारकर किसे दोष दिया जाय ?और व्यर्थ किसपर क्रोध किया जाय ? हे तात ! मन में विचार करो। राजा दशरथ सोच करने योग्य नहीं हैं।





सोचिअ बिप्र जो वेद बिहीना। तजि निज धर्मु बिषय लयलीना।। सोचिअ नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्राण समाना।।_अर्थ_सोच उस ब्राह्मण का करना चाहिये जो वेद नहीं जानता और जो अपना धर्म छोड़कर विषय भोगों में ही लीन रहना है। उस राजा का सोच करना चाहिये जो नीति नहीं जानता और जिसको प्रजा प्राणों के समान प्यारी नहीं है।






सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।। सोचिअ सूद्रू बिप्र अवमानी। मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी।।_अर्थ_उस वैश्य का सोच करना चाहिये जो धनवान होकर भी कंजूस है, और जो अतिथि सत्कार तथा शिवजी की भक्ति करने में कुशल नहीं है। उस शूद्र का सोच करना चाहिये जो ब्राह्मणों का अपमान करनेवाला, बहुत बोलनेवाला, मान_बड़ाई चाहनेवाला और ज्ञान का घमंड रखनेवाला है।





सोचिअ पुनि पतिबंचक नारी। कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी।। सोचिअ बटु निज ब्रतउ परिहरई। जो नहिं गुर आयसु अनुहरई।।_अर्थ_पुन: उस स्त्री का सोच करना चाहिये जो पति को चलनेवाली, कुटिल, कलहप्रिय और स्वेच्छाचारिणी है। उस ब्रह्मचारी का सोच करना चाहिये जो अपने ब्रह्मचर्य व्रत को छोड़ देता है और गुरु की आज्ञा के अनुसार नहीं चलता।





सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग। सोचिअ जती प्रपंच रत बिगत बिबेक बिराग।।_अर्थ_उस गृहस्थ का सोच करना चाहिये जो मोह वश कर्ममार्ग का त्याग कर देता है; उस संन्यासी का सोच करना चाहिये जो दुनिया के प्रपंच में फंसा हुआ है और ज्ञान वैराग्य से हीन है।





बैखानस सोई सोचै जोखू। तप बिहाइ भोगू।। सोचिअ पिसुन अकारन क्रोधी। जननी जनक गुर बंधु बिरोधी।।_अर्थ_वानप्रस्थ वहीं सोच करने योग्य है जिसको तयस्यआ छोड़कर भोग अच्छे लगते हैं। सोच उसका करना चाहिये जो चुगलखोर है, बिना ही कारण क्रोध करनेवाला है तथा माता, पिता, गुरु एवं भाई बंधुओं का विरोध रखनेवाला है।






सब बिधि सोचिअ पर अपकारी। निज तनु पोषक निरदय भारी।। सोचनीय सबहीं बिधि सोई। जो न छाड़ि छलु हरि जन होई।।_अर्थ_सब प्रकार से उसका सोच करना चाहिये जो दूसरों का अनिष्ट करता है, अपने ही शरीर का पोषण करता है और बड़ा भारी निर्दयी है। और वह तो सभी प्रकार से सोच करने योग्य है जो छल छोड़कर हरि का भक्त नहीं होता।






सोचनीय नहिं कोसलराऊ। भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ।। भयउ न अहई न  अब होनिहारा। भूप भरत जस पिता तुम्हारा।।_अर्थ_कोसलराज दशरथजी सोच करने योग्य नहीं हैं जिनका प्रभाव चौदहों लोकों में प्रकट है। हे भरत ! तुम्हारे पिता_जैसा राजा न तो हुआ न है और न अब होने का ही है। 






बिधि हरि हरु सुरपति दिसिनाथा। बरनहि सब दशरथ गुन गाथा।।_अर्थ_ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र और दिक्पाल सभी दशरथजी के गुणों की कथाएं कहते रहते हैं।

कहहु तात केहि भांति कोई करिहिं बड़ाई तासु। राम लखन तुम्ह सत्रुहन सरिस सुअन सुचि जासु।।_अर्थ_हे तात ! कहो उनकी बड़ाई कोई किस प्रकार करेगा, जिनके राम, लक्ष्मण, तुम और शत्रुघ्न सरीखे पवित्र पुत्र हैं।






सब प्रकार भूपति बड़भागी। बादि बिषादु करिअ तेहि लागी।। यह सुनि समुझि सोचु परिहरहू। सिर धरि राज रजायसु करहू।।_अर्थ_राजा सब प्रकार से बड़भागी थे। उनके लिये विषाद करना व्यर्थ है। यह सुन और समझकर सोच त्याग दो और राजा की आज्ञा सिर चढ़ाकर तदनुसार करो।

Saturday, 7 October 2023

अयोध्याकाण्ड

पितु सुरपुर बन रघुवर केतू। मैं केवल सब अनरथ हेतू।। धिग मोहि भयउं बेनु बन आगी। दुसह दाह दुख दूषन भागी।।_अर्थ_पिताजी स्वर्ग में हैं और श्रीरामजी वन में हैं। केतू के समान केवल मैं ही इन सब अनर्थों का कारण हूं। मुझे धिक्कार है ! मैं बांस के वन में आग उत्पन्न हुआ और कठिन दाह, दु:ख और दोषों का भागी बना।




मातु भरत के बचन मृदु सुनि पुनि उठी संभारि। लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि।।_अर्थ_भरतजी के कोमल वचन सुनकर माता कौसल्याजी फिर संभलकर उठीं। उन्होंने भरत को उठाकर छाती से लगा लिया और नेत्रों से आंसू बहाने लगीं।






सरल सुभाय मायं हियं लाए। अति हित मनहुं राम फिरि आए।। भेंटेउ बहुरि लखन लखन लघु भाई। सोकु सनेहु न हृदयं समाई।।_अर्थ_सरल स्वभाववाली माता ने बड़े प्रेम से भरतजी को छाती से लगा लिया; मानो श्रीरामजी ही लौटकर आ गये हों। फिर लक्ष्मण जी के छोटे भाई शत्रुघ्न को हृदय से लगा लिया। शोक और स्नेह हृदय में समाता ही नहीं है।







देखि सुभाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई।। माता भरतु गोद बैठारे। आंसु पोंछि मृदु बचन उचारे।।_अर्थ_ कौसल्या का स्वभाव देखकर सब कोई कह रहे हैं_श्रीराम की माता का ऐसा स्वभाव क्यों न हो। माता ने भरतजी को गोद में बैठा लिया और उनके आंसू पोंछकर कोमल वचन बोलीं।







अजहुं बच्छ बलि धीरज धरहु। कुसमय समुझि सोक परिहरहू।। जनि मानहुं हइयं हानि गलानी। काल क्रम गति अघटित जानी।।_अर्थ_हे वत्स ! मैं बलैया लेती हूं। तुम अब भी धीरज धरो। बुरा समय जानकर शोक त्याग दो। काल और कर्म की गति अमिट जानकर हृदय में हानि और ग्लानि मत मानो।







काहुहि दोसु देहु जनि ताता। भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता।। जो एतएहउं दुख मोहि जिआवा। अजहुं को जानि का तेहि भावा।।_अर्थ_ हे तात ! किसी को दोष मत दो। विधाता मुझको सब प्रकार से उल्टा हो गया है, जो इतने दु:ख पर भी मुझे जिला रहा है। अब भी कौन जानता है, उसे क्या भा रहा है ?







पितु आयसु भूषन बसन तात तजे रघुबीर। बिसमउ हरष न हृदयं कछु पहिरे बलकल चीर।।_अर्थ_ हे तात ! पिता की आज्ञा से श्रीरघुवीर ने भूषन_वस्त्र त्याग दिये और वल्कल _वस्त्र पहन लिये। उनके हृदय में न कुछ विषाद था न हर्ष।







मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू। सब कर सब बिधि करि परितोषू।। चले बिपिन सुनि सिय संग लागी। रहि न राम चरन अनुरागी।।_अर्थ_उनका मुख प्रसन्न था, मन में न आसक्ति थी, न राग ( द्वेष )। सबका सब तरह से संतोष कराकर वे वन को चले। यह सुनकर सीता भी उनके साथ लग गयीं। श्रीराम के चरणों की अनुरागिणि वे किसी तरह न रहीं।








सुनहिं लखन चले उठि साथा।  रहहइं न जतन किए रघुनाथा।। तब रघुपति सबही सिरु नाई। चले संग सिय अरु लघु भाई।।_अर्थ_सुनते ही लक्ष्मण भी साथ ही उठ चले। श्रीरघुनाथ ने उन्हें रोकने के बहुत यत्न किये, पर वे न रहे। तब श्रीरघुनाथजी सबको सिर नवाकर सीता और छोटे भाई लक्ष्मण को साथ लेकर चले गये।







रामु लखनऊ सिय बनहइ सिधाए। गाउं न संग न प्रान पठाए।। यह सबु भा इन्ह आंखिन्ह आगें। तउ न तजा तनु जीव अभागे।।_अर्थ_श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन को चले गये। मैं न तो साथ ही गया और न मैंने अपने प्राण ही उनके साथ भेजे। यह सब इन्हीं आंखों के सामने हुआ। तो भी अभागे जीव ने शरीर नहीं छोड़ा।








मोहि न लाज निज नेहु निहारी। राम सरिस सुत मैं महतारी।। जिऐ मरै भल भूपति जाना। मोर हृदय सत कुलिस समाना।।_अर्थ_ अपने स्नेह की ओर देखकर मुझे लाज भी नहीं आती; राम सरीखे पुत्र की मैं माता ! जीना और मरना तो राजा ने खूब जाना। मेरा हृदय तो सैकड़ों वज्रों के समान कठोर है।







कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवासु। ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुं सोक नेवासु।।_अर्थ_कौसल्या के वचनों को सुनकर भरतसहित सारा रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा। राजमहल मानो शोक का निवास बन गया।







बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई। कौसल्या लिए हृदयं लगाई।। भांति अनेक भरत समुझाए। कहि बिबेकमय बचन सुनाए।।_अर्थ_भरत_शत्रुध्न दोनों भाई विकल होकर विलाप करने लगे। तब कौसल्याजी ने उनको हृदय से लगा लिया। अनेकों प्रकार से भरतजी को समझाया और बहुत _सी विवेकभरी बातें उन्हें कहकर सुनायीं।








भरतहउं मातु सकल समुझाईं। कहि पुराने श्रुति कथा सुहाई।। छल बिहीन सुचि सरल सुबानी।
बोले भरत जोरी जुग पानी।।_अर्थ_ भरतजी ने आक्षममपमपंभी सभी माताओं को पुराण और वेदों की सुन्दर कथाएं कहकर समझाया। दोनों हाथ जोड़कर भरतजी जलरहित, पवित्र और सीधी सुन्दर वाणी बोले__








जे अघ मातु पिता सुत मारें। गाइ गोठ महइसउर पुर जारें।। जे अघ तिय बालक बध कीन्हें। मीत महिपति माहुर दीन्हें।।_अर्थ_जो पाप माता पिता को पुत्र के मारने से होते हैं और जो गोशाला और ब्राह्मणों के नगर जलाने से होते हैं और जो मित्र और राजा को जहर देने से होते हैं__








जे पातक उपपातक अहहईं। कर्म बचन मन भव कबि कहहीं।। तें पातक मोहि होहुं बिधाता। जौं यही होइ मोर मत माता।।_अर्थ_कर्म वचन और मन से होनेवाले जितने पातक एवं उपपातक ( बड़े_छोटे पाप ) हैं, जिनको कवइलओग कहते हैं; हे विधाता ! यदि इस काम में मेरा मत हो, तो हे माता ! वे सब पाप मुझे लगें।







जे परिहरि हरि हर चरन भजहइं भूतगन घोर। तेहि कइ गति मोहि देहु बिधि जौं जननी मत मोर।।_अर्थ_जो लोग श्रीहरि और श्रीशंकरजी के चरणों को छोड़कर भयानक भूत_प्रेतों को भजते हैं, हैं माता ! यदि इसमें मेरा मत हो तो विधाता मुझे उनकी गति दे।








बेचहिं बेद धर्म दुधि लेहीं। पिसुन पराय पाप कहि देहिं।। कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी। बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी।।_अर्थ_जो लोग वेदों को बेचते हैं, धर्म को दुह लेते हैं, चुगलखोर हैं, दूसरे के पापों को कह देते हैं, जो कपटी, कुटिल, कलहप्रिय और क्रोधी हैं, तथा जो वेदों की निंदा करनेवाले और विश्वभर के विरोधी हैं;








लोभी लंपट लोलुपचारा। जे ताकहिं परधन परदारा।। पावौं मैं तिन्ह कै गति घोरा। जौं जननी यह संमत मोरा।।_अर्थ_ जो लोभी लंपट और लालचियों का आचरण करनेवाले हैं; जो पराये धन और परायी स्त्री की ताक में रहते हैं; हे जननी! यदि इस काम में मेरी सम्मति हो तो मैं उनकी भयानक गति को पाऊं।








जे नहिं साधुसंग अनुरागे। परमार्थ पथ बइमउख अभागे।। जे न भजहिं हरि नरतनु पाई। जिन्हें न हरिहर सुजसु सोहाई।।_अर्थ_जिनका सत्संग में प्रेम नहीं हैं; जो अभागे परमार्थ के मार्ग से विमुख हैं; जो मनुष्य शरीर पाकर क्षश्रीहरि का भजन नहीं करते; जिनको हरिहर ( भगवान् विष्णु और शंकरजी ) का सुयश नहीं सुहाता;








तजा श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं। बंचक बइरचइ बेषु जग छलहीं।। तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ। जननी जौं यही जानों भेऊ।।_अर्थ_जो वेदमार्ग को छोड़कर वाम ( वेदप्रतिकूल ) मार्ग पर चलते हैं; जो ठग हैं और वेष बनाकर जगत् को छलते हैं; हैं माता ! मैं इस भेद को जानता भी होऊं तो शंकरजी मुझे उनलोगों की गति दें।








मातु भरत के वचन सुनि सांचे सरल सुभायं। कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा वचन मन कायं।।
_अर्थ_माता कौसल्याजी भरत के स्वाभाविक ही सच्चे और सरल वचनों को सुनकर कहने लगीं _हे तात ! तुम तो मन, वचन और शरीर से सदा ही श्रीरामचन्द्र के प्यारे हो।








राम प्रानहुं तें प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रानहुं तें प्यारे।। बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी।।_अर्थ_श्रीराम तुम्हारे प्राणों से भी बढ़कर प्राण ( प्रिय ) हैं और तुम भी श्रीरघुनाथजी को प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। चन्द्रमा चाहे विष चुआने लगे और पाला आग बरसाने लगे; जलचर जीव जल से विरक्त हो जाय।








भएं ज्ञानु  बरु मिटै न मोहू।। तुम्ह रामहित प्रतिकूल न होहू।। मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं। सो सपनेहुं सुख सुगति न लहहीं।।_अर्थ_और ज्ञान हो जाने पर भी चाहे मोह न मिटे; पर तुम श्रीरामचन्द्र के प्रतिकूल कभी नहीं हो सकते। इसमें तुम्हारी सम्मति है, जगत् में जो कोई ऐसा कहते हैं वे स्वप्न में भी सुख और शुभ गति नहीं पावेंगे।








अस कहि मातु भरतु हियं लाए। थन पय स्रवहिं नयन जल छाए।। करत बिलाप बहुत एहि भांती। बैठेहिं बीती गई सब राती।।_अर्थ_ऐसा कहकर माता कौसल्या ने भरतजी को हृदय से लगा लिया। उनके स्तनों से दूध बहने लगा और ने त्यों में ( प्रेमाश्रुओं का ) जल छा गया। इस प्रकार बहुत विलाप करते हुए सारी रात बैठे_ही_बैठे बीत गयी।








बामदेउ बसिष्ठ तब आए। सचिव महाजन सकल बोलाए।। मुनि बहु भांति भरत उपदेसे। कहि परमारथ बचन सुदेसे।।_अर्थ_तब वामदेवजी और वसिष्ठ जी आये। उन्होंने सब मंत्रियों तथा महाजनों को बुलवाया। फिर मुनि वसिष्ठ जी ने परमार्थ के सुन्दर समयआकूल वचन कहकर बहुत प्रकार से भरतजी को उपदेश दिया।







तात हृदयं धीरज धरहु करहु जो अवसर आजु। उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु।।
_अर्थ_( वसिष्ठ जी ने कहा_) हे तात ! हृदय में धीरज धरो और आज जिस कार्य करने का अवसर है, उसे करो। गुरुजी के वचन सुनकर भरतजी उठे और उन्होंने सब तैयारी करने के लिये कहा।








 

Wednesday, 13 September 2023

अयोध्याकाण्ड

हंस-बंस दशरथु जनकु राम लखन से भाइ। जननी तूं जननी भी बिधि सन कछु न बसाइ।।_अर्थ_मुझे सूर्यवंश ( _सा वंश ), दशरथजी (_सरीखे ) पिता और राम_लक्ष्मण_से भाई मिले। पर हे जननी ! मुझे जन्म देनेवाली माता तू हुई ! ( क्या किया जाय ! ) विधाता से कुछ भी वश नहीं चलता।






जब तैं कुमति कुमत जियं ठयऊ। खंड खंड होइ हृदउ न गयउ।। बर मागत मन भइ नहीं पीड़ा। गरि न जीह मुंह परेउ न कीरा।।_अर्थ_अरी कुमति ! जब तूने हृदय में यह बुरा विचार ( निश्चय ) ठाना, उसी समय तेरे हृदय के टुकड़े _टुकड़े ( क्यों न ) हो गये ? वरदान मांगते समय तेरे मन में कुछ भी पीड़ा नहीं हुई ? तेरी जीभ गोल नहीं गयी ? तेरे मुंह में कीड़े नहीं पड़ गये ?






भूप प्रतीति तोरि किमि किन्हीं। मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही।। बिधिहुं न नारी हृदयं गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी।।_अर्थ_राजा ने तेरा विश्वास कैसे कर लिया ? ( जान पड़ता है ) विधाता ने मरने के समय उनकी बुद्धि हर ली थी। स्त्रियों के हृदय की गति ( चाल ) विधाता भी नहीं जान सके। वह संपूर्ण कपट, पाप और अवगुणों की खान है।







सरल सुसील धरम रत राऊ। सो किमि जानै तीय सुभाऊ।। अस को जीव जंतु जग माहीं। जेहिं रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं।।_अर्थ_फिर राजा तो सीधे, सुशील और धर्मपरायण थे। वे भला स्त्री_स्वभाव को कैसे जानते ? अरे, जगत् के जीव_जन्तुओं में ऐसा कौन है जिसे रघुनाथजी प्राणों के समान प्यारे नहीं हैं।






भे अति अहित रामु तेउ तोही। को तू अहसि सत्य कहु मोही।। जो हसि सो हसि मुंह मसि लाई। आंखि ओट उठि बैठहि जाई।।_अर्थ_वे श्रीरामजी भी तुझे अहित हो गये ( वैरी लगे ) ! तू कौन है ? मुझे सच_सच कह ! तू जो है, सो है, अब मुंह में स्याही पोतकर ( मुंह काला करके ) उठकर मेरी आंखों की ओट में जा बैठ।







राम बिलोनी हृदय में प्रगट कीन्ह बिधि मोहि। मैं समान को पातकी बादि कहीं कछु तोहि।।_अर्थ_विधाता ने मुझे श्रीरामजी से विरोध करनेवाले ( तेरे ) हृदय से उत्पन्न किया ( अथवा विधाता ने मुझे हृदय से राम का विरोधी जाहिर कर दिया ) । मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है ? मैं व्यर्थ ही तुझे कुछ कहता हूं।







सुनि सत्रुधन मातु कुटलाई। जेहिं गाय रिस कछु न बसाई।। तेहि अवसर कुबरी तहं आती। बहन विभूषण बिबिध बनाई।।_अर्थ_माता की कुटिलता सुनकर शत्रुघ्नजी के सब अंग क्रोध से जल रहे हैं, पर कुछ वश नहीं चलता। उसी समय भांति_भांति के कपड़ों और गहनों से सजकर कुबरी ( मंथरा ) वहां आयी।







लखि रिस मर्जी लखन लघु भाई। भरत अनल घृत आहुति पाई।। हुमगि लात तकि कूबर मारा। परि मुह भर महि करत पुकारा।।_अर्थ_ उसे ( सजी ) देखकर लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्नजी क्रोध में भर गये। मानो जलती हुई आग को घी की आहुति मिल गई हो। उन्होंने जोर से थककर कूबर पर एक रात जमा दी। वह चिल्लाती हुई मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ी।







सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी। लगे घसीटना धरि धरि झोंटी।। भरत दयानिधि दीन्हा छड़ाई। कौसल्या पहिं गे दोउ भाई।।_अर्थ_उसकी यह बात सुनकर और उसे ना से सिखा तक दुष्ट जानकर शत्रुघ्नजी झोंटा पकड़_पकड़कर उसे घसीटने लगे। तब दयानिधि भरत ने उसे छुड़ा दिया और दोनों भाई ( तुरंत ) कौसल्याजी के पास गये।







मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार। कनक कलप बर बेलि बन मानहुं हनी तुसार।।_अर्थ_कौसल्याजी मैले वस्त्र पहने हैं, चेहरे का रंग बदला हुआ है, व्याकुल हो रही है, दु:ख के बोझ से शरीर सूख गया है। ऐसी दिख रही है मानो सोने की सुन्दर कल्पलतआ को वन में पाला मार गया हो।







भरतहिं देखि मातु उठि लाई। मुरछित अवधि पूरी झइं आई।। देखत भरतु बिकल भए भारी। परे चरन तन दसा बिसारी।।_अर्थ_भरत को देखते ही माता कौसल्या उठ दौड़ीं। पर चक्कर आ जाने से मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। यह देखते ही भरतजी बड़े व्याकुल हो गये और शरीर की सुध भुलाकर चरणों में गिर पड़े।







मातु तात कहं देहिं देखी। कहं सिय राम लखन दोउ भाई।। केकई कत जनमी जग माझा। जौं जनमी तो भइ काहे न बांझा।।_अर्थ_( फिर बोले_) माता ! पिताजी कहां हैं ? उन्हें दिखा दे। सीताजी तथा मेरे दोनों भाई श्रीराम_लक्ष्मण कहां हैं ? ( उन्हें दिखा दे। ) कैकेई जगत् में क्यों जनमी ! और यदि जनमी तो फिर बांझ क्यों न हुई ?_






कुल कलंक जेहिं जनमेउ मोही।  अपजस भाजन प्रियजन द्रोही।। को त्रिभुवन मोहि सरिस अभागी। गति असि तोरि मातु जेहिं लागी।।_अर्थ_जिसने कुल के कलंक, अपयश के मांड़े और प्रियजनों के द्रोही मुझ_जैसे पुत्र को उत्पन्न किया। तीनों लोकों में मेरे समान अभागा कौन है ? जिसके कारण हे माता ! तेरी यह दशा हुई।



Friday, 8 September 2023

अयोध्याकाण्ड

तात बात मैं सकल संवारी। मैं मंथरा सहाय बिचारी।। कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ। भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ।।_अर्थ_हे तात ! मैंने सारी बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हुई। पर विधाता ने बीच में जरा_सा काम बिगाड़ दिया। वह यह कि राजा देवलोक को पधार गये।








सुनत भरत में बिबस बिषादा। जनु सहमएउ करि केहरि नादा।। तात तात हां तात पुकारी। परे भूमितल व्याकुल भारी।।_अर्थ_भरत यह सुनते ही विषाद के मारे विवश ( बेहाल ) हो गये। मानो सिंह की गर्जना सुनकर हाथी सहम गया है। वे 'तात ! तात! हा तात !' पुकारते हुए अत्यन्त व्याकुल होकर जमीन पर गिर पड़े।








चलत न देखन पायउं तोही। तात न रामहि सौंपेहु मोहि।। बहुरि धीर धरि उठे संभारी। कहु पितु मरन हेतु महतारी।।_अर्थ_( और विलाप करने लगे कि ) से तात !  मैं आपको ( स्वर्ग के लिये ) चलते समय देख भी न सका। ( हाय ! )  आप मुझे श्रीरामजी को सौंप भी नहीं गये। फिर धीरे धरकर वे संभलकर उठे और बोले_माता ! पिता के मरने का कारण तो बताओ ।








सुनि सुत बचन कहति कैकेई। मरमु पांछि जनु माहुरी देई।। आदिहुं तें सब अपनी करनी। कुटिल कठोर मुदित मन बरनी।।_अर्थ_पुत्र का वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी। मानो मर्मस्थान को पाकर ( चाकू से चीरकर ) उसमें जहर भर रही हो। कुटिल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शुरू से ( आखिर तक बड़े ) प्रसन्न मन से सुना दी।










भरतहिं बिसरेउ पितु मरन सुनत राम बन गौनु। हेतु अपनी जानि जियं थकित रहे धरि मौनु।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का वन जाना सुनकर भरतजी को पिता का मरण भूल गया और हृदय में इन सारे अनर्थ का कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर स्तम्भित रह गये ( अर्थात् उनकी बोली बन्द हो गयी और वे सन्न रह गये।









बिकल बिलोकि सुतहि समुझावति। मनहुं जरे पर लोन लगावति।। तात राउ नहीं सोचो जोगू। बिढ़इ सुकृत ऐसी कीन्हेंउ भोगू।।_अर्थ_पुत्र को व्याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही है। ( वह बोली_) से तात ! राजा सोच करने योग्य नहीं हैं। उन्होंने पुण्य और यश कमाकर उसका पर्याप्त भोग किया।







जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपति सदन सिधाए।। अस अनुमानि सोच परिहरहू। सहित समाज राज पुर करहू।।_अर्थ_जीवनकाल में ही उन्होंने जन्म लेने के संपूर्ण फल पा लिये और अन्त में इन्द्रलोक को चले गये। ऐसा विचारकर सोच छोड़ दो और समाज सहित नगर का राज्य करो।








सुनि सुनि सहमेउ राजकुमारू। पाकें छत जनु लाग अंगारू।। धीरज धरि भरी लेहिं उसासा। पापिनि सबहि भांति कुल नासा।।_अर्थ_राजकुमार भरतजी यह सुनकर बहुत ही सहम गये। मानो पके घाव पर अंगार छू गया है। उन्होंने धीरज धरकर बड़ी लम्बी सांस लेते हुए कहा_पापिनी ! तूने सभी तरह से कुल का नाश कर दिया।








जौं पै कुरुचि रही अति तोही। जनमत काहे न मारे मोहि।। पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जिअन निति बारि उलीचा।।_अर्थ_हाय ! यदि तेरी ऐसी ही अत्यन्त बुरी रुचि ( दुष्ट इच्छा ) थी, तो तूने जन्मते ही मुझे मार क्यों नहीं डाला ? तूने पेड़ को काटकर पत्ते को सींचा है और मछली के जीने के लिये पानी को उलीच डाला ! ( अर्थात् मेरा हित करने जाकर उल्टा तूने मेरा अहित कर डाला।

Saturday, 2 September 2023

अयोध्याकाण्ड

बिलपहिं बिकल दास अरु दासी। घर घर रुदनु  करहिं पुरबासी।। अंथयउ आजु भानुकुल भानू।‌ धरम अवधि गुन रूप निधानू।।_अर्थ_दास_दासीगण व्याकुल होकर विलाप कर रहे हैं और नगरवासी घर_घर रो रहे हैं। कहते हैं कि आज धर्म की सीमा, गुण और रूप के भण्डार सूर्यकुल के सूर्य अस्त हो गये।






गारीं सकल कैकइहि देहीं। नयन बिहीन कीन्ह जग जेहिं।। एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी। आए सकल महामुनि ज्ञानी।।_अर्थ_सब कैकेई को गालियां देते हैं, जिसने संसार भर को बिना नेत्र का ( अंधा ) कर दिया। इस प्रकार विलाप करते रात बीत गयी। प्रात:काल सब बड़े _बड़े ज्ञानी मुनि आये।








तब बसिष्ठ मुनि समय सम कही अनेक इतिहास। सोक निवारि सबहि कर निज बिग्यान प्रकास।।_अर्थ_तब वसिष्ठ मुनि ने समय के अनुकूल अनेक इतिहास कहकर अपने विज्ञान के प्रकाश से सबका शोक दूर किया।







तेल नावं भरी नृप तनु राखा। दूत बोलाइ बहुरि अब भाषा।। धावहु बेगि भरत पहिं जाहू। नृप सुधि कतहूं कहहू जनि काहू।।_अर्थ_वसिष्ठजी ने नाव में तेल भरवाकर राजा के शरीर में उसको रखवा दिया। फिर दूतों को बुलवाकर उनसे ऐसा कहा_तुमलोग जल्दी दौड़कर भरत के पास जाओ। राजा की मृत्यु का समाचार कहीं किसी से कहो।








एतनइ कहेहु भरत सन जाई। गुर बोलाइ पठयउ दोउ भाई।। सुनि मुनि आयसु धावन धाए। चले बेग बर बाजी लजाए।।_अर्थ_जाकर भरत से इतना ही कहना कि दोनों भाइयों को गुरुजी ने बुलवा भेजा है। मुनि की आज्ञा सुनकर धावन ( दूत ) दौड़े। वे अपने वेग से उत्तम घोड़ों को भी लजाते हुए चले।










अनरथु अवध अरंभेउ जब तें। कउसगउन होहिं भरत कहीं तब तें।। देखहिं राति भयानक सपना। जागा करहिं कटु कोटि कलपना।।_अर्थ_ जबसे अयोध्या में अनर्थ प्रारंभ हुआ, तभी से भर्ती को अपशकुन होने लगे। वे रात को भयंकर स्वप्न देखते थे और जागने पर ( उन स्वप्नों के कारण ) करोड़ों ( अनेकों ) तरह की बुरी_बुरी कल्पनाएं किया करते थे।










बिप्र जेवांइ देहिं दिन दाना। सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना।। मागहिं हृदयं महेस मनाई। कुसल मातु_पितु परिजन भाई।।_अर्थ_( अनिष्टशान्ति के लिये) वे प्रतिदिन ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देते थे। अनेकों विधियों से रुद्राभिषेक करते थे। महादेवजी को हृदय में मनाकर उनसे माता_पिता, कुटुम्बी और भाइयों का कुशल_क्षेम मांगते थे।








एहि बिधि सोचत भरत मन धावन पहुंचे आइ। गुर अनुशासन श्रवन सुनि चले गनेसु मनाइ।।_अर्थ_भरतजी इस प्रकार मन में चिंता कर रहे थे कि दूत आ पहुंचे। गुरु की आज्ञा कानों से सुनते ही वे गणेशजी को मनाकर चल पड़े।








चले समीर वेग हय हांके। नाघत सरित सैल बन बांके।। हृदयं सोची बड़ कछु न सोहाई। अस जानहिं जियं जाऊं उड़ाई।।_अर्थ_हवा के समान वेगवाले घोड़ों को हांकते हुए वे विकट नदी, पहाड़ तथा जंगलों को लांघते हुए चले। उनके हृदय में बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था। में ऐसा सोचते थे कि उड़कर पहुंच जाऊं।







एक निमेष बरस सम जाई। एहि बिधि भरत नगर निअराई।। असगुन होहिं नगर पैठारा। रटहिं कुभांति कुखेत करारा।।_अर्थ_एक_एक निमेष वर्ष के समान बीत रहा था। इस प्रकार भरतजी नगर के निकट पहुंचे। नगर में प्रवेश करते समय अपशगुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरह कांव_कांव कर रहे हैं।







खर सिआर बोलहिं प्रतिकूला। सुनि सुनि होइ भरत मन सूला।। श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगरु बिसेषि भयावनु लागा।।_अर्थ_गदहे और सिआर विपरीत बोल रहे हैं। यह सुन_सुनकर भरत के मन में बड़ी पीड़ा हो रही है। तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे हैं। नगर बहुत ही भयानक लग रहा है।







खग मृग हय गय जाहिं न जोए। राम बियोग कुरोग बिगोए।। नगर नारि नर निपट दुखारी। मनहुं सबन्हिं सब संपति हारी।।_अर्थ_श्रीरामजी के वियोगरूपी बुरे लोग से बताये हुए पक्षी_पशु, घोड़े_हाथी ( ऐसे दु:खी हो रहे हैं कि ) देखें नहीं जाते। नगर के स्त्री_पुरुष अत्यंत दु:खी हो रहे हैं। मानो सब अपनी सारी संपत्ति हार गये हैं।








पुरजन मिलहिं न कहहिं कछु गवंहिं जोहारहिं जाहिं। भरत कुशल पूंछि न सकहिं भय बिषादा मन माहिं।।_अर्थ_नगर के लोग मिलते हैं, फिर कुछ कहते नहीं; गौं _से ( चुपके_से ) जोहार ( वन्दना ) करके चले जाते हैं। भरतजी भी किसी से कुशल नहीं पूछ सकते, क्योंकि उनके मन में भय और विषाद जा रहा है।










हाट बाट नहिं जाइ निहारी। जनु पुर दहन दिसा लागि दवारी।। आवत सुत सुनि कैकयनंदिनि। हरषी रबिकुल कैरव चंदिनि।।_अर्थ_बाजार और रास्ते देखे नहीं जाते। मानो नगर में दसों दिशाओं में दावाग्नि लगी है। पुत्र को आते सुनकर सूर्यकुलरूपी कमल के लिये चांदनी रूपी कैकेयी ( बड़ी ) हर्षित हुई।








सजि आरती मुदित उठि धाई। द्वारे हां भेंटा भवन लेइ आई।। भरत दुखित परिवारु निहारा। मानहुं तुहिन बनज बन मारा।।_अर्थ_वह आरती सजाकर आनंद में भरकर उठ दौड़ी और दरवाजे पर ही मिलकर भरत_शत्रुध्न को महल में ले आयी। भरत ने सारे परिवार को दु:खी देखा। मानो कमलों के वन को पाला मार गया हो।







कैकेई हरषित एहि भांती। मनहुं मुदित दव लाई किराती। सुतहि ससोच देखि मनु मारें। पूछति नैहर कुसल हमारें।।_अर्थ_एक कैकेयी ही इस तरह हर्षित दिखती है मानो भीलनी जंगल में आग लगाकर आनंद भर रही हो। पुत्र को सोचवश और मन मारे ( बहुत उदास ) देखकर वह पूछने लगी_हमारे नैहर में कुशल तो है?








सकल कुसल कहीं भरत सुनाई। पूंछी निज कुल कुसल भलाई।। कहीं कहं तात के कहां सब माता। कहं सिय राम लखन प्रिय भ्राता।।_अर्थ_ भरतजी ने सब कुशल कह सुनायी। फिर अपने कुल की कुशल_क्षेम पूछी।  ( भरतजी ने कहा_) कहो, पिताजी कहां हैं ? मेरी सब माताएं कहां हैं ? सीताजी और मेरे प्यारे भाई राम_लक्ष्मण कहां हैं ?






सुनि सुत बचन सनेहमय कपट नीर भरी नैन। भरत श्रवन मन सूल सम पानी बोली बैन।।_अर्थ_पुत्र के स्नेहमय वचन सुनकर नेत्रों में कपट का जल भरकर पानी कैकेयी भरत के कानों में शूल के समान चुभनेवाली वचन बोली_








Wednesday, 16 August 2023

अयोध्याकाण्ड

धीरजु धरिअ तो पाइअ पारू। नहीं तो बूड़िहिं सभी परिवारू।। जौं जियं धरिअ बिनय प्रिय मोरी। रामु लखनऊ सिय मिलहिं बहोरी।।_अर्थ_आप धीरज धरियेगा, तो सब पार पहुंच जायेंगे। नहिं तो सारा परिवार डूब जायगा। हे प्रिय स्वामी! यदि मेरी विनती हृदय में धारण कीजियेगा तो श्रीराम, लक्ष्मण, सीता फिर आ मिलेंगे।





प्रिया बचन मृदु सुनत नृपु चितयउ आंखि उघारि।  तलफत मीन मलीन जनु सींचती सीतल बारि।।_अर्थ_प्रिय पत्नी कौशल्या के कोमल वचन सुनते हुए राजा ने आंखें खोलकर देखा। मानो तड़पती हुई दिन मछली पर कोई शीतल जल छिड़क रहा हो।







धरि धीरजु उठि बैठ भुआलू। कहु सुमंत्र कहं राम कृपालू।। कहां लखनु कहं राम सनेही। कहं प्रिय पुत्रवधू बैदेही।।_अर्थ_धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले_सुमंत्र ! कहो, कृपालु राम कहां हैं ? लक्ष्मण कहां हैं ? स्नेही राम कहां हैं ? और मेरी प्यारी बहू जानकी कहां है ?







बिलपत राउ बिकल बहुत भांती। भइ जुग सरिस सिरात न राती।। तापस अंध साप सुनि आई। कौसल्यहिं सब कथा सुनाई।।_अर्थ_राजा व्याकुल होकर बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं। वह रात युग के समान बड़ी हो गयी, बीतती ही नहीं। राजा को अंधे तपस्वी ( श्रवणकुमार के पिता ) के शाप की याद आ गयी। उन्होंने सब कथा कौसल्या को कह सुनायी। 







भयऊ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा।। सो तनु राखि करब मैं काहा। जेहि न प्रेमु पन मोर निबाहा।।_अर्थ_उस इतिहास का वर्णन करते_करते राजा व्याकुल हो गये और कहने लगे कि श्रीराम के बिना जीने की आशा को धिक्कार है। मैं उस शरीर को रखकर क्या करूंगा जिसने मेरा प्रेम का पन नहीं निबाहा।









हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते।। हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर।।_अर्थ_हा रघुकुल को आनंद देनेवाले मेरे प्राण प्यारे राम ! तुम्हारे बिना जीते हुए मुझे बहुत दिन बीत गये। हा जानकी, लक्ष्मण! हा रघुबर ! हा पिता के चित्तरूपी चातक के हित करनेवाले मेघ !







राम राम कहि राम कहां राम राम कहि राम। तनु परिहरि रघुबर बिरहं राउ गयी सुरधाम।।_अर्थ_राम_राम कहकर और फिर राम कहकर राजा श्रीराम के विरह में शरीर त्यागकर सुरलोक को सिधार गये।






जिअन मरन फल दशरथ पावा। अंड अनेक अमल जस छावा।। जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु संवारा।।_अर्थ_जीने और मरने का फल तो दशरथजी ने ही पाया, जिनका निर्मल यश अनेकों ब्रह्माण्डों में छा गया। जीते_जी तो श्रीरामचन्द्रजी के चन्द्रमा के समान मुख को देखा और श्रीराम के विरह को निमित्त बनाकर अपना मरण सुधार लिया।

Sunday, 6 August 2023

अयोध्याकाण्ड

सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं।। धीरजु धरहीं बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी।।_अर्थ_मूर्खलोग सुख में हर्षित होते हैं और दु:ख में रोते हैं, पर धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान समझते हैं। हे सबके हितकारी ( रक्षक ) ! आप विवेक विचारकर धीरज धरिये और शोक का परित्याग कीजिये।








प्रथम बासु तमसा भयउ दूसर सुरसरी तीर। न्हाइ रहे जलपानु करि सिय समेत दोउ वीर।।_अर्थ_ श्रीरामजी का पहला निवास ( मुकाम ) तमसा के तट पर हुआ, दूसरा गंगातीर पर। सीताजी सहित दोनों भाई उस दिन स्नान करके जल पीकर ही रहे।








केवट कीन्ह बहुत सेवकाई। सो जामिनि सिंगरौर गवांई।। होत प्रात बट छीर मंगावा। जटा मुकुट निज सीस बनावा।।_अर्थ_ केवट ( निषादराज ने बहुत सेवा की। वह रात सिंगरौर ( श्रृंगवेरपुर ) मं ही बितायी। दूसरे दिन सवेरा होते ही बड़ का दूध मंगवाया और उससे श्रीराम_लक्ष्मण ने अपने सिरों पर जटाओं के मुकुट बनाये।








रामसखा तब नाव मगाई। प्रिया चढ़ाई चले रघुराई।। लखन बान धनु धरे बनाई। आप चढ़े प्रभु आयसु पाई।।_अर्थ_ तब श्रीरामचन्द्रजी के सखा निषादराज ने नाव मंगवायी। पहले प्रिया सीताजी को उसपर चढ़ाकर फिर श्रीरघुनाथजी चढ़े। फिर लक्ष्मणजी ने धनुष _बाण सजाकर रखें और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर स्वयं चढ़े।









बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धीरा।। तात प्रनामु तात सन कहेहू। बार बार पद पंकज गहेहू।।_अर्थ_ मुझे व्याकुल देखकर श्रीरामचन्द्रजी धीरज धरकर मधुर वचन बोले_ हे तात ! पिताजी से मेरा प्रणाम कहना और मेरी और से बार_बार उनके चरण_कमल पकड़ना।।









करबि पायं परि बिनय बहोरी। तात करिअ जनि चिंता मोरी।। बन मग मंगल कुसल हमारें। कृपा अनुग्रह पुन्य तुम्हारें।।_अर्थ_फिर पांव पकड़कर विनती करना कि हे पिताजी ! आप मेरी चिंता न कीजिये। आपकी कृपा, अनुग्रह और पुण्य से वन में और मार्ग में हमारी कुशल मंगल होगा।










तुम्हरे अनुग्रह तात कानन जात सब सुखु पाइहौं। प्रतिपालि आयसु कुसल देखन पाय पुनि फिरिंं आइहौं।। जननीं सकल परितोषि परि परि पायं करी बिनती घनी। तुलसी करहु सोई जतन जेहिं कुसली रहहिं कोसलधनी।।_अर्थ_हे पिताजी ! आपके अनुग्रह से मैं वन जाते हुए सब प्रकार का सुख पाऊंगा। आज्ञा का भलीभांति पालन करके चरणों का दर्शन करने कुशलपूर्वक फिर आऊंगा। सब माताओं के पैरों पड़ _पड़कर उनका समाधान करके और उनसे बहुत विनती करके_तुलसीदास कहते हैं _तुम वहीं प्रयत्न करना जिसमें कोसलपति पिताजी प्रसन्न रहें।









गुर सन कहब संदेसु बार बार पद पदुम गहि। करब सोई उपदेसु जेहिं न सोच मोहि अवधपति।।_अर्थ_बार_बार चरणकमलों को पकड़कर गुरु वसिष्ठजी से मेरा संदेसा कहना कि ये वही उपदेश दें जिससे अवधपति पिताजी मेरा सोच न करें।








पुरजन परिजन सकल निहोरी। तात सुनाएहु बिनती मोरी।। सोई सब भांति मोर हितकारी। जातें रह नरनाहु सुखारी।।_अर्थ_हे तात ! सब प्रवासियों और कुटुम्बियों से निहोरा ( अनुरोध ) करके मेरी विनती सुनाना कि वही मनुष्य मेरा सब प्रकार से हितकारी है जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें।








कहब संदेसु भरत के आएं। नीति न तजिअ राजपदु पाएं।। पालेहु प्रजहि कर्म मन बानी। सेएहु मातु सकल सम जानी।।_अर्थ_भरत के आने पर उनको मेरा संदेसा कहना कि राजा का पद पा जाने पर नीति न छोड़ देना; कर्म, वचन और मन से प्रजा का पालन करना और सब माताओं को समान जानकर उनकी सेवा करना।








ओर निबाहेहु भायप भाई। करि पितु मातु सुजन सेवकाई।। तात भांति तेहि राखब राऊ। सोच मोर जेहिं करें न काऊ।।_अर्थ_और हे भाई ! पिता, माता और स्वजनों की सेवा करके भाईपने को अन्त तक निबाहना। हे तात ! राजा ( पिताजी ) को उसी प्रकार से रखना जिससे वे कभी ( किसी तरह भी ) मेरा सोच न करें।








लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरजि राम पुनि मोहि निहोरा।। बार बार निज सपथ देवाई। कहबि न तात लखन लरिकाई।।_अर्थ_लक्ष्मणने कुछ कठोर वचन कहे। किन्तु श्रीरामजी ने उन्हें बरजकर फिर मुझसे अनुरोध किया और बार_बार अपनी सौगंध दिलायी ( और कहा_ ) से तात ! लक्ष्मण का लड़कपन वहां न कहना।








कहि प्रनामु कछु कहन लिय सिय भइ सिथिल सनेह। थकित बचन लोचन सजल पुलक पल्लवित देह।।_अर्थ_प्रणाम कर सीताजी भी कुछ कहने लगी थीं, किन्तु स्नेहवश वे शिथिल हो गयीं।  उनकी वाणी रुक गयी, नेत्रों में जल भर आया और शरीर रोमांच से व्याप्त हो गया।






  

तेहि अवसर रघुबर रुख पाई। केवट पारहि नाव चलाई।। रघुकुलतिलक चले एहि भांती। देखउं ठाढ़ कुलिस धरि छाती।।_अर्थ_उसी समय श्रीरामचन्द्रजी का रुख पाकर केवट ने पार जाने के लिये नाव चला दी। इस प्रकार रघुवंशतिलक श्रीरामचन्द्रजी चल दिये और मैं छाती पर वज्र रखकर खड़ा_खड़ा देखता रहा।









मैं आपन किमि कहौं कलेसू। जिअत फिरौ लेइ राम संदेसू।। अस कहि सचिव बचन रहि गयऊ। हानि ग्लानि सोच बस भयऊ।।_अर्थ_मैं अपने क्लेश को कैसे कहूं, जो श्रीरामजी का यह संदेसा  लेकर जीता ही लौट आया ! ऐसा कहकर मंत्री की वाणी रुक गयी ( वे चुप हो गये ) और वे हानि की ग्लानि और सोचवश हो गये।








सूत बचन सुनहिं नरनाहू। परेउ धरनि उर दारुन दाहू।। तलफत बिषय मोह मन मापा। माजा मनहुं मीन कर ब्यापा।।_अर्थ_सारथि सुमंत्र के वचन सुनते ही राजा पृथ्वी पर गिर पड़े, उनके हृदय में भयानक जलन होने लगी। वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से व्याकुल हो गया। मानो मछली को मांजा व्याप गया हो ( पहली वर्षा का जल लग गया हो )।








करि बिलाप सब रोवहिं रानी। महा बिपति किमि जाइ बखानी।। सुनि बिलाप दुखहू दुखी  लागा। धीरजहू कर धीरजु भागा।।_अर्थ_सब रानियां विलाप करके रो रही हैं। उस महान विपत्ति का कैसे वर्णन किया जाय ? उस समय के विलाप को सुनकर दु:ख को भी दु:ख लगा और धीरज का भी धीरज भाग गया।








भयउ कोलाहल अवध अति सुनि नृप राउर सोरु। बिपुल बिहग बन परेउ निसि मानहुं कुलिस कठोर।।_अर्थ_ राजा के रावले ( रनिवास ) में रोने का शोर सुनकर अयोध्या में बड़ा भारी कुहराम मच गया। ( ऐसा जान पड़ता था ) मानो पक्षियों के विशाल वन में आ रात के समय कठोर वज्र गिरा हो।







प्रान कंठगत भयउ भुआलू। मनि विहीन जनु व्याकुल ब्यालू।। इंद्रीं सकल बिकल भईं भारी। जनु सर सरसिज बनी बिनु बारी।।_अर्थ_राजा के प्राण कंठ में आ गये। मानो मणि के बिना सांप व्याकुल ( मरणासन्न ) हो गया हो। इन्द्रियां सभी बहुत ही विकल हो गयीं, मानो बिना जल के तालाब में कमलों का वन मुरझा गया है।







कौसल्या नृपु दीख मलाना। रबिकुल रबी अंथयउ जाय जाना।। उर धरि धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनुसारी।।_अर्थ_ कौसल्याजी ने राजा को बहुत दुखी देखकर अपने हृदय में जान लिया कि अब सूर्यकुल का सूर्य अस्त हो चला !  तब श्रीरामचन्द्रजी की माता कौसल्या हृदय में धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोलीं_







नाथ समुझि मन करिअ विचारू। राम वियोग पयोधि अपारू।। करनधार तुम्ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल प्रिय पथिक ममाजू।।_अर्थ_हे नाथ ! आप मन में समझकर विचार कीजिये कि श्रीरामचन्द्र का वियोग अपार समुद्र है और आप उसके कर्णधार ( खेनेवाले ) हैं। सब प्रियजन ( कुटुम्बी और प्रजा ) ही यात्रियों का समाज है, जो इस जहाज पर चढ़ा हुआ है।

Sunday, 16 July 2023

अयोध्याकाण्ड

बचन न आव हृदयं पछिताई। अवध काह मैं देखब जाइ।। राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई।।_अर्थ_मुंह से वचन नहीं निकलते। हृदय में पछताते हैं कि मैं अयोध्या में जाकर क्या देखूंगा ? श्रीरामचन्द्रजी से शून्य रथ को जो भी देखेगा, वहीं मुझे देखने में संकोच करेगा ( अर्थात् मेरा मुंह नहीं देखना चाहेगा )।





धाइ पूछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नारि। उतरु देब मैं सबहि तब हृदयं बज्रु बैठारि।।_अर्थ_नगर के सब व्याकुल स्त्री_पुरुष जब दौड़कर मुझसे पूछेंगे, तब मैं हृदय पर वज्र रखकर सबको उत्तर दूंगा।    







पूछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहिं बिधाता।। पूछिहहिं जबहिं लखन महतारी। कहिहउं कवन संदेस सुखारी।।_अर्थ_जब दीन_दु_खी सब माताएं पूछेंगी, तब से विधाता ! मैं उन्हें क्या कहूंगा ? जब लक्ष्मणजी की माता मुझसे पूछेंगी, तब मैं उनसे कौन_सा सुखदायी संदेशा कहूंगा।







 राम जननी जब आइहि धाइ। सुमिरि बच्छ जिमि धेनु लवाई।। पूछत उतरु देब मैं तेही। गए बनु राम लखनु बैदेही।।_अर्थ_श्रीरामजी की माता जब इस प्रकार दौड़ी आवेंगी जैसे श्री ब्यायी हुई गौ बछड़े को याद करके दौड़ी आती है, तब उसके पूछने पर मैं उन्हें यह उत्तर दूंगा कि श्रीराम, लक्ष्मण, सीता वन को चले गये।






जोइ पूछिहिं तेहि उतरु देबा। जाइ अवध अब यह सुख लेबा।। पूछिहिं जबहिं राऊ दुख दीना। जीवनी जासु रघुनाथ अधीना।।_अर्थ_ जो भी पूछेगा उसे यही उत्तर देना पड़ेगा ! हाय ! अयोध्या जाकर मुझे अब यही सुख लेना है ! जब दु:ख से दीन महाराज, जिनका जीवन रघुनाथजी के ( दर्शनके ) ही अधीन है, मुझसे पूछेंगे,।






देहंउ उतरु कोनु मुहु लाई। आयउं कुसल कुअंर पहुंचाई।। सुनत लखन सीय राम संदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू।।_अर्थ_प्रियतम ( श्रीरामजी) रूपी जल के बिछुड़ते मेरा हृदय कीचड़ की तरह फट नहीं गया, इससे मैं जानता हूं कि विधाता ने मुझे यह 'यातनाशरीर' ही दिया है ( जो पापी जीवों को नरक भोगने के लिये मिलता है )







हृदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु। जानत हों मोहि दीन्हा बिधि यही जितना सरीरु।।_अर्थ_प्रियतम ( श्रीरामजी ) रूपी जल के बिछुड़ते ही मेरा हृदय कीचड़ के तरह फट नहीं गया, इससे मैं जानता हूं कि विधाता ने मुझे यह 'यातनाशरीर' ही दिया है ( जो पापी जीवों को नरक भोगने के लिये मिलता है)








एहि बिधि करत पंथ पछितावा।  तमसा तीर तुरंत रथु आवा।। बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरेउ पायं परि बिकल बिषादा।।_अर्थ_सुमंत्र मार्ग में इस प्रकार पछतावा कर रहे थे, इतने में रथ तुरत तमसा नदी के तट पर आ पहुंचा। मंत्री ने विनय करके चारों निषादों को विदा किया। वे विषाद से व्याकुल होते हुए सुमंत्र के पैरों पड़कर लौटे।







पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बांभन गाई।। बैठि बिटप तरु दिवसु गवांवा। सांझ समय तब अवसरु पावा।।_अर्थ_ नगर में प्रवेश करते समय मंत्री ( ग्लानि के कारण ) ऐसे सकुचाते हैं, मानो गुरु, ब्राह्मण या गौ को मारकर आये हों। सारा दिन एक पेड़ के नीचे बैठकर बिताया। जब सन्ध्या हुई तब मौका मिला।






अवध प्रबेसु कीन्ह अंधियारे। पैठ भवन रथ राखी दुआरें।।  जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथ देखन आए।।_अर्थ_अंधेरा होने पर उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया और रथ को दरवाजे पर खड़ा करके वे ( चुपके से ) महल में घुसे। जिन जिन लोगों ने यह समाचार सुन पाया, वे सभी रथ को देखने राजद्वार पर आये।








रथु पहचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे।। नगर नारि नर व्याकुल कैसें। निघटत नीर मीनगन जैसें।।_अर्थ_रथ को पहचानकर और घोड़ों को व्याकुल देखकर शरीर ऐसे गले जा रहे हैं ( क्षीण हो रहे हैं ) जैसे घाम में ओले ! नगर के स्त्री_पुरुष कैसे व्याकुल हैं जैसे जल के घटने पर मछलियां ( व्याकुल होती हैं)।









सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु। भवनु भयंकर लाग तेहि मानहुं प्रेत निवासु।।_अर्थ_मंत्री का ( अकेले ही ) आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो गया। राजमहल उनको ऐसा भयानक लगा मानो प्रेतों का निवासस्थान ( श्मशान ) हो।








अति आरती सब पूछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी।। सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहां नृपु तेहि तेहि बूझा।।_अर्थ_अत्यंत आर्त होकर जब रानियां पूछती हैं; पर सुमंत्र को कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गयी ( रुक गयी ) है। न कानों से सुनायी पड़ता है और न आंखों से कुछ सूझता है। वे जो भी सामने आता है उस_उससे पूछते हैं_कहो, राजा कहां है ?









दासिन्ह दिख सचिव बिकलाई। कौशल्या गृह गईं लवाई।। जाइ सुमंत्र दिख कस राजा। अमिय रहित जनु चंदु बिराजा।।_अर्थ_दासियां मंत्री को व्याकुल देखकर उन्हें कौशल्याजी के महल में लगवा गयीं। सुमंत्र ने वहां जाकर राजा को कैसा ( बैठे ) देखा मानो अमृत का चन्द्रमा हो।








आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना।। लेइ उसासु सोच एहि भांति। सुरपुर में जनु खंसेउ जजाती।।_अर्थ_राजा आसन, शय्या और आभूषणों से रहित बिलकुल मलिन ( उदास ) पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। वे लेकर इस प्रकार सोच करते रहे हैं मानो राजा ययाति स्वर्ग से गिरकर सोच कर रहे हों।







लेत सोच भरी छिनु छिनु छाती। जनु जरि पंख परेउ संपाती।। राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही।।_ अर्थ_ राजा क्षण_क्षण में सोच से छाती भर लेते हैं। ऐसी विकल दशा है मानो ( गीधराज जटायु का भाई ) संपाती पंखों के जल जाने के बाद गिर पड़ा हो। राजा ( बार _बार ) 'राम', 'हा स्नेही  ( प्यारे ) राम !' कहते हैं, फिर 'हा राम, हां लक्ष्मण, हां जानकी' ऐसा कहने लगते हैं। 







देखि सचिवं जयजीव कहि किन्हेंउ दंड प्रनामु।। सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहं राम ।।_अर्थ_मंत्री ने देखकर 'जयजीव' कहकर दण्डवत् प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले_सुमन्त्र ! कहो, राम कहां हैं ?








भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई।। सहित सनेह निकट बैठारी। पूछत राउ नयन भरी बारी।।_अर्थ_राजा ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मंत्री को स्नेह के साथ बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे_








राम कुसल कहीं सखा सनेही। कहां रघुनाथु लखनु बैदेही।। आनेहु फेरि कि बनहिं सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए।।_अर्थ_हे मेरे प्रेमी सखा ! श्रीरामजी की कुशल कहो। बताओ, श्रीराम, लक्ष्मण और जानकी कहां हैं ? उनको लौटा लाए हो कि वे वन को चले गये ? यह सुनते ही मंत्री के नेत्रों में जल भर आया।









सोक बिकल पुनि पूंछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू।। राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ।।_अर्थ_शोक से व्याकुल होकर राजा फिर पूछने लगे_सीता, राम और लक्ष्मण का संदेसा तो कहो। श्रीरामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को याद कर_करके राजा हृदय में सोच करते हैं।










राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरहुं हरांसू।। सो सुत बिछुड़त गए न प्राना। को पापी बड़े मोहि समाना।।_अर्थ_( और कहते हैं _) मैंने राजा होने की बात सुनकर वनवास दे दिया, यह सुनकर भी जिस ( राम ) के मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ, ऐसे पुत्र के बिछड़ने पर भी मेरे प्राण नहीं गये, तब मेरे समान बड़ा पापी कौन होगा ?









सखा रामु सिय लखनु जहं तहां मोहि पहुंचाव। नाही त चाहत चलन अब प्रान कहउं सतिभाउ।।_अर्थ_हे सखा ! श्रीराम, जानकी और लखन जहां हैं, मुझे भी वहीं पहुंचा दो। नहिं तो मैं सत्यभाव से कहता हूं कि मेरे प्राण अब चलना ही चाहते हैं।








पुनि पुनि पूंछत मंत्रिहिं राऊ। प्रियतम सुअन संदेस सुनाऊ।। करहि सखा सोई बेगि उपाऊ। राम लखन सीय नयन देखाऊ।।_अर्थ_राजा बार_बार मंत्री से पूछते हैं _मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेसा सुनाओ। हे सखा ! तुम तुरंत वही उपाय करो जिससे श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को मुझे आंखों दिखा दो।









सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी।। बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा।।_अर्थ_ मंत्री धीरज धरकर कोमल वाणी बोले_महाराज ! आप पण्डित और ज्ञानी हैं। हे देव ! आप शूरवीर तथा उत्तम धैर्यवान् पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। आपने सदा साधुओं के समाज का सेवन किया है।








जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा।। काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं।।_अर्थ_जन्म_मरण, दु:ख_सुख के भोग, हानि_लाभ, प्यारों का मिलना_बिछुड़ना, ये सब से स्वामी ! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं।







Thursday, 22 June 2023

अयोध्याकाण्ड

सुमिरत राम तजहिं जन तृन सम विषय बिलासु। राम प्रिया जगजननी सिय कछु न आचरजु तासु।।_अर्थ_जिन श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करने से ही भक्तजन तमाम भोग_विलास को तिनके के समान त्याग देते हैं, उन श्रीरामचन्द्रजी की प्रिय पत्नी और जगत् की माता सीताजी के लिये यह ( भोग विलास का त्याग ) कुछ भी आश्चर्य नहीं है।





सिय लखन जेहिं बिधि सुखु लहहीं। सोई रघुनाथ करहिं सोई कहहीं।। कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी।।_अर्थ_सीताजी और लक्ष्मणजी जिस प्रकार सुख मानकर सुख मिले, श्रीरघुनाथजी वहीं करते और वही करते हैं। भगवान् प्राचीन कथाएं और कहानियां कहते हैं और लक्ष्मणजी तथा अत्यंत सुख मानकर सुन रहे हैं।





जब जब राम अवध सुधि करहीं। तब तब बारिश बिलोचन भरहीं। सुमिरत मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई।।_अर्थ_जब जब श्रीरामचन्द्रजी अयोध्या की याद करते हैं, तब तब उनके नेत्रों में जल भर आता है। माता_पिता, कुटुम्बियों और भाइयों तथा भरत के प्रेम, शील और सेवाभाव को याद करके_






कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहीं कुसमी बिचारी।। लगा सिय लखनु बिकल होई जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसार परिछाहीं।।_अर्थ_कृपा के समुद्र प्रभु श्रीरामचन्द्रजी दु:खी हो जाते हैं, परन्तु फिर कुसमय समझकर धीरज धारण कर लेते हैं। श्रीरामचन्द्रजी को दु:खी देखकर सीताजी और लक्ष्मणजी भी व्याकुल हो जाते हैं, जैसे किसी मनुष्य की परछाईं उस मनुष्य के समान ही चेष्टा करती है ।





प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु।। लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहीं लखनु अरु सीता।।_अर्थ_ तब धीर, कृपालु और भक्तों के हृदयों को शीतल करने के लिये चन्दनरूप रघुकुल को आनंदित करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी प्यारी पत्नी और भाई लक्ष्मण की दशा देखकर कुछ पवित्र कथाएं कहने लगते हैं, जिन्हें सुनकर लक्ष्मणजी और सीताजी सुख प्राप्त करते हैं।





राम लखन सीता सहित सोहत परन निकेत। जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत।।_अर्थ_लक्ष्मणजी और सीताजी सहित श्रीरामचन्द्रजी पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हैं जैसे अमरावती में इन्द्र अपनी पत्नी श्री और पुत्र जयंत सहित बसता है।





जोगवहिं प्रभु सिय लखनहिं कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें।। सेवहिं लखन सीय रघुबरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी की कैसी संभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की। इधर लक्ष्मणजी श्रीसीताजी श्रीरामचन्द्रजी की ऐसी देखभाल करते हैं जैसे मूर्ख अपने शरीर का। ं






एहि बिधि प्रभु बन बसहीं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी।। कहेउं राम बन गवन सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा।।_अर्थ_पक्षी, पशु, देवता और तपस्वियों के हितकारी इस प्रकार सुखपूर्वक वन में निवास कर रहे हैं। तुलसीदास जी कहते हैं _ मैंने श्रीरामजी का सुन्दर वनगमन कहा। अब जिस तरह सुमंत्र अयोध्या में आये वह ( कथा ) सुनो।







फिरेउ निषादु प्रभुहिं पहुंचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई।। मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को पहुंचाकर जब निषादराज लौटा, तब आकर उसने रथ को मंत्री ( सुमंत सहित ) देखा। मंत्री को व्याकुल देखकर निषाद को जैसा दु:ख हुआ, वह कहा नहीं जाता।






राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल व्याकुल भारी।। देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहंग अकुलाहीं।।_अर्थ_(निषाद को ऐसे आया देखकर ) सुमंत्र हा राम ! हा राम ! हा सीते, हा लक्ष्मण ! पुकारते हुए , बहुत व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े। ( रथ के ) घोड़े दक्षिण दिशा की ओर ( जिधर श्रीरामचन्द्रजी गये थे ( देख_देखकर हिनहिनाते हैं ) । मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे हैं।








नहिं तृण चरहीं न पिअहिं जल मोचहिं लोचन बारि। व्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजी निहारि।।_अर्थ_वे न तो घास चलते हैं, न पानी पीते हैं। केवल आंखों से जल बहा रहे हैं। रामचन्द्रजी के घोड़ों को इस दशा में देखकर सब निषाद व्याकुल हो गये।







धरि धीरजु तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहू बिषादू।। तुम्ह पंडित परमारथ ज्ञाता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता।।_अर्थ_तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगा_हे सुमंत्र जी ! अब विषाद को छोड़िये। आप पंडित और परमार्थ को जाननेवाले हैं। विधाता को प्रतिकूल जानकर धैर्य धारण कीजिये।





 कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी।। सोक सिथिल रथ सकइ न हांकी। रघुबर बिरह पीर उर बांकी।।_कोमल बाणी से भांति भांति कथाएं कह_कहकर निषाद ने जबरदस्ती लाकर सुमंत्र को रथ पर बैठाया। परंतु शोक के मारे वे इतने शिथिल हो गये कि रथ को हांक नहीं सकते। उनके हृदय में श्रीरामचन्द्रजी के विरह की बड़ी तीव्र वेदना है।






चरफराहिं मग चरहीं न घोड़े। बन मृग मनहुं आनि रथ जोरे।। अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें।।_अर्थ_ घोड़े तड़फड़ाते हैं और ( ठीक ) रास्ते पर नहीं चलते। मानो जंगली पशु लाकर रथ में जोत दिये गये हैं। वे श्रीरामचन्द्रजी के वियोगी घोड़े भी कभी ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, कभी घूमकर पीछे की ओर देखने लगते हैं। वे तीक्ष्ण दु:ख से व्याकुल हैं।





जो कह राम लखन बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेहीं।। बाजी बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहिं भांती।।_अर्थ_जो कोई राम, लक्ष्मण या जानकी का नाम ले लेता है, घोड़े हिकर हिकर उसकी ओर प्यार से देखने लगते हैं। घोड़ों की विरहदशा कैसे कही जा सकती है ? वे ऐसे व्याकुल हैं जैसे मणि के बिना सांप व्याकुल होता है।





भयउ निषादु  विषाद बस देखत सचिव तुरंग। बोली सुसेवक चारि तब दिए सारथि संग।।_अर्थ_मंत्री और घोड़ों की यह दशा देखकर निषादराज विषाद के वश हो गया। तब उसने अपने चार उत्तम सेवक बुलाकर सारथि के साथ कर दिये।






गुह सारथि ही फिरेउ पहुंचाई। बिरहु बिसाल बरनि नहीं जाई।। चले अवध लेइ रथहीन निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा।।_अर्थ_निषादराज गुहा सारथि ( सुमंत्र जी ) को पहुंचाकर ( विदा करके ) लौटा। उसके विरह और दु:ख का वर्णन नहीं किया जा सकता। वे चारों निषाद रथ लेकर अवध को चले। ( सुमंत्र और घोड़ों को देख_देखकर )  वे भी क्षण_क्षणभर विषाद में डूबे जाते थे।








सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना।। रहिहि न अंतहुं अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू।।_अर्थ_व्याकुल और दु:ख से दीन हुए सुमंत्र जी सोचते हैं कि श्रीरघुवीर के बिना जीने को धिक्कार है। आखिर यह अधम शरीर रहेगा तो है ही नहीं। अभी श्रीरामचन्द्रजी के बिछुड़ते ही छूटकर इसने यश ( क्यों ) नहीं ले लिया ।






भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहीं करत पयाना।। अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुं न हृदय होत दुइ टूका।_अर्थ_ये प्राण अपयश और पाप के भांड़े हो गये। अब ये किस कारण कूच नहीं करते ( निकलते नहीं ) ? हाय ! नीचे मन ( बड़ा अच्छा ) मौका चूक गया। अब भी तो हृदय के दो टुकड़े नहीं है जाते!







मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहुं कृपन धन राशि गवांई।। बिरिद बांधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई।।_अर्थ_सुमंत्र हाथ मल_मलकर और सिर पीट-पीटकर पछताते हैं। मानो कोई कंजूस धन का खजाना को बैठा हो। वे इस प्रकार चले मानो कोई बड़ा योद्धा वीर का बाना पहनकर और उत्तम शूरवीर कहलाकर युद्ध से भाग चला हो।






बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति। जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भांति।।_अर्थ_जैसे कोई विवेकशील, वेद का ज्ञाता, साधु सम्मत आचरणों वाला और उत्तम जाति का ( कुलीन ) ब्राह्मण धोखे से मदिरा पी लें और पीछे पछतावे, उसी प्रकार मंत्री सुमंत्र सोच कर रहे ( पछता रहे ) हैं।






जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी।। रहै करमबस परिहरि नाहू। सचिव हृदय तिमि दारुण दाहू।।_अर्थ_जैसे किसी उत्तम कुलवाली, साधु स्वभाव की, समझदार और मन, वचन और कर्म से पति को देवता माननेवाली पतिव्रता स्त्री को भाग्यवश पति को छोड़कर ( पति से अलग ) रहना पड़े, उस समय उसके हृदय में जो भयानक संताप होता है, वैसे ही मंत्री के हृदय में हो रहा है।







लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी।। सूखइ अधर लागि मुहं लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी।।_अर्थ_नेत्रों में जल भरा है, दृष्टि मंद हो गयी है। कानों को सुनाई नहीं पड़ता, व्याकुल हुईं बुद्धि बएठइकआनए हो रही है। ओठ सूख रहे हैं, मुंह में लाटी लग गयी है। किन्तु ( ये सब मृत्यु के लक्षण होने पर भी ) प्राण नहीं निकलते; क्योंकि हृदय में अवधइरूपई किवाड़ लगे हैं ( अर्थात् चौदह वर्ष बीत जाने पर भगवान् फिर मिलेंगे, यही आशा रुकावट डाल रहीं हैं )।




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बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुं पिता महतारी।। हानि ग्लानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी।।_अर्थ_सुमंत
जी के मुख का रंग बदल गया है, जो देखा नहीं जाता। ऐसा मालूम होता है जैसे इन्होंने माता_पिता को मार डाला हो। उनके मन में रामवियोगरूपी हानि की महान् ग्लानि ( पीड़ा ) छा रही है, जैसे कोई पापी मनुष्य नरक को जाता हुआ रास्ते में सोच कर रहा हो।






बचन न आव हृदयं पछिताई। अवध काह मैं देखब जाइ।। राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई।।_अर्थ_मुंह से वचन नहीं निकलते। हृदय में पछताते हैं कि मैं अयोध्या में जाकर क्या देखूंगा ? श्रीरामचन्द्रजी से शून्य रथ को जो भी देखेगा, वहीं मुझे देखने में संकोच करेगा ( अर्थात् मेरा मुंह नहीं देखना चाहेगा )।

Sunday, 28 May 2023

अयोध्याकाण्ड

धन्य भूमि बन पंथ पहारा। जहं तहं नाथ पाउ तुम्ह धारा।। धन्य बिहग मृग काननचारी। सफल जनम भए तुम्हहिं निहारी।।_अर्थ_हे नाथ ! जहां _जहां आपने चरण रखें हैं, वे पृथ्वी, वन, मार्ग और पहाड़ धन्य हैं, वे वन में विचरनेवाले पक्षी और पशु धन्य हैं, जो आपको देखकर सफल जन्म हो गये।





हम सब धन्य सहित परिवारा। सुखी दरस भरी नयन तुम्हारा।। कीन्ह बास भल ठाउं बिचारी। इहां सकल रितु रहब सुखारी।।_अर्थ_ हम सब भी अपने परिवार सहित धन्य हैं, जिन्होंने नेत्र भरकर आपका दर्शन किया। आपने बड़ी अच्छी जगह विचारकर निवास किया है। यहां सभी ऋतुओं में आप सुखी रहियेगा।




हम सब भांति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाघ बराई।। बन बेहड़ गिरि कंदर खोहा। सब हमार प्रभु पग पग जोहा।।_अर्थ_हमलोग सब प्रकार से हाथी, सिंह, सर्प और बाघों से बचाकर आपकी सेवा करेंगे। हे प्रभो ! यहां के बीहड़ वन, पहाड़, गुफाएं और खोह ( दर्रे ) सब पग_पग हमारे देखे हुए हैं।





तहं तहं तुम्हहिं अहेर खेलाउब। सर निर्झर जलठाउं देखउब।। हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता।।_अर्थ_हम वहां _वहां ( उन_उन स्थानों में ) आपको शिकार खिलावेंगे और तालाब, झरने आदि जलाशयों को दिखावेंगे। हम कुटुम्बसमेत आपके सेवक हैं। हे नाथ ! इसलिये हमें आज्ञा देने में संकोच न कीजियेगा।





बेद बचन मुनि मन अगम सुनि प्रभु करुना ऐन। बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन।।_अर्थ_जो वेदों के वचन और मुनियों के मन को भी अगम हैं, वे करुणा के नाम प्रभु श्रीरामचन्द्रजी भीलों के वचन इस तरह सुन रहे हैं जैसे पिता बालकों के वचन सुनता है।





रामहिं केवल प्रेम पिआरा। जानि लेई जो जाननिहारा।। राम सकल बनचर तब तोषे। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी को के वल प्रेम प्यारा है; जो जाननेवाला हो ( जानना चाहता हो ), वह जान ले। तब श्रीरामचन्द्रजी ने प्रेम से परिपुष्ट हुए ( प्रेमपूर्ण) कोमल वचन कहकर उन सब वन में विचरण करने वाले लोगों को संतुष्ट किया।







बिदा किए सिर नाई सिधाए। प्रभु गुन कहत सुनत घर आए। एहि बिधि सिय समेत दोउ भाई। बसहीं बिपिन सुर मुनि सुखदाई।।_अर्थ_फिर उनको विदा किया। वे सिर नवाकर चले और प्रभु के गुण कहते सुनते घर आये। और इस तरह देवता और मुनि को सुख देने वाले श्रीरामजी वन में रहने लगे।





जब तें आइ रहे रघुनायकु। तब तें भयउ बनु मंगलदायकु।। फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना। मंजु फलित बर बेल बिताना।।_अर्थ_जबसे श्रीरघुनाथजी वन में आकर रहे तबसे वन मंगलदायक हो गया। अनेकों प्रकार के वृक्ष फूलते और फलते हैं और उनपर लिपटी हुई सुन्दर बेलों के मण्डप तने हैं।








सुरतरु सरिस सुभायं सुहाए। मनहुं बिबुध बन परिहरि आए।। गुंज मंजुतर मधुकर श्रेनी। त्रिबिधि बयारि बही सुख देनी।।_अर्थ_वे कल्पवृक्ष के समान स्वाभाविक ही सुंदर हैं। मानो वे देवताओं के वन ( नन्दन वन ) को छोड़कर चले आये हैं। भौरों की पंक्तियां बहुत ही सुन्दर गुंजार करती हैं और सुख देनेवाली शीतल, मन्द, सुगन्धित हवा चलती रहती है।





 नीलकंठ कलकंठ सुख चातक चक्क चकोर। भांति भांति बोलहिं बिहग श्रवन सुखद चितचोर।।_अर्थ_नीलकंठ, कोयल, तोते, पपीहे, चकवे और चकोर आदि पक्षी कानों को सुख देनेवाली और चित्त को चुरानेवाली तरह_तरह की बोलियां बोलते हैं।





करि केहरि कपि कोल कुरंगा। बिगतबैर बिचरहिं सब संगा। फिरत अहेर राम छबि देखी। होहिं मुदित मृग बृंद बिसेषी।।_अर्थ_हाथी, सिंह, बंदर, सूअर और हिरन, ये सब वैर छोड़कर साथ_साथ  विचरते हैं। शिकार के लिये फिरते हुए श्रीरामचन्द्रजी छवि को देखकर पशुओं के समूह विशेष आनन्दित होते हैं।







बिबुध बिपिन जहं लगि जग माहीं। देखि रामबनु सकल सिहाहीं।। सुरसुरी सरसइ दिनकर कन्या। मेकलसुता गोदावरी धन्या।।_अर्थ_जगत् में जहां तक ( जितने ) देवताओं के वन हैं, सब श्रीरामजी के वन को देखकर सइहआतए हैं। गंगा, सरस्वती, सूर्य कुमारी यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि धन्य ( पुण्यमयी ) नदियां,।






सब सर सिंधु नदी नद नाना। मंदाकिनी कर करहिं बखाना।। उदय अस्त गिरि अरु कैलासू। मंदर मेरु सकल सुरबासू।।_अर्थ_सारे तालाब, समुद्र, नदी और अनेकों नद सब मंदाकिनी की बड़ाई करते हैं। उदयाचल, अस्ताचल, कैलास मन्दरआचल और सुमेरु आदि सब, जो देवताओं के रहने के स्थान हैं,।





सैल हिमाचल आदिक जेते। चित्रकूट जसु गावहिं तेते।। बिंधि मुदित मन सुखु न समाई। श्रम बिनु बिपुल बड़ाई पाई।।_अर्थ_और हिमालय आदि जितने पर्वत हैं, सभी चित्रकूट का यश गाते हैं। विंध्याचल बड़ा आनन्दित है, उसके मन में सुख समाता नहीं; क्योंकि उसने बिना परिश्रम ही बहुत बड़ी बड़ाई पा ली है।






चित्रकूट के बिहंग मृग बेलि बिटप तृन जाति। पुन्य पुंज सब धन्य अस कहहिं देव दिन राति।।_अर्थ_चित्रकूट के पक्षी, पशु, बेल, वृक्ष, तृण_अंकुरादि की सभी जातियां पुण्य की राशि हैं और धन्य हैं_देवता दिन_रात ऐसा कहते हैं।





नयनवंत रघुबरहिं बिलोकी। पाई जन्म फल होहिं बिसोकी।। परसि चरन रज अचर सुखारी। भए परम पद के अधिकारी।।_अर्थ_आंखोंवाले जीव श्रीरामचन्द्रजी को देखकर जन्म का फल पाकर शोकरहित हो जाते हैं और अचर ( पर्वत, वृक्ष, भूमि, नदी आदि ) भगवान् की चरण_रज का स्पर्श पाकर सुखी होते हैं। यों सभी परमपद ( मोक्ष ) के अधिकारी हो गये।





सो बनु सैलु सुभायं सुहावन। मंगलमय अति पावन पावन।। महिमा अधिक पवन बिधि तासू। सुख सागर जहं कीन्ह निवासू।।_अर्थ_वह वन और पर्वत स्वाभाविक सुन्दर, मंगलमय और अत्यन्त पवित्र करनेवाला है। उसकी महिमा किस प्रकार कभी रात, जहां सुख के समुद्र श्रीरामजी ने निवास किया है।






पय पयोधि तजि अवध बिहाई। जहं सिय लखनु रामु रहे आई।। कहि न सकहिं सुषमा जसि कानन। जौं सत सहस होहिं सहसानन।।_अर्थ_क्षीरसागर को त्यागकर और अयोध्या को छोड़कर जहां सीताजी, लक्ष्मणजी और श्रीरामचन्द्रजी आकर रहें, उस वन की जैसी परम शोभा है, उसको हजार मउखवआलए जो लाख शएषजई हैं, तो भी वे नहीं कह सकते।





सो मैं बरनि कहौं बिधि केहीं। डाबर कमठ कि मंदर लेहीं।। सेवहिं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेहु बखानी।।_अर्थ_उसे भला, मैं किस प्रकार से वर्णन करके कह सकता हूं। कहीं पोखरे का ( क्षुद्र ) कछुआ भी मन्दराचल उठा सकता है? लक्ष्मणजी मन, वचन और कर्म से श्रीरामचन्द्रजी की सेवा करते हैं। उनके शील और स्नेह का वर्णन नहीं किया जा सकता है।





छिनु छिनु लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेहु। करत न सपनेहुं लखनु चितु बंधु मातु पितु गेहु।।_अर्थ_क्षण_क्षणपर श्रीसीतारामजी के चरणों को देखकर और अपने ऊपर उनका स्नेह जानकर लक्ष्मणजी स्वप्न में भी भाइयों, माता_पिता और घर की याद नहीं करते ।





राम संग सिय रहति सुखारी। पुर परिजन गृह सुरति बिसारी।। छिनी छिनु फिर सिंधु बदलनी निहारी। प्रमुदित मनहुं चकोर कुमारी।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के साथ सीताजी अयोध्यापुरी, कुटुम्ब के लोग और घर की याद भूलकर बहुत सुखी रहती है। क्षण क्षण पर पति श्रीरामचन्द्रजी के चन्द्रमा के समान मुख को देखकर वे वैसे ही परम प्रसन्न रहती हैं जैसे चकोर कुमारी ( चकोरी ) चन्द्रमा को देखकर!





नाह नेह नित बढ़त बिलोकी। हर्षित रहत दिवस जिमि कोकी।। सिय मनु राम चरन अनुरागा। अवध सहस सम बनु प्रिय लागा।।_अर्थ_स्वामि का प्रेम अपने प्रति नित्य बढ़ता हुआ देखकर सीताजी ऐसी हर्षित रहती है जैसे दिन में चकवी ! सीताजी का मन श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में अनुरक्त है इससे उनको वन हजारों अवध के समान प्रिय लगता है।





परनकुटी प्रिय प्रियतम संगा। प्रिय परिवारु कुरंग बिहंगा।। सासु ससुर सम मुनितिय मुनिबर। असनु अमिय सम कंद मूल फर।।_अर्थ_प्रियतम ( श्रीरामचन्द्रजी ) के साथ पर्णकुटी प्यारी लगती है। मृग और पक्षी प्यारे कुटुम्बियों के समान लगते हैं। मुनियों की स्त्रियां सास के समान, श्रेष्ठ मुनि ससुर के समान और कन्द_मूल फलों का आहार उनको अमृत के समान लगता है।





नाथ साथ सांथरी सुहाई। मयन सयन सय सम सुखदाई।। लोकप होहिं बिलोकत जासू। तेहि कि मोहि सक बिषय बिलासू।।_अर्थ_स्वामि के साथ सुन्दर साथरी ( कुश और पत्तों की सेज ) सैकड़ों कामदेव की सेजों के समान सुख देनेवाली है। जिनके ( कृपापूर्वक ) देखनेमात्र से जीव लोकपाल हो जाते हैं, उनको कहीं भोग_विलास मोहित कर सकते हैं !

Wednesday, 3 May 2023

अयोध्याकाण्ड

जाति पांति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।। सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयं रहहु रघुराई।।_अर्थ_ जाति, पांति, धन धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देनेवाला घर_सब छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किये रहता है, हे रघुनाथजी ! आप उनके हृदय में रहिये।





सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहं तहं देह धरें धनु बाना।। कर्म बचन मन राउर चेरा। राम करहु तिन्ह के उर डेरा।।_अर्थ_स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान है, क्योंकि वह जहां_तहां ( सब जगह ) केवल धनुष_बाण धारण किये आपको ही देखता है; और जो कर्म से, वचन से और मन से आपका दास है, हे रामजी ! आप उसके हृदय में डेरा कीजिये।






जाहि न चाहिअ कबहुं कछु तुम्ह सन सहज सनेहु। बहुत निरंतर तासु मन होहु राउर निज गेहु।।_अर्थ_ जिसको कभी कुछ नहीं चाहिये और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिये; वह आपका अपना घर है।





एहि बिधि मुनि बर भवन देखाए। बचन सप्रेम राम मन भाए।। कह मुनि सुनहु भानुकुलनायक। आश्रम कहुं समय सुखदायक।।_अर्थ_इस प्रकार मुनिश्रेष्ठ बाल्मीकि जी ने श्रीरामचन्द्रजी को घर दिखाये। उनके प्रेमपूर्ण वचन श्रीरामजी के मन को अच्छे लगे। फिर मुनि ने कहा_हे सूर्य कुल के स्वामी ! सुनि ये, अब मैं इस समय के दायरे सुखदायक आश्रम कहता हूं ( निवास स्थान बतलाता हूं )।







चित्रकूट गिरि करहु निवासू। तहं तुम्हार सब भांति सुपासू।। सैलु सुहावन कानन चारू। करि केहरि मृग बिहंग बिहारू।।_अर्थ_आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिये, वहां आपके लिये सब प्रकार की सुविधा है। सुहावना पर्वत है और सुन्दर वन है। वह हाथी, सिंह, हिरन और पक्षियों का विहार स्थल है।






नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रि प्रिया निज तप बल आनी।। सुरसुरी धार नाउं मंदाकिनी। जो सब पातक पोतक डाकिनि।।_अर्थ_वहां पवित्र नदी है, जिसकी पुरानों ने प्रशंसा की है, और जिसको अत्रि ऋषि की पत्नी अनसूया जी अपने तपोबल से लायी थीं। वह गंगाजी की धारा है, उसका मंदाकिनी नाम है। वह सब पापरूपी बालकों को खा डालने के लिये डाकिनी ( डाइन ) रूप है।







अत्रि आदि मुनि बर बहु बसहीं। करहिं जोग जप तप तन कसहीं ।। चलहु सफल श्रम सब करहू।। राम देहु गौरव गिरिबरहु।।_अर्थ_अत्रि आदि बहुत_से श्रेष्ठ मुनि वहां निवास करते हैं जो जोग, जप और तप करते हुए शरीर को कसते हैं। हे रामजी ! चलिये, सबके परिश्रम को सफल कीजिये और पर्वत श्रेष्ठ चित्रकूट को भी गौरव दीजिये।






चित्रकूट महिमा अमित कहीं महामुनि गाइ। आइ नहाए सरित बर सिय समेत दोउ भाइ।।_अर्थ_महामुनि बाल्मीकि जी ने चित्रकूट की अपरिमित महिमा बखानकर कही। तब सीताजी सहित दोनों भाइयों ने आकर श्रेष्ठ नदी मंदाकिनी में स्नान किया।






रघुबर कहेउ लखन भल घाटू। करहु कतहुं अब ठाहर ठाटू।। लखन दीख पय उतर करारा। चहुं दिसि फिरेउ धनुष जिमि नारा।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने कहा_लक्ष्मण ! बड़ा अच्छा घाट है। अब यहीं कहीं ठहरने की व्यवस्था करो। तब लक्ष्मण जी ने पयस्विनि नदी के उत्तर के ऊंचे किनारे को देखा ( और कहा कि_) इसके चारों ओर धनुष के जैसा एक नाला फिरा हुआ है।







नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलुष कलि साउज नाना।। चित्रकूट जनु अचल अहेरी। चुकइ न घात मार मुठभेरी।।_अर्थ_नदी ( मन्दाकिनी) उस धनुष की प्रत्यंचा ( डोरी ) है और शम, दम, दान बाण हैं। कलियुग के समस्त पाप उसके अनेकों हिंसक पशु ( रूप निशाने ) हैं। चित्रकूट ही मानो अचल शिकारी है, जिसका निशाना कभी चूकता नहीं, और जो सामने से मारता है।







अस कहि लखन ठाउं देखरावा। जलु बिलोकि रघुबर सुखु पावा।। रमेउ राम मनु देवन्ह जाना। चले सहित सुर थपति प्रधाना।।_अर्थ_ऐसा कहकर लक्ष्मण जी ने स्थान दिखलाया। स्थान को देखकर श्रीरामचन्द्रजी ने सुख पाया। जब देवताओं ने जाना कि श्रीरामचन्द्रजी का मन यहां रम गया तब वे देवताओं के प्रधान थवई ( मकान बनानेवाले) विश्वकर्मा को साथ लेकर चले।






कोल किरात बेष सब आए। रचे परन तृन सदन सुहाए।। बरनि न जाहिं मंजु दुइ साला। एक ललित लघु एक बिसाला।।_अर्थ_सब देवता कोल भील के वेष में आए और उन्होंने ( दिव्य ) पत्तों और घासों के सुंदर घर बना दिये। दो ऐसी सुन्दर कुटिया बनती जिसका वर्णन नहीं हो सकता। उनमें एक बड़ी सुन्दर छोटी_सी थी और दूसरी बड़ी थी।







लखन जानकी सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत। सोह मदनु मुनि बेष जनु रति रितुराज समेत ।।_अर्थ_लक्ष्मणजी और जानकी जी सहित प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर घास पत्तों के घर में शोभायमान हैं। मानो कामदेव मुनि का वेष धारण करके पत्नी रति और वसन्त ऋतु के साथ सुशोभित हो।





अमर नाग किन्नर दिसिपाला। चित्रकूट आए तेहि काला।। राम प्रणामु कीन्ह सब काहू। मुदित देव लहि लोचन लाहू।।_अर्थ_उस समय देवता, नाग, किन्नर और दिक्पाल चित्रकूट में आये और श्रीरामचन्द्रजी ने सब किसी को प्रणाम किया। देवता नेत्रों का लाभ पाकर आनन्दित हुए।





बरषि सुमन कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू।। करि बिनती दुख दुसह सुनाए। हर्षित निज निज सदन सिधाए।।_अर्थ_फूलों की वर्षा करके देव-समाज ने कहा_हे नाथ ! आज ( आपका दर्शन पाकर ) हम सनाथ हो गये। फिर विनती करके उन्होंने दु:सह दुख सुनाये और (दु:खों के नाश का आश्वासन पाकर ) हर्षित होकर अपने_अपने स्थानों को चले गये।






चित्रकूट रघुनंदनु छाए। समाचार सुनि सुनि मुनि आए।। आवत देखि मुदित मुनिवृंदा। कीन्ह दंडवत रघुकुल चंदा।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी चित्रकूट में आ बसे हैं, यह समाचार सुन_सुनकर बहुत _से मुनि आए। रघुकुल के चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी ने मुदित हुई मुनिमंडली को आते देखकर दण्डवत् प्रणाम किया।







मुनि रघुबरहिं लाइ उर लेहीं। सुफल होन हित आसिष देहीं।। सिय सौमित्रि राम छबि देखहिं। साधन सकल सफल करि लेखहिं।।_अर्थ_मुनिगण श्रीरामजी को हृदय से लगा लेते हैं और सफल होने के लिये आशीर्वाद देते हैं। वे सीताजी, लक्ष्मण जी और श्रीरामचन्द्रजी की छबि देखते हैं और अपने सारे साधनों को सफल हुआ समझते हैं।






जथाजोग सनमानि प्रभु बिदा किए मुनिवृंद। करहिं जोग जप जाग तप निज आश्रमन्हि सुछंद।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने जथायोग्य सम्मान करके मुनिमंडली को विदा किया। ( श्रीरामचन्द्रजी के आ जाने से ) वे सब अपने_अपने आश्रमों में अब स्वतंत्रता के साथ जाग, यज्ञ और तप करने लगे।





यह सुधि कोल किरातन्ह पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई।। कंद मूल फल भरी भरी दोना। चले रंक जनु लूटन सोना।।_अर्थ_यह ( श्रीरामजी के आगमन का ) समाचार जब कोल_भीलों ने पाया, तो वे ऐसे हर्षित हुए मानो नवों निधियां उनके घर ही पर आ गयी हैं। वे दोनों में कन्द, मूल, फल भर_भरकर चले। मानो दरिद्र सोना लूटने चले हों।






तिन्ह महं जिन्ह देखे दोउ भ्राता। अपर तिन्हहिं पूछहिं मगु जाता।। कहत सुनत रघुबीर निकाई। आइ सबन्हिं देखें रघुराई।।_अर्थ_ उनमें से जो दोनों भाइयों को ( पहले ) देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रास्ते में जाते हुए पूछते हैं। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी की सुन्दरता कहते_सुनते सबने आकर रघुनाथजी ने दर्शन किये।







करहिं जोहारु भेंट धरि आगे। प्रभुहिं बिलोकहिं अति अनुरागे।। चित्र लिखे जनु जहं तहं ठाढ़े। पुलक सरीर नयन जल बाढ़े।।_अर्थ_भेंट आगे रखकर वे लोग जोहार करते हैं और अत्यन्त अनुराग के साथ प्रभु को देखते हैं। वे मुग्ध हुए जहां_के_तहां मानो चित्रलिखे_से खड़े हैं। उनके शरीर पुलकित हैं और नेत्रों में प्रेमाश्रुओं के जल की बाढ़ आ रही है।






राम सनेह मगन सब जाने। कहि प्रिय बचन सकल सनमाने।। प्रभुहिं जोहारि बहोरि बहोरी। बचन बिनीत कहहिं कर जोरी।।_अर्थ_श्रीरामजी ने उन सबको प्रेम में मग्न जाना, और प्रिय वचन कहकर सबका सम्मान किया। वे बार_बार प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को जोहार करते हुए हाथ जोड़कर विनती वचन कहते हैं_






अब हम नाथ सनाथ सब भए देखि प्रभु पाय। भाग हमारें आगमनु राउर कोसलराय।।_अर्थ_हे नाथ ! प्रभु ( आप ) के चरणों का दर्शन पाकर अब हम सब सनाथ हो गये। हे कोसलराय ! हमारे ही भाग्य से आपका यहां शुभागमन हुआ है।

Monday, 10 April 2023

अयोध्याकाण्ड

प्रभु प्रसाद सुचि सुभाग सुबासा। सादर जासु रहा नित नासा।। तुम्हहि निवेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।_अर्थ_जिसकी नासिका प्रभु ( आप ) के पवित्र और सुगंधित ( पुष्पादि ) सुन्दर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती ( सूंघती ) हैं, और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं;





सीस नवहिं गुर द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनती बिसेषी।। कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नहिं दूजा।।_अर्थ_जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेमसहित झुक जाते हैं; जिनके हाथ नित्य श्रीरामचन्द्रजी ( आपके ) चरणों की पूजा करते हैं, और जिनके हृदय श्रीरामचन्द्रजी 
( आप ) का ही भरोसा है, दूसरा नहीं;





चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।। मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तिन्हहिं सहित परिवारा।।_अर्थ_तथा जिनके चरण श्रीरामचन्द्रजी ( आप ) के तीर्थों में चलकर आते हैं; हे रामजी ! आप उनके मन में निवास कीजिये। जो नित्य आपके ( रामनामरूप ) मंत्रराज को जपते हैं और परिवार ( परिकर ) सहित आपकी पूजा करते हैं।




तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवांइ देहिं बहुत दाना।। तुम्ह तें अधिक गुरहि जियं जानी। सकल भायं सेवहिं सनमानी।।_अर्थ_जो अनेकों प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं, तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं; तथा जो गुरु को हृदय में आपसे भी अधिक ( बड़ा ) जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं;




सब कर मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ। तिन्ह के मन मंदिर बसहु सिर रघुनंदन दोउ।।_अर्थ_और ये सब कर्म करके सबका एकमात्र यही फल मांगते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में हमारी प्रीति हो; उन लोगों के मनरूपी मंदिरों में सीताजी और रघुकुल को आनंदित करनेवाले आप दोनों बसिये।




काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।। जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।_अर्थ_ जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है; न लोभ है, न क्षोभ है; और न कपट, धम्म र माया ही है_हे रघुराज ! आप उनके हृदय में निवास कीजिये।




सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।। कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत  सरन तुम्हारी।।_अर्थ_जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दु:ख और सुख तथा प्रशंसा ( बड़ाई ) और गाली ( निंदा ) समान हैं, जो विचार कर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते_सोते आपकी ही शरण हैं,




तुम्हहिं छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।। जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।_अर्थ_और आपको छोड़कर जिनके दूसरी कोई गति ( आश्रय ) नहीं है, हे रामजी ! आप उनके मन में बसिये। जो पराई स्त्री को जन्म देनेवाली माता के समान जानते हैं, और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी विष है;





जे हरषहिं पर संपत्ति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।। जिन्हहिं राम तुम प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।_अर्थ_जो दूसरे की संपत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दु:खी होते हैं, और से रामजी ! जिन्हें आप प्राणों से प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं।




स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात। मन मंदिर तिन्ह के बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।_अर्थ_हे तात ! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं उनके मन रुपी मन्दिर में आप दोनों भाई निवास कीजिये।






अवगुन तजि सब के गुन गहहिं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।। नीति निपुण जिन्ह की जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।_अर्थ_जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गौ के लिये संकट सहते हैं, नीति निपुणता में जिनकी जगत् में मर्यादा है, उनका सुन्दर मन आपका घर हैं।




गुन तुम्हार समुझई निज दोसा। जेहिं सब भांति तुम्हार भरोसा।। राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।_अर्थ_ जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे सब प्रकार से आपका ही भरोसा है, और रामभक्त जिसे प्यारे लगते हैं, उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिये।



Tuesday, 28 March 2023

अयोध्याकाण्ड

मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं।। मंगल मूल बिप्र परितोषू। देही कोटि कुल भूसुर रोषू।।_अर्थ_क्योंकि जिससे मुनि और तपस्वी दु:ख पाते हैं, वे राजा बिना अग्नि के ही ( अपने दुष्ट कर्मों से ही ) जलकर भस्म हो जाते हैं। ब्राह्मणों का संतोष सब मंगलों की जड़ है और भूदेव ब्राह्मणों का क्रोध करोड़ों कुलों को भस्म कर देता है।





अस जिअं जानि कहिअ सोई ठाऊं। सिय सौमित्रि सहित जहं जाऊं।। तहं रचि रुचिर परन तृनसाला। बासु करौं कछु काल कृपाला।।_अर्थ_ऐसा हृदय में समझकर_वह स्थान बतला आते जहां मैं लक्ष्मण और सीता सहित जाऊं। और वहां सुन्दर पत्तों और घास की कुटी बनाकर, से दयालु ! कुछ समय निवास करूं।





सरल सहज सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ज्ञानी।। कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संयत श्रुति सेतू।।_अर्थ_श्रीरामजी की सहज ही सरल वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि वाल्मीकि बोले_'धन्य ! धन्य ! हे रघुकुल ध्वजा स्वरूप ! आप ऐसा क्यों न कहेंगे ? आप सदैव वेद की मर्यादा का पालन करते हैं।






श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी। जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाई कृपानिधान की।। जो सहस सीसु अहीसु महीधरु लखनु सचराचर धनी। सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी।।_अर्थ_हे राम ! आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकी जी ( आपकी स्वरूप भूता ) माया हैं, जो कृपा के भण्डार आपकी रुख पाकर जगत् का सृजन, पालन और संहार करती हैं। जो हजार मस्तक वाले सर्पों के स्वामी और पृथ्वी को अपने सिर पर धारण करने वाले हैं, वहीं चराचर के स्वामी शेषजी लक्ष्मण हैं। देवताओं के कार्य के लिये आप राज का शरीरक्ष धारण करके दुष्ट राक्षसों की सेना का नाश करने के लिये चले हैं।




राम स्वरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर। अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।_अर्थ_हे राम !आपका स्वरूप वाणी के अगोचरी, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरंतर उसका 'नेति नेति कहकर वर्णन करते हैं।






जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।। तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहिं को जाननिहारा।।_अर्थ_ हे राम ! जगत् दृश्य है, आप उसके देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचानेवाले हैं। जब भी वे आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जानने वाला है।







सोई जानइ जेहिं देहु जनाई। जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।। तुम्हरिहि कृपाल तुम्हहिं रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन।।_अर्थ_वही आपको जानता है जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन ! हे भक्तों के हृदय को शीतल करनेवाले चन्दन ! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं।







चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी।। नर तनु धरेहु संत सुर काजा। करहु करहु जस प्राकृत राजा।।_अर्थ_आपकी देह चिदानंदमय है ( यह प्रकृति जन्म पंचमहाभूतों की बनी हुई कर्मबंधनयुक्त त्रिदेहविशिष्ठ माणिक नहीं है ) और ( उत्पत्ति_नाश, वृद्धि_क्षय आदि ) सब विकारों से रहित है; इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं। आपने देवता और संतों के कार्य के लिये ( दिव्य ) नरशरीर धारण किया है और प्राकृत ( प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले, साधारण ) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं।





राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे।। तुम्ह जो कहहु करहु सबु सांचा। तस काछिअ जस चाहिअ नाचा।।_अर्थ_ हे राम ! आपके चरित्रों को देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह सब सत्य ( उचित ) ही है; क्योंकि जैसा स्वांग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिये ( इस समय आप मनुष्य रूप में हैं, अतः मनुष्योचित व्यवहार करना ठीक ही है )।



पूछेहुं मोहि कि रहौं कहं मैं पूंछत सकुचाउं। जहं न होहु तहं देहु कहुं तुम्हहिं देखावौं ठाउं।।_अर्थ_आपने पूछा कि मैं कहां रहूं ? परंतु मैं यह पूछते सकुचा था हूं कि जहां आप न हों, वह स्थान बता दीजिये। तब मैं आपके रहने के लिये स्थान दिखाऊं ।





सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुं मुसुकाने।। बाल्मीकि हंसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी।।_अर्थ_मुनि के प्रेमरस से सने हुए वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ( रहस्य खुल जाने के डर से ) सकुचाकर मन में मुस्कराये। वाल्मीकिजी हंसकर फिर अमृत_रस में डुबोती हुई मीठी वाणी बोले_






सुनहु राम अब कहुं निकेता। जहां बसहु सिय लखन समेता।। जिन्ह के श्रवण समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।_अर्थ_हे रामजी ! सुनिये, अब मैं वे स्थान बताता जहां आप सीताजी और लक्ष्मण जी समेत निवास करिये। जिसके कान समुद्र की भांति आपकी कथा रूपी अनेकों सुंदर नदियों से_







भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हित तुम्ह कहुं गृह रूरे।। लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधार अभिलाषे।।_अर्थ_निरंतर भरते रहते हैं, परंतु कभी कभी पूरे ( तृप्त ) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिखे सुन्दर घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिये सदा लालायित रहते हैं।






निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।। तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक।। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।_अर्थ_तथा जो भारी_भारी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौंदर्य ( रूपी मेघ ) के एक बूंद जल से सुखी हो जाते हैं ( अर्थात् आपके दिव्य सच्चिदानंद मय स्वरूप के किसी एक अंग की जरा_सी भी झांकी समाने स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों जगत् के, अर्थात् पृथ्वी, स्वर्ग और ब्रह्मलोक तक के सौन्दर्य का तिरस्कार करते हैं ), हे रघुनाथ जी ! उनलोगों के हृदय रूपी सुखदायी भवनों में आप भाई लक्ष्मण और श्रीसीताजीसहित निवास कीजिये।





जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु। मुक्ताहार गुन गन चुनइ राम बसहु हियं तासु।। _अर्थ_आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिसकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुणसमूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे रामजी ! आप उसके हृदय में बसिये।





Monday, 13 March 2023

अयोध्याकाण्ड

प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता।। सीय राम पद अंक बराएं। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएं।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के ( जमीन पर अंकित होनेवाले दोनों ) चरणचिन्हों के बीच_बीच में पैर रखती हुई सीताजी ( कहीं भगवान् के चरणचिन्हों पर पैर न टिक जाय इस बात से ) डरती हुई मार्ग में चल रही हैं, और लक्ष्मण जी  और लक्ष्मणजी ( मर्यादा की रक्षा के लिये ) सीताजी और श्रीरामचन्द्र जी दोनों के चरणचिन्हों को बचाते हुए उन्हें दाहिने रखकर रास्ता चल रहे हैं।





राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई।। खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं।।_अर्थ_श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी की सुन्दर प्रीति वाणी का विषय नहीं है ( अर्थात् अनिवर्चनीय है ), अतः: वह कैसे कहीं जा सकती है ? पक्षी और पशु भी उस छवि को देखकर ( प्रेमानंद में मग्न हो जाते हैं। पथिकरूप श्रीरामचन्द्रजी ने उनके भी चित्त चुरा लिये हैं।




जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ। भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ।।_अर्थ_प्यारे पथिक सीताजी सहित दोनों भाइयों को जिन जिन लोगों ने देखा, उन्होंने भव का अगम मार्ग ( जन्म_मृत्युरूपी संसार में भटकनेवाला भयानक मार्ग ) बिना ही परिश्रम आनंद के साथ तै कर लिया ( अर्थात् वे आवागमन के चक्र से सहज ही छूटकर मुक्त हो गये ।




अजहुं जासु उर सपनेहुं काऊ। बसहुं लखनु सिय रामु बटाऊ।। राम नाम पर पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहुंक मुनि कोई।।_अर्थ_आज भी जिसके हृदय में स्वप्न में भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों बटोही आ बसे तो भी वह श्रीरामजी के परमधाम के उस मार्ग को पा जायगा जिस मार्ग को कभी कोई बिरले ही मुनि पाते हैं ।





तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु सीतल पानी।। तहं बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाई चले रघुराई।।_अर्थ_तब श्रीरामचन्द्र जी सीताजी को थकी हुई जानकर और समीप ही एक बड़ का वृक्ष देखकर उस दिन वहीं ठहर गये। कन्द मूल फल खाकर ( रातभर वहां रहकर ) प्रात:काल स्नान करके श्री रघुनाथ जी आगे चले।




देखत बन सर सैल सुहाए। बाल्मीकि आश्रम प्रभु आए।। राम दीख मुनि बास सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन।।_अर्थ_सुंदर वन, पर्वत और तालाब देखते हुए रामु श्रीरामचन्द्रजी अअ सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले।। खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।_अर्थ_सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं। बहुत से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और रहित होकर प्रसन्न मन से विचर रहे हैं।




सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले।। खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।_अर्थ_सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं। बहुत से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और वैर से रहित होकर प्रसन्न मन से बिचर रहे हैं।





सुचि सुंदर आश्रम निरखि हरसे राजीवनैन। सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन।।_पवित्र और सुंदर आश्रम को देखकर कमलनयन श्रीरमचन्द्रजी हर्षित हुए। रघुश्रेष्ठ श्रीरामजी का आगमन सुनकर मुनि वाल्मीकि जी उन्हें लेने के लिये आगे आये।





मुनि कहुं राम दंडवत् कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा।। देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने मुनि को दण्डवत् किया। विप्र श्रेष्ठ मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया। श्रीरामचन्द्रजी की छवि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गये। सम्मान पूर्वक मुनि उन्हें अपने आश्रम में ले आये







मुनि बर अतिथि प्राणप्रिय पाए। कंद मूल फल मधुर मगाए।। सिर सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए।।_अर्थ_श्रेष्ठ मुनि वाल्मीकि जी ने प्राणप्रिय अतिथियों को पाकर उनके लिखे मधुर कन्द, मूल, फल मंगवाते। श्रीसीताजी, लक्ष्मण जी और रामचन्द्रजी ने फलों को खाया। तब मुनि ने उनको ( विश्राम करने के लिये ) सुन्दर स्थान बतला दिये।




बाल्मीकि मन आनंदु भारी। मंगल मूर्ति नयन निहारी।। तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई।।_अर्थ_( मुनि श्रीरामजी के पास बैठे हैं और उनकी ) मंगल_मूर्ति को नेत्रों से देखकर बाल्मीकि जी के मन में बड़ा भारी आनंद हो रहा है। तब श्री रघुनाथ जी कमल सदृश हाथों को जोड़कर, कानों को सुख देने वाले मधुर वचन बोले_





तुम्ह त्रिकालदर्शी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा।। अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहिं जेहि भांति दीन्ह बनु रानी।।_अर्थ_हे मुनिनाथ ! आप त्रिकालदर्शी हैं। संपूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। प्रभु श्रीरामचन्रजी ने ऐसा कहकर फिर जिस जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने वनवास दिया, वह सब कथा विस्तार से सुनायी।




तात बचन पुनि मातु हित भाई भरत अस राउ। मो कहुं दरस तुम्हार प्रभु सबुत मम पुन्य प्रभाउ।।_अर्थ_(और कहा__) से प्रभु ! पिता की आज्ञा ( का पालन ), माता का हित और भरत जैसे ( स्नेही एवं धर्मात्मा ) भाई का राजा होना और फिर मुझे आपके दर्शन होना, यह सब मेरे पुन्यों का प्रभाव है।




देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे।। अब जहं राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई।।_अर्थ_हे मुनिराज ! आपके चरणों का दर्शन करने से आज हमारे सब पुण्य सफल हो गये ( हमें सारे पुत्रों का फल मिल गया )। अब जहां आपकी आज्ञा हो और जहां कोई भी मुनि उद्वेग को न प्राप्त हो_


Sunday, 26 February 2023

अयोध्याकाण्ड

जौं ए कंद मूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जग माहीं।। एक कहहिं ए सहज सुहाए। अपुन प्रगट भए बिधि न बनाएं ।।_अर्थ_जों ये कन्द, मूल, फल खाते हैं तो जगत् में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं। कोई एक कहते हैं_ये स्वभाव से ही सुंदर हैं ( इनका सौन्दर्य_माधुर्य नित्य और स्वाभाविक है )। ये अपने_आप प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा के बनाये नहीं।




जहं लगि बेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मनु गोचर बरनी।। देखहु खोजि भुवन दस चारी। कहु अस पुरुष कहां असि नारी।।_अर्थ_हमारे कानों, नेत्रों और मन के द्वारा अनुभव में आनेवाली विधाता की करनी को जहां तक वेदों ने वर्णन करके कहा है, वहां तक चौदहों लोकों में ढ़ूंढ़ देखो, ऐसा पुरुष और ऐसी स्त्री कहां हैं ? ( कहीं भी नहीं है, इसी से सिद्ध है कि ये विधाता के चौदहों लोकों से अलग है और अपनी महिमा से अपने आप निर्मित हुए हैं।





इन्हहिं देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा।। कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए। जेहिं इरिषा बन अनि दुराए।।_अर्थ_इन्हें देखकर विधाता का मन अनुरक्त ( मुग्ध ) हो गया, तब वह भी इन्हीं की उपमा के योग्य दूसरे स्त्री_पुरुष बनाने लगा। उसने बहुत परिश्रम किया, किन्तु कोई उसकी अटकल में ही नहीं आये ( पूरे नहीं उतरे )। इसी ईर्ष्या के मारे उसने इनको जंगल में लाकर छिपा दिया है।





एक कहहिं हम बहुत न जानहिं। आपुहि परम धन्य करि मानहिं।। ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे।।_अर्थ_कोई एक कहते हैं_हम बहुत अधिक नहीं जानते। हां, अपने को परम धन्य अवश्य समझते हैं ( जो इनके दर्शन कर रहे हैं ) और हमारी समझ में वे भी बड़े पुण्यवान् हैं जिन्होंने इन्हें देखा है, जो देख रहे हैं और जो देखेंगे।







एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर। किमि चलिहिहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर।।_अर्थ_इस प्रकार प्रिय वचन कह_कहकर सब नेत्रों में ( प्रेमाश्रुओं का ) जल भर लेते हैं और कहते हैं कि ये अत्यन्त सुकुमार शरीर वाले दुर्गम ( कठिन ) मार्ग में कैसे चलेगें।




नारि सनेह बिकल बस होहीं। चकईं सांझ समय जनु सोहीं।। मृदु पद कमल कठिन मगु जानी। गहबरि हृदयं कहहिं बर बानी।।_अर्थ_स्त्रियां स्नेहवश विकल हो जाती हैं। मानो संध्या के समय चकवी ( भावी वियोग की पीड़ा से ) सोह रही हों ( दुखी हो रही हों )। इनके चरणकमलों को कोमल तथा मार्ग को कठोर जानकर वे व्यथित हृदय से उत्तम वाणी कहती हैं।




परसत मृदुल चरन अरुनारे। सकुचित महि जिमि हृदय हमारे।। जौं जगदीस इन्हहिं बनु दीन्हा। कस न सुमनमय मारगु कीन्हा।।_अर्थ_इनके कोमल और लाल_लाल चरणों ( तलवों ) को छूते ही पृथ्वी वैसे ही सकुचा जाती है जैसे हमारे हृदय सकुचा रहे हैं। जगदीश्वर ने यदि इन्हें वनवास ही दिया, तो सारे रास्ते को पुष्पमय क्यों नहीं बना दिया?




जौं मांगा पाइअ बिधि पाहीं। ए रखिअहिं सखि आंखिन्ह माहीं।। जे नर नारि न अवसर आए। तिन्ह सिय राम न देखन पाए।।_अर्थ_यदि ब्रह्मा से मांगे तो हे सखि ! ( हम तो उनसे मांगकर ) इन्हें अपनी आंखों में ही रखें ! जो स्त्री_पुरुष इस अवसर नहीं आये, वे श्रीसीतारामजी को नहीं देख सके।






सुनि सुरूपु बूझहिं अकुलाई। अब लगि गए कहां लगि भाई।। समरथ धाइ बिलोकहिं जाई। प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई।।_अर्थ_उनके सौन्दर्य को सुनकर वे व्याकुल होकर पूछते हैं कि भाई ! अबतक वे कहां तक गये होंगे ? और जो समर्थ हैं वे दौड़ते हुए जाकर उनके दर्शन कर लेते हैं और जन्म का फल पाकर, विशेष आनंदित होकर लौटते हैं। 





गांव गांव अब होई अनंदू। देखि भानुकुल कैरव चंदू।। जे कछु समाचार सुनि पावहिं। ते नृप रानिहि दोसु लगावहिं।।_अर्थ_सूर्यकुलरूपी कुमुदिनी के प्रफुल्लित करने वाले चन्द्रमा स्वरूप श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन कर गांव_गांव में ऐसा ही आनंद हो रहा है। जो लोग ( वनवास दिये जाने का ) कुछ भी समाचार सुन पाते हैं, वे राज_रानी ( दशरथ_कैकेयी ) को दोष लगाते हैं।




कहहिं एक अति भल नरनाहू। दीन्ह हमहि जेहि लोचन लाहू।। कहहिं परस्पर लोग लोगाईं। बातें सरल सनेह सुहाई।।_अर्थ_कोई एक कहते हैं कि राजा बहुत ही अच्छे हैं, जिन्होंने हमें अपने नेत्रों का लाभ दिया। स्त्री _पुरुष सभी आपस में सीधी, स्नेह भरी सुन्दर बातें कर रहे हैं।




ते पितु मातु धन्य जिन्ह जाए। धन्य सो नगरु जहां तें आए।। धन्य सो देसु सैलु बन गाऊं। जहं जहं  जाहिं धन्य सोइ ठाऊं।।_अर्थ_( कहते हैं _ ) वे माता_पिता धन्य हैं जिन्होंने इन्हें जन्म दिया। वह नगर धन्य हैं जहां से ये आते हैं। वह देश, पर्वत, वन और गांव धन्य है, और वही स्थान धन्य है जहां जहां ये जाते हैं।




सुखु पायउ बिरंचि रचि तेही। ए जेहिं के सब भांति सनेही।। राम लखन पथ कथा सुहाई। रही सकल मग कानन छाई।।_अर्थ_ब्रह्मा ने उसी को रचकर सुख पाया है जिसके ये  ( श्रीरामचन्द्र जी ) सब प्रकार से स्नेही हैं। पथिकरूप श्रीराम_लक्ष्मण की सुन्दर कथा सारे रास्ते  जंगल में जा गयी है।




एहि बिधि रघुकुल कमल रबि मग लोगन्ह सुख देत। जाहिं चले देखत बिपिन सिय सौमित्रि समेत।।_रघुकुलरुपी कमल के खिलानेवाले सूर्य श्रीरामचन्द्रजी इस प्रकार मार्ग के लोगों को सुख देते हुए सीताजी और लक्ष्मण जी सहित वन को देखते हुए चले जा रहे हैं। 




आगें राम लखनु बनु पाछें। तापस बेस बिराजत काछें।। उभय बीच सिय सोहति कैसें। ब्रह्म जीव बिच माया जैसें।।_अर्थ_आगे श्रीरामजी हैं, पीछे लक्ष्मण जी सुशोभित हैं। तपस्वियों  के वेष बनाये दोनों बड़ी शोभा पा रहे हैं। दोनों के बीच में सीताजी कैसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया।





बहुरि कहउं छबि जब मन बसई। जनु मधु मदन मध्य रति लसई।। उपमा बहुरि कहउं जियं जोही। जनु बुध बिधु बिच रोहिनि सोही।।_अर्थ_फिर जैसी छबि मेरे मन में बस रही है, उसको कहता हूं_ मानो बसंत ऋतु और कामदेव के बीच में रति ( कामदेव की स्त्री ) शोभित हो। फिर अपने हृदय में खोजकर उपमा कहता हूं कि मानो बुध ( चन्द्रमा के पुत्र ) और चन्द्रमा के बीच में रोहिणी ( चन्द्रमा की स्त्री ) सोह रही हो।